गुलदस्ता - 13 Madhavi Marathe द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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गुलदस्ता - 13

गुलदस्ता १३   

 

 

          ७४

आंखों की गहराई से शाम,

झील में उतरती गई

सांसों की लयकारी में

समाती चली गई

नसनस की लंबाई

नापते अंदर चलती रही

हृदय के गुढ अंधेरे में

उपर नीचे होती रही

देखी उसने तप्त

भुख की अग्निज्वाला

पेट में तडफडाए

रस के लाव्हा

सुरमई शाम, यह सब देख के ,

आखों के आँसूओं से बाहर आ गई

रात का सन्नाटा और गहरा करते

वह सृष्टी दृष्टी से ओझल हो गई

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         ७५

ब्रम्हाण्ड के चैतन्य से

अणू रेणु एकरूप हो गए

फिर भी एक बिंदु

तो रह ही जाता है

अपना अस्तित्व बना कर रखता है

उसके लिए काफी होता है

व्दैत भरी सृष्टी का,

नित्य नुतन समारोह देखना

वह बिंदु ब्रम्हाण्ड में विलीन हो गया

तो उसे जीने मरने से पार जाना पडता है

फिर नवीनता के गीत होठों पर नही रहते

व्दैत में सुख दुःख की किंमत तो

उस बिंदु को चुकानी पडती है

अव्दैता में पूरी सृष्टी एकरूप हो जाती है

मैं ही सृष्टी हूँ

या सृष्टी का अंश हूँ

यह बात हर एक के

दिल का अंतरंग तय

करता है, वही

एक बिंदु होता है

उसका एक नाम आत्मा होता है

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         ७६

किताबों की दुनिया में

तेरा गुम हो जाना

कितनी खुषी देकर जाता है

क्योंकी जब तुम वास्तवता की

दुनिया में होते हो तो वेदनाओं से

फडफडना मुझसे देखा नही जाता

किताब की काल्पनिक दुनिया में

जब तुम चले जाते हो तब तुम

एक अलग ही हस्ती बन जाते हो

उसके रास्ते, मोड से तुम दुनिया पार हो जाते हो

में बहोत से गाँव मेरे हाँथ में रखती हूँ

तुम्हारे चेहरे से पता चल जाता है

की तुम कहाँ हो

किताब में घुमकर जब तुम वापिस

आते हो, तो तुम्हारा फिर से वेदनाओं से

परिचय होने से पहेले ही दुसरे किताब का

गाँव तुम्हारे हाथ सोंप देती हूँ

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         ७७

रिश्तों के बंधनों से

बंधे हुए दृश्य अदृश्य धागों की जखडता में

तन मन झुलस जाते है

तथा प्यार के बंधन भी

इतनी जखडता से

अपने जाल मे फासते है की

तब, मन में वेदनाओं का

सैलाब आता है

ऐसे में उन रिश्तों को

पूर्णविराम देने के सिवाय

कोई चारा नही रहता

नही तो वो दोनो प्रकार की

वेदनाए जीती जागती

मृत्यू का द्वार खोल देती है

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         ७८

हृदय के अंतराल में

कोई गझल उभरती आयी

जीवन का मतलब बताकर

दिल को बहेला कर गई

प्रतिभावान गझल से निकले

हजारो लाखों फुहारे

सुलझने लगी सासों की लडियाँ

गझल कागज पर उतारे

कब आयी और कब गई

जाने वो घडियाँ कहाँ बीत गई

में तो अभी भी अनजान हूँ उस पल से

जब वह मुझ पर बरसती रही

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         ७९

कितनी यादें ऐसी होती है

जो भूले नही भूलाती

आदमी ने दिये जख्मों की

परते, कितने गुना बढती जाती

ऐसे जख्मों पर कभी दवाई नही काम आती

यादों के भँवरे उन

जखमों पर रहते भिनभिनाते

गहरी जखमों पर कभी परते आ गई

तो वही पर घाव लग जाता है

वेदना से चीरते हुए दिल को

रक्तरंजित कर जाता है

ऐसे समय में नही सह सकते है

किसी शब्दों के जाल

दिल ही थम जाता है वही पर

तोडकर भवसागर मायाजाल

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