गुलदस्ता १४
Guldasta
निसर्ग एक अनुठा जादुगर है, उसी के सान्निध्य में अशांत मन शांती खोजता है। हरियाली, झरने, फुल, पंछी, पौधे, नदी समंदर, आकाश, पहाड, अपने सकारात्मक उर्जासे मन शांत कर देते है। ऐसेही निसर्ग की सुंदरता पर कुछ पंक्तिया......
८०
मोड लेते हुए रास्ते
लाल रंगों से सजते है
हरी रंग किनार की
पीले फुलों में लहराते है
तितलीयों की रंगीन फडफडाहट
किटक का उन्हें देखकर छुप जाना
चिटीयों की बारीकसी झुंड,
पंछी का मजे से उन्हे चट कर जाना
ऐसेही चले जाते है दूर
मोड लेते हुए रास्ते
जीवन का काम है चलना
यह बात दिखलाने वास्ते
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८१
सुंदर मखमली
कली की कोमलता
हरे पेडों पर लहराये
सोई हुई पंखुडियों मे
कल के ख्वाब
सुनहरे सजाए
सपने में ही हँसी
एक पंखुडी
अस्फुट हरे अस्तर खूल गए
लालिमा के रंगो से
जीवन के स्तर झूल गए
भोर की हवाँए छु लेते ही
कली अर्धोन्मिलित हो गई
आलोक का स्पर्श पाते ही
वह कली से फूल बन गई
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८२
तुफानों की लहऱों पर
बेधुंदी से सवार हो जाए
दुनिया जीतने से अच्छा
मुक्तता में दौडते जाए
पर्वा न करे नदी तालाबों की
परबतों के चोटीयों
नशीली हवा पी कर
गर्जाए टाप घोडों की
चारों दिशा में दौडे घोडे
पिछे मिट्टी का ढेर
मैं और घोडा एक
मन की गती का
हमे न पहुचना देर सबेर
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८३
लंबी हो गई धुप की छाया
पैर भारी हो गये
ढलते सुरज की किरणे
लालिमा में खो गए
रास्ते में फैल गई
हवा की तेज लहरे
मिट्टी की फुवारों से
पैर डगमगाने लगे
फडफडाता दुःखभरा स्पंदन
वेदनाओें से तडपने लगा
रास्ता काटों से भरा
निशान दिल में उतरते है
राहों पर अकेले चलते
पैर रेत में धस जाते है
तन और मन का बोझ
संभलते न संभलता है
कभी तो खत्म हो जायेगी ये राहें
शांती भरी संध्या आएगी
सब निशानीयाँ पिछे छोड
मन में सुकून पाएगी
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८४
बहोत कुछ तरल सा
मन में समा जा रहा था
मृदु मुलायम पंखो सा
रेशम जैसा नाजुकसा
नाद में मधुरता सा
स्वाद में मिठास सा
इस सब में, वह लहरता
चला गया हलकासा
कितने देर में वह
क्षण, पलों में समेटकर
बैठ गई, उन जाने
अनजाने से यादों को
सिमटती चली गई
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८५
जीवन के अंधेरे में
जब तुफान आता है तब
कडाडती बिजली जैसा
दुःख समा जाता है
बादलों की उमड घुमड से
घनघोर बारिश गिरती है
अभी था वो अभी नही
ऐसे भी स्थिती आती है
सर्द के कारण
तन मन थम जाता है
धुप की एक किरण आ गई
तो भी तटस्थता में वह लुप्त हो जाती है
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८६
अलग अलग ख्वाबों को
बहोतसी राहें दिख जाती है
लेकिन एक राह को ही
चुनना पडता है, उसको ही
सिंचना पडता है, उसी राह पर
परिश्रम से चलते, आखिर वह
हाँथ में आता है
ख्वाब तो जरूर देखने चाहिये
लेकिन उसका एक धागा पाकर, आसमान
तक पंख फेलाने है
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८७
समय नही रुकनेवाला
पलपल करते दौडने वाला
मिनिटों मिनिटों को जोडने वाला
घंटों की रफ्तार बनाकर
दिन वही थमने वाला
दिन दिन करते बन जाते है
महिनों की फुलमाला
महिने बीतते वर्षों में
ऐसे ही जीवन खत्म होने वाला
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८८
सफेद बादलों का झुंड
चक्राकार रूप में
तेजी से दौड रहा था
नीले आसमान पर
कब्जा करने की जिद में
वह अपना अस्तित्व भूल रहा था ,
आसमान ने पहेचान लिया
उसके मन का भाव
शांती से देखता रहा वह
बादलों की छाँव
आसमान को पता था
जल्दी बादल टकराऐंगे परबतों पर
कतरा कतरा बिखर जाऐंगे
अपने गरुर के टुकडों पर
इसीलिए जीवन में केवल
लहराने का आनंद लेना चाहिये
किसी पर कब्जा करने के बजाय
साथ निभाने की खुषी जिनी चाहिये
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८९
रेगिस्तान में चलनेवालों को
पता रहेता है, की
वहाँ भी समृध्द जीवन
खिलखिलाता है
कही पानी का आभास
तो कही ऑएसिस
फलता फुलता है
छुपे क्षणों के साँप
रेत के नीचे रहते है
तो किसी की प्यास
बुझाने का काम
कॅक्टस बडे प्यार से करते है
तेज धुप में भी
कही अचानक छाँव मिलती है
रात की चाँदनी भी
गरम हवाँ के झोके सहती है
अपने मग्नता में मग्न
काफिला चलता रहता है
धूप छाँव के अनुमानता का
उनको पहले ही पता रहता है
रेतों के पहाडों पर चलते चलते
मुकाम पर पहुँच जाते है
रेतों में उठे पाँव के निशान
वही पर मिट जाते है
रेत में नई राह
अपनी तयार करनी होती है
किसी और के निशान
रास्ते नही दिखलाते है
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९०
अब ए कविता में तुमसे
विदाई लेती हूँ
कितना खेलकुद लिया
तुम्हारे साथ, कभी रुठ गई तू
तो कभी हँसी, किलकीलारीयों से गुंज उठी
कभी हलकेसे खिल उठी तो
कभी अटक गई सवालों पर
कभी हवाँ में उडती कल्पनाओं को
भूमि पर बाँध दिया ,तो कभी
इंद्रधनु से उतरते गुलाब के
काँटों में छोड दिया
कभी वास्तविकता का भान रखा
सामाजिक मुद्दों पर वार किया
अभी तो कह रही हूँ की तुमसे विदाई लेती हूँ
पर मुझे पता है, तू थोडीही
दुर जाकर वापिस मेरे पास आएगी
हम दोनो जानते है
एक दुसरे के बिना हम दोनो अकेले है
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