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गुलदस्ता - 6    

      ३१

साँझ की बेला में

रात की रानी का सुगंध आया

आँगन के कोने में

महकती उसकी छाया

सुगंध से जुडी यादों का

सिलसिला भी छलछलाता गया

तू आकर चला गया था

हमेशा के लिये कर दिया पराया

उस दिन सुगंध में दोनो खो गये थे

एक दुसरे से बिछडने का

गम झेल रहे थे

न खता थी तुम्हारी, ना मेरी

फिर भी दुनिया के मेले में

अब हम खोने चले थे

हमे कभी याद करना, ऐसे शब्द

हम दोनो ने भी नही कहे थे

क्यों की याद करने के लिये

कभी एक दुसरे को हम भूल नही पाए थे

जीवन के अंत तक

रात की रानी महकती रहेगी

तू है इसी जहाँ में यह बात हमे जताती रहेगी

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     ३२

पुनम का चाँद

जब आसमान में

खिलता है तो

सारा आकाश

उसकी दुधीया रंग में

रंग जाता है

प्रकृति के उस आनंद में

सारी दुनिया खुश हो जाती है

लेकिन चाँद के ध्यान में एक

बात याद आती है

मेरे प्रकाश के कारण चांदनियाँ

लुप्त हो गई है

तो वह आकाश में से अपना

दुधीय प्रकाश पृथ्वी पर

भेजकर सारा जहाँ  

जगमगा देता है

उपर नीला आसमान

चाँद के साथ चाँदनियों को भी

चमका देता है

जो दुसरों का खयाल करते है

उनका खयाल प्रकृति स्वतःही

रखती है, दुसऱों के आनंद में

खुद की खुशी समा देती है

जीवन जीते समय संभलकर चलना है

कही पाँव फँस न जाए, यह बात ध्यान में रखना है

कही अटकने का खतरा नजर आते ही

उछलने वाले पत्थरों पर धीरे से कदम रखना है

पत्थर का कही कोना चुभ जाए तभी भी

याद रखना इसी पत्थरने मुझे संभाला है

फूलों के मुलायम स्पर्श के नीचे

कही काँटे तो छुपे होंगे इसकी चेतना रखनी है

सामने दिखाए दिए काँटों से जादा

फूल के अंदर से चुभने वाले काँटे, जादा

रुलाते है यह बात हमेशा याद रखनी है  

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         ३३

साँझ की बेला में

सामने आती है

जीवन में की हुई गलतियाँ

कैसे भुल हो गई, कहाँ हो गई

इस विचार का समाधान

नही मिलता, नही खुलता राज

एक दुसरों की विचारधारा

न मिलने से, कैसे रंग पलट जाते है दुनिया के

कोई साथ चलने वाले भी ऐसे में

पीछे छुट जाते है

रास्ते पर कितने भी

लोग चलते है और मिलते बिछडते है

किसे ढुंढते, पाते जीवन के राज

ऐसे में एक दिन सब उलझन खत्म हो जाती है

जो भी है जैसा भी है यह बात ऐसे ही

साँझ के बेला में समझ आती है

और जीवन का पथ शांती से चलने लगता है

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        ३४

वनराई की डोह में

नीला हरा ठंडा पानी

बरगद की छाँव उसमें

प्रतिबिंबित हो जाए सुहानी

उपर पंछी फडफडाते

हलके झुले डाली पर

पेड का सुखा पत्ता

लहराए गिरकर पानी पर

डोह में काली छाया

हवाँ के संग झुमती जाए

सूरज की किरण, पानी में

चमचमाते गीत गाए

आसमान मे विहरते

गीत खुशी के बहते

अथाह डोह में गूंजे  

नाद शांती समाधी के

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          ३५

भूल नही पा रही हूँ

वह भीगी भीगी सी गली

नमकीन आसुओं में

पत्तियाँ बिखरी हुई

टुटे हुए पत्थर

परबतों में पडी दरारे

दुःख का ज्वालामुखी

चारों दिशाओं में फैला रे

गली के रास्तों में बिछे काँटे

रक्तरंजित हो गए पैर

हृदय से निकलती वेदना

सब के आँखों में सिर्फ बैर

पिघलता न पिघले पाषाण

मोम बन गई चोटियाँ

एक आह के साथ, दिख गई

मृत्यू की वेदियाँ

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