१४
परबतों के पैरोंतले
एक साँस रुक गई
ऊँची चोटियाँ देख के
मन की उमंग थम गई
परबत चोटियों के
लंबे कठिन रास्ते
कही चुभ न जाए काँटा
आगे जाना है संभालते
छोटे बडे पत्थरों के झुंड
आढी तिरछी चलान ढलान
गरम हवाओं के झोकों से
पंछी भी हो गए हैरान
हाँथ कपकपाने लगे
फुलने लगी सांसों की लडियाँ
पसीनेसे भीगे हुए
बदन ने ली अंगडाईयाँ
चढते चढते अचानक
एक रास्ता खुल गया
ठंडी हवा के झोकोंने
झंझोडकर रुख मोड दिया
गुलमोहर पेड के नीचे
लाल फुलोंने कालीन बिछाई
तालाब से गुजरती छाँव ने
उसकी रंगीन तसबीर बनाई
प्रकृति का खुलापन
पहाडों की चोटी से ही नजर आता है
चढान ढलान का अंत
बडे मुश्किलों से खत्म हो जाता है
ऐसा ही है अपना जीवन
बस चलते ही जाना है
अगर रुक गए कभी थककर
तो ,टुकडों का अंबर जीना है
पहाडों की चोटियों पर ही
खुला आसमान है
थकान की पर्वा ना करो
जीवन की उंची चोटियाँ
पाकर ही दम भरो
फिर खिलेगा फूल मेहनत का
चारों ओर आसमान है
कठिणाईया का सामना किया
यही मन में समाधान है
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१५
घने पेड पत्तों की
धूप से बनती हे नक्काशी
काले पीले रंगो से धरती पर
चले चिटीयों की पंक्ति
हवाँ से हिलते पत्तों से
नक्काशी डोलने लगी
आकाश में उडते पंछी को
वह धरती लुभाने लगी
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१६
खेतों के सीमा बांध पर
औरते चलती है नजाकत से,
पाँव रखे संभालकर
संतुलन बनाए डौलसे ।
बच्चे दौडते जाते है
हँसते कुदते गाते,
लडकियाँ गुनगुनाए गीत
अपने सहेलीसे बतियाते ।
कोई नई दुल्हन शरमाती है
खाना लेकर चलते ,
पती प्यार के सपने
उसके आँखों में है बसते ।
अधेड उम्र की नारी
संसार का सुख दुख बांटती चलती है,
मस्तमौला जवान चले धुन में
दौलत की उसे मस्ती है ।
उसी राह से कोई चले है
मांगता फिरे कामकाज,
बुढा बाबा मदद करे है
जिनके बिघडे है साथ ।
संन्यासी अपनी धुन में
विरक्तता से चलता है,
प्रभू नाम बाटें जगत में
कहे सबको वही एक सहारा है ।
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१७
हवाँ से बाते करता पेड
लगे नारियल झुंड से
अंदर मधुर ठंडा पानी
सफेद मुलायम गद्दे जैसे
खरदूरा भुरा, पेड का तना
हवाओं में लहराए जोमदार
हरे कतराते पानों का
उपर हो गया गोलाकार
चल रहा है जीवन नीचे से उपर
डालियाँ सुखकर गिरती है
मृत्यू का यह क्षण निरंतर
हर सजीव पर आता है
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१८
लाल पंखुडियाँ
नयन मनोहर
बीच में सफेद
खिलते बिलवर,
लाल तुरही पर
पीले केसर
हरे डंठल के
मुलायम अस्तर,
रंगीन कोमल कली
डाली डाली पर
फुल पंखुडियों की
सजे कालीन धरती पर ।
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१९
नदी किनारे
बैठते समय
महसुस होती है
नितांत निर्मल शांती
वास्तव में
नदी के किनारे,
चारों ओर
जीवन खुला होता है
सृष्टी चक्र का पहियाँ
वहाँ भी घुमता रहता है
अपने जीवन की आखरी सांस
वहाँ भी कोई लेता है
लेकिन फिर भी महसुस होती है
एक अबुजसी शांती
जो अंतरात्मा की गहराई तक
समाई हुई होती है
वहाँ न मृत्यू का डर है
ना जीवन का आनंद
बस एक अंजनीसी धडकन
महसुस होती रहती है
न राह दिखती है ना मंजिल
ना कही जाने की जल्दी
ना कही रुकने का गम ,
बस ठहर जाती हे जिंदगी उसी पल
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