फ़िल्म - सत्यप्रेम की कथा
नीलम कुलश्रेष्ठ
" लड़कियाँ और उनकी मानसिक विकलांगता ” --- मैं एक परिचित महिला को जानतीं हूँ। उनके साथ हुई एक घटना मामूली हो सकती थी लेकिन उसे जटिल बना दिया उनके पति ने भी। दो पुरुषों ने मिलकर उन्हें मानसिक विकलांग बना दिया। वे घर से निकलना पसंद नहीं करतीं थीं. उन्हें जो चीज़ पति खरीद कर दे देते वह उसका ही सिर्फ़ उपयोग करतीं थीं। अपना समय किताबें पढ़ने,टीवी देखने या एक धर्म कर्म में बितातीं थीं। हुआ ये था अपने विवाह के बाद पति के साथ ये आकर्षक महिला ट्रेन में जा रहीं थीं। एक सिरफिरा बिज़नेसमैन इनके पीछे पड़ गया। यहाँ तक कि घर तक चला आया तो इनके पति को किसी से कहकर इसे धमकी दिलवानी पड़ गई। इनके पति मामूली व्यक्तित्व वाले थे, उस व्यक्ति से कम हैसियत के. इन महिला के स्थान पर वे अधिक डर गए और उन्होंने इनके अकेले बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया । इस तरह से अपनी सुंदर पत्नी को एक मानसिक विकलांग बना दिया जो जीवन का भरपूर आनंद नहीं ले पाई। मज़े की बात ये है कि ये महिला भी कभी जीवन में समझ नहीं पाएंगी कि दो पुरुषों ने इन्हें एक सहज जीवन से वंचित कर दिया है। काश !इन्हें भी इस फ़िल्म जैसा दुर्लभ पति सत्यप्रेम मिल जाता।
हम जो समाज में हंसती मुस्कारती, सुंदर कपड़ों व गहनों में सजी लड़कियां या महिलायें देखते हैं,सोच भी नहीं पाते कि ये स्त्री होने के, किस घटना के भय से अंदर ही अंदर सहमी रहतीं हैं। किसी को प्रेम करने से या पति पत्नी के आपसी रिश्ते से डर लगने लगता या किसी भी पुरुष पर विशवास करना छोड़ देतीं हैं। इस फ़िल्म की नायिका `कथा `की कथा भी ऐसी ही है .
बॉलीवुड के लटके झटकों के बीच एक साफ़ सुथरी उद्देश्यपूर्ण फ़िल्म देखना अपने आप में एक बहुत बड़ी राहत है. ऐसे में जब लड़कियाँ आत्महत्या कर रहीं हों,वे चाहे परिवार में हों या मॉडल हों या हीरोइन हों या शादीशुदा या लिव -इन में रह रहीं हों या रेप करके बेहाल कर दी गईं हों । ऐसे में सत्यप्रेम जैसे निम्नवर्ग का होते हुए भी एक मज़बूत किरदार में लड़कियों के एक सच्चे हमदर्द के रूप में कथा का सहारा बनते देखना, बहुत बड़ी राहत है। हमें भी पता है कि ऐसे पुरुष इस समाज में चिराग लेकर ढूढ़ने पर भी कितने मिलेंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता। जब फ़िल्म में अपने ही शहर अहमदाबाद में जिसकी शूटिंग हुई हो और जो रंगारंग गरबे के रंग में डूबी हुई हो तो फिर क्या कहना।
कथा यानी कि कियारा अडवाणी को नवरात्रि में लीड रोल में गरबा करता देख हीरो सत्यप्रेम यानी कार्तिक आर्यन का दिल उसके घेरदार लहंगे सा घूमने लगता है लेकिन गरबा समाप्त होते ही कथा एक अमीरज़ादे तपन मानेक यानी अर्जुन तनेजा की बड़ी गाड़ी में चली जाती है और हीरो हाथ मलता रह जाता है।
सत्यप्रेम का परिवार एक पैतृक पुराने मकान में रहता है और कथा एक रईस मिठाईवाले की बेटी है जो बहुत शानदार बंगले में रहती है. सत्यप्रेम के घर का ख़र्च बहिन की कमाई से चलता है। इस बात का ताना उसकी माँ दिवाली बेन यानी सुप्रिया पाठक बार बार उसके पिता नारायण यानी गजराज राव को देती रहती है। पुराना गुजराती मकान व इस कम आय के इस घर की एक दूसरे की तानेबाज़ी इतनी प्रामाणिक है कि हम समीर विद्वांस के निदेशन का लोहा मान जाते हैं।
मज़े की बात ये है कि सत्यप्रेम के पिता अपने बेटे को कथा की तरफ बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं व सलाह भी देते हैं कि कथा की शादी थोड़े ही हो गई है। इत्तेफ़ाक़ से कथा का अपने प्रेमी से संबंध टूट जाता है। सत्यप्रेम जब उसे नवरात्रि समारोह में नहीं देखता तो बेचैन हो जाता है। हिम्मत कर उसके बंगले में घुस जाता है। वहाँ उसे पता लगता है कि घर में उसके परिवारजन नहीं हैं और वह हाथ की नस काटकर स्युसाइड करने वाली है। ज़ाहिर है हीरो उसे बचा लेता है। सारा घर लौटकर सत्यप्रेम का अहसानमंद हो जाता है।
कथा के परिवार वाले असमंजस में है कि कथा की दोस्ती की बात सभी जानते थे अब कौन उससे शादी करेगा ? इस फ़िल्म में एक कटुसत्य और है कि घरवालों के दवाब में व अपनी ग़लती के कारण भी दुःख से पथराई हुई कथा एक बेहद मामूली घर के सत्यप्रेम से शादी करने को तैयार हो जाती है। बस इसके बाद शुरू होती इस फिल्म की असली ख़ूबसूरती। सत्यप्रेम अपनी पत्नी को हाथ नहीं लगाता और उसे समय देता है कि वह नॉर्मल होकर उससे प्यार करने लगे।
दिवाली बेन का ये सब भाँप लेना,चिंता में डूब जाना,धीरे धीरे सबको पता लग ही जाता है। दूधवाले या नौकरों से घर की कोई बात छिपी नहीं रहती इसलिए सुबह आये दूधवाले यानी राजपाल यादव का प्रश्न,"भैया यहाँ बैंच पर क्यों सो रहे हैं ?"
आर्यन सहनुभूति से कथा को पल पल जिस तरह भावनात्मक सहारा दे रहे हैं वह सब देखने लायक है। आखिर पिघलकर एक रात कथा अपने पति की बाँहों में समा जाना चाहती है लेकिन ये क्या ?वह आँख बंद किये हुए बड़बड़ा रही है,"प्लीज़! तपन नहीं ---प्लीज़ नहीं --ओ नो। "
तब हीरो को पता लगता है की जिस दिन उसने कथा को गरबा की रात देखा था और उसका प्रेमी उसे अपने साथ ले गया था। उसने एकांत मिलते ही कथा का रेप करके उसे किसी से प्रेम करने के लिए मानसिक विकलांग बना दिया था। ये फ़िल्म समाज में सबको विशेषरुप से युवा को तो देखनी चाहिये। क्योंकि कथा का पति उसे कदम कदम पर अहसास दिलाता है कि उसकी कोई ग़लती नहीं है। यहाँ तक कि जिस शादी में तपन शामिल होने वाला है, वहां जाकर जब सत्यप्रेम को पता लगता है तो वह उसके आने से पहले ही कथा को कहीं और ले जाता है। इस फिल्म को देखकर अहसास होता है कि किस तरह एक पति अपनी पत्नी के दिल को अपनी हथेली में पँखों जैसी कोमलता से सम्भाल सकता है, यदि चाहे तो।
पति के इस सहारे ने कथा में इतना विश्वास भर दिया है कि वह ससुराल वालों को सच बता देती है। फ़िल्म के अंत में क्या होता है ? सत्यप्रेम का अगला कदम या दुःसाहस क्या होगा ? तपन जैसे लड़के को सज़ा मिलेंगी या नहीं ? कथा जैसी शिकर बनी लड़कियों को कैसे नॉर्मल जीवन समाज,उसका परिवार दे सकता है ?
फ़िल्म के अंत में क्या होता है ? सत्यप्रेम का अगला कदम या दुःसाहस क्या होगा ? तपन जैसे लड़के को सज़ा मिलेंगी या नहीं ? कथा जैसी शिकार बनी लड़कियों को कैसे नॉर्मल जीवन समाज, उसका परिवार दे सकता है ?
इस फ़िल्म का अंत सत्यनारायण की कथा से हुआ है। जो मेरे ख़्याल से एक सन्देश है कि जिस तरह समाज लीलावती व कलावती की सत्यनारायण कथा आयोजित करता है तो ये कटु सत्य भी अटल होना चाहिए कि किसी भी तरह उत्पीड़ित लड़की को समाज को प्रेरणा देनी चाहिये कि तुम बिल्कुल कसूरवार नहीं हो पहले जैसे ही तुम्हें हंसने का, ख़ुश रहने का हक़ है। कार्तिक तो हमेशा की तरह अभिनय में सहज हैं ही किन्तु कियारा जैसी ग्लेमर गर्ल ने बख़ूबी कथा का किरदार निबाह कर उन पीड़ित लड़कियों का आत्मविश्वास जगाया है,जो अपने उत्पीड़न की बात बताकर सास से कहती है, "आप सुबह दूध वाले भैया को भी ये बात बता दीजिये। "
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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