सबा - 34 Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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सबा - 34

मंत्रीजी के वापस लौट कर आते ही पीछे पीछे एक सेवक बड़ी सी ट्रे में तीन चार प्लेटें लेकर हाज़िर हुआ जो फलों और मेवे से भरी थीं। पनीर पकौड़ों की प्लेट से गर्म भाप भी उड़ रही थी।
चाय अभी सुनहरे प्यालों में नहीं बल्कि केतली में ही थी ताकि नाश्ते के दौरान कहीं ठंडी न हो जाए।
सालू हैरान था कि ये शानदार आवभगत किसके लिए थी? लेकिन जब मंत्रिजी ने सामने बैठते हुए एक भुना काजू मुंह में डाला तो सालू को लगा कि नाश्ता उसी के लिए आया है। कमरे में न तो कोई और है और न ही किसी और के आने की आहट है।
माननीय महोदय के तेवर भी पूरी तरह बदले हुए थे। मानो अभी अभी रूठ कर जो शख्स भीतर गया था वह कोई और था और अब जो सज्जन तशरीफ़ लाए हैं वो निहायत ही कोई और हैं।
मंत्रीजी के इशारे पर एक काला अंगूर सालू उर्फ़ मिस्टर सिल्वेस्टर सालुलू ने भी उठाया।
सालू ने उन्हें मंद स्वर में भरमाते हुए कहा - हमारा देश गरीब है सर।
मंत्रीजी चौंके लेकिन फिर उन्हें यकीन हो गया कि सालू यहीं की बात कर रहा है, किसी और मुल्क की नहीं।
सालू ने कहना जारी रखा, बोला - देश के कौने कौने से मेहनत मशक्कत करते हुए मां बाप न जाने कौन कौन सी परिस्थिति भोगते हुए अपने बच्चों को पढ़ने के लिए यहां भेजते हैं कि वे कुछ बन जाएं। अब वो ज़माना नहीं है कि हर घर में पांच सात बच्चे हैं जिनमें से किसी एक को पढ़ने भेजा जाता हो। अब तो एक हों या दो, लड़की हो या लड़का, माता - पिता अपना पेट काट कर, मन समेट कर उन्हें करियर बनाने भेजते हैं। अपनी सारी दौलत उन पर लुटाने को तैयार रहते हैं चाहे वह कम हो या ज्यादा...
- करेक्ट! कहते हुए मंत्रीजी ने केतली से गर्म चाय अपने प्याले में उंडेली।
- लेकिन यहां सौ में से एक बच्चा कुछ बन पाता है, वो भी अपनी सलाहियत और मां बाप की किस्मत से, हमारी बिछाई गई चौपड़ों पर शतरंज खेल कर नहीं!
मंत्रीजी ने निपट अनपढ़ की भांति सालू की आंखों में देखा मानो वहां से बरस रहे ज्ञान में से रत्ती भर भी उनके पल्ले न पड़ा हो।
सालू बोला - सर! ... उन बाकी बचे नाइनटी नाइन में से दस बीस इधर उधर छोटी मोटी नौकरी करके अपनी गुज़र बसर करते हैं। दर्जनों उम्र भर अपने घरवालों पर बोझ ही बने रहते हैं... और ढेरों तो ऐसे हैं जो पूरे समाज और देश भर बोझ बन जाते हैं। इनकी जन्मकुंडली हमें रोज सुबह आने वाला अखबार पढ़ कर सुनाता है। ...ये लूटपाट छीना झपटी करते हैं। चोरी, डकैती तक करते देखे जाते हैं। पकड़े जाते हैं। सालों साल लॉकअप में रहते हैं या छूट कर दुगने जोश से अपराधी बन कर जीने निकल आते हैं। दुष्कर्म, रेप करते हैं। नशे बेचते हैं। अपहरण करते हैं... न जाने क्या होगा इनका और हमारे समाज का। छोटे - छोटे बच्चे अपराध के रास्ते पर सधी चाल से चल रहे हैं। हमारे कानूनों में से पतली गलियां निकाल कर हमारे ही लोग दे रहे हैं।
मंत्रीजी को लग रहा था कि नाश्ता ख़त्म होने पर आ जाएगा पर इस वाचाल आदमी की बात ख़त्म नहीं होगी। उन्होंने फिर सूरत बिगाड़ी।
सालू एक बार सहमा, कहीं फिर नाराज़ होकर ये भीतर न बिला जाएं। उसने तेवर बदले।
बोला - रास्ते हैं पर हम उन पर चलना नहीं चाहते। फिर उसने अपना प्याला हाथ में उठा लिया जिसकी चाय लगभग ठंडी हो चली थी।
मंत्रीजी भी एक टूथपिक से अपने दांत कुरेदने लगे थे।
सालू बोला - हथियार रखने लगे हैं सर, लोग।
- तो? मंत्रीजी ने सपाट चेहरे से उसे देखा।
सालू एकाएक सामने से उठ कर मंत्रीजी के पास, उनकी बगल में, उसी सोफे पर आ बैठा।