सबा - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सबा - 1

- तेरी पगार कितनी है?
- तीन हज़ार!
- महीने के?
- और नहीं तो क्या, रोज़ के तीन हज़ार कौन देगा रे मुझको?
- ऐसा मत बोल, दे भी देगा! उसने कनखियों से लड़की की ओर देखते हुए कहा।
लड़की शरमा गई।
लड़के ने धीरे से लड़की का हाथ अपने हाथ में लेकर दबा दिया। लड़की के हाथ न हटाने पर वो उत्साहित हुआ। दोनों टहलते हुए बगीचे के गेट पर साइकिल लेकर देर से खड़े कुल्फी वाले की ओर जाने लगे।
वो दोनों आसपास की बस्तियों में ही रहते थे। कभी- कभी इसी तरह छिप- छिपा कर यहां सार्वजनिक गार्डन में चले आते थे और कुछ देर बातें करते हुए घूमते थे।
उनकी पहचान भी कोई ज़्यादा पुरानी नहीं थी। एक दिन लड़का पैदल- पैदल कुछ तेज़ी से जा रहा था कि उसे सड़क के किनारे लड़की अपनी साइकिल लिए खड़ी दिखी। लड़की कुछ परेशान सी दिख रही थी क्योंकि उसकी साइकिल की चेन उतर गई थी और शायद काफ़ी देर से कोशिश करने के बावजूद उससे चढ़ नहीं पा रही थी। लड़की अब थक कर झुंझला चुकी थी। उसके दोनों हाथ भी काले हो गए थे। वह खड़ी होकर इधर- उधर देख ही रही थी कि उसे सामने से आता हुआ लड़का दिखाई दे गया।
लड़की ने कुछ कहा नहीं था लेकिन शायद उसके चेहरे की झुंझलाहट ने लड़के की जिज्ञासु आंखों को दस्तक दी। आते हुए लड़के ने रुकी हुई साइकिल के पास काले हाथ लिए खड़ी लड़की को देखा तो माजरा भांपने में देर नहीं लगाई।
वह तेज़ कदमों से सड़क पार करता हुआ इस ओर आया और उकड़ू बैठ कर साइकिल की चेन में उलझ गया।
चेन चढ़ा कर लड़का बिना कुछ बोले अपने रास्ते चला गया। लड़की भी जल्दी से साइकिल का पैडल घुमाती हुई आकलन करने लगी कि उसे कितनी देर हुई। फिर लड़के की विपरीत दिशा में रवाना हो गई।
ये वो पुराना फिल्मी टाइप ज़माना नहीं था कि लड़के की इतनी सी मदद के बदले लड़की उसे शुक्रिया बोले, फिर लड़का बदले में उसका नाम पता पूछ ले और अनजाने में लड़की का रूमाल या लड़के की कोई चाबी वहां गिर जाए जो उन्हीं दोनों में से किसी को मिल जाए और अगले दिन वो दोनों उसी को लेने- देने के बहाने फिर एक दूसरे के घर की देहरी पर हों।
ये तो अभी का ताज़ा - ताज़ा ज़माना था। इसमें बिना बात किसी से बोलना किसी को नहीं भाता था। कृतज्ञता या कृतघ्नता जैसे शब्दों का न तो किसी को मतलब पता होता था और न बोलने का टाइम ही होता था।
वैसे भी लड़का और लड़की अभी कच्ची उम्र के ही थे। ज़्यादा पढ़े लिखे भी नहीं।
यूं अपनी बस्ती में स्कूल तो दोनों ही गए रहे थे मगर अब स्कूल जाने और पढ़े- लिखे होने में बहुत अंतर नहीं था। हां, जो बातें कुदरत सिखाती है और जो हुनर मोबाइल सिखाता है उतना तो दोनों जानते ही थे।
लड़का नज़दीक की किसी दुकान में काम करता था और लड़की किसी घर में खाना बनाने का काम करती थी।
तो एक दिन अचानक जब एक दुकान में दोनों फिर से मिल ही गए तो एक दूसरे को झट से पहचान भी गए। बस, हो गई जान- पहचान! दो अजनबी अगर संयोग से दूसरी बार कहीं मिल जाएं तो गहरे परिचितों की तरह ही बर्ताव करते हैं।