शाकुनपाॅंखी - 24 - बनना ही चाहिए Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 24 - बनना ही चाहिए

33. बनना ही चाहिए

कच्चे बाबा अपने आश्रम में पौधों के आसपास उगे खतपरवार को निकालने में लगे थे। एक बालक दौड़ता हुआ आया, 'गुरुदेव, एक फ़कीर आए हुए हैं। वे आपसे मिलना चाहते हैं। गुरुजी ने बुलाया है।' बाबा चल पड़े। खुरपी एक किनारे रख दिया। हाथ पैर धोया । अंगरखे से हाथ पोंछते हुए आ गए। विहल होकर गले मिले। फकीर को आसनी पर बिठाया, स्वयं भी पार्श्व में बैठ गए। पारिजात बच्चों को पढ़ाने के लिए चले गए।
फ़क़ीर के पैर में कांटे चुभ गए थे। कच्चे बाबा एक सुई लेकर आए । बैठकर स्वयं फ़क़ीर के पैरों का कांटा निकाला ।
'किधर से आना हुआ महात्मन् ?' बाबा बोल पड़े।
'आया तो हेरात से हूँ', फकीर ने कहा । 'गज़नी होते हुए चला आया ।'
‘गज़नी नरेश ने चाहमान नरेश पृथ्वीराज को पराजित कर दिया है ?"
'हाँ, ऐसा ही हुआ है।'
'पर महात्मन् प्रजा को कष्ट देना क्या ठीक है?"
'जंग का बोझ तो अवाम को ही ढोना है। सुल्तान हो या राजा अवाम के दुःख दर्द में भी अपना मतलब देखता है।'
"मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदें बन रही हैं। क्या यह उचित है महात्मन् ?"
‘बिल्कुल नहीं, पर सुल्तान ऐसा करके अपने लोगों में एक जुनून पैदा कर देता है ।
इससे आदमी मरने मारने को तैयार हो जाता है। सुल्तान को इससे सहूलियत हो जाती है ।'
'पर अपनी सहूलियत के लिए गलत रास्ते पर लोगों को दौड़ा देना.....।'
'तख्त वाले यही तो करते रहे हैं। उनके लिए तख्त ज्यादा ज़रूरी है। ज़रूरत पड़ेगी तो वे खल्जी, ताज़िक, पठान की खेमेबाजी पर उतर आएँगे । हम आप उन्हें लाख समझाएँ। उन्हें अपना मतलब अपना तख़्त समझ में आता है । "
‘पर लोगों का दर्द....।'
'उसकी उन्हें उतनी फिक्र नहीं है । फिक्र होती तो गलत रास्ते न अपनाते । वे अवाम को बांट कर रखेंगे। उसका फायदा उठाएंगे।'
“पर इससे अवाम का भला होगा?"
"अवाम भी जब कमज़ोर होती है किसी न किसी का सहारा ढूँढ़ती है। उसके भले का तो प्रश्न ही नहीं है। जिनका वह सहारा लेती है उनका भला ज़रूर होता है। आज शहाबुद्दीन और उनके साथी जो कर रहे हैं वही महमूद ने किया। खींवा का रहने वाला अलबरूनी जिसे महमूद क़ैद कर ले आया था, ठीक ही कहता है कि सुबुक्तगीन और उसके पुत्र महमूद ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत का बीज बोया । खुदा दोनों पर रहम करें। आपको पता होगा बहुत पहले खुरासान, फारस, ईराक, मोसल और शाम की सरहद तक शमनिय्या (बौद्ध) का फैलाव था। जब जर्दुश्त ने नया रास्ता दिखाया तो शहंशाह गुस्तास्प और उसके बेटे असफन्दयार ने पूरे इलाके में अग्नि मंदिर बनवा दिए, और उसके वारिसों ने उसे फारस और ईराक का शाही मज़हब करार दिया। शमनिय्या (बौद्ध) खदेड़ दिए गए। इस्लाम जब इन इलाकों में फैला तो जर्दुश्त के मत का भी खात्मा हो गया। हथियार से मज़हब फैलाना इंसानियत की तौहीन है पर लोग अलग़ाजी बन रहे हैं जैसे यह अल्लाह का काम है । मैं तो इसे पागलपन कहता हूँ ।'
‌ 'हिन्द में भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने उन्माद में काम किया। पर उन्हें ही हम अपना रहनुमा बनाएँ यह तो उचित नहीं है। क्या ऐसा समाज नहीं बन सकता जिसमें अलग अलग धर्मों, कौमों के लोग साथ साथ रह सकें?"
'बिल्कुल बन सकता है ..... । बनना ही चाहिए ऐसा समाज जिसमें अलग अलग मज़हब और क़ौम के लोग बेखौफ साथ रह सके।' इसी बीच पं० पारिजात शर्मा भी आकर बैठ गए । 'धरती पर ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ उन्मादी न हों पर समाज अपनी विकास यात्रा में उन्मादियों को दर किनार कर अपना रास्ता हमवार करता रहा । न जाने कितने लोग पंथों और कौमों के बीच समरसता उगाने में लगे रहे। साधु, सन्त विचारक, विज्ञानी, कवि, चित्रकार, संगीतकार, नर्तक किन किन को गिनाऊँ? शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, कौल, कापालिक यहाँ भी पंथों का अन्त नहीं है। लोक सबको देख सुन कर अपना रास्ता बनाता और तय करता है । समरसता की खोज में लोक सबको श्रद्धा से सिर झुका लेता है पर आलोचना से भी चूकता नहीं । वह विभेद कम, अभेद अधिक पकड़ता है। इसीलिए अनेक देवताओं के मंदिर एक ही परिसर में मिल जाते हैं । अजन्ता एलोरा के भित्ति चित्र हों या खर्जूर वाहक के मंदिर, समरसता लोक चेतना में रची बसी है। इस लोक चेतना का विकास एक दिन में नहीं हुआ। अनेक तूफानों के बीच से इसे गुज़रना पड़ा है। राजाओं की समझ में भी धार्मिक सौहार्द की बात आई है। यह सौहार्द और समरसता अब जेहाद के कारण टूटती नज़र आ रही है। समरस लोक चेतना का क्या होगा महात्मन् ?”
फ़क़ीर को समझने में थोड़ी कठिनाई हुई । पारिजात शर्मा ने मदद की । उन्होंने बाबा के कथ्य का सारांश समझाया। फ़क़ीर गद्गद् हो उठा । 'यही हकीकत है ।' उसने कहा । 'आप ठीक कहते हैं बाबा । अवाम खुद देखती है। अपनी समझ के हिसाब से जितना ज़रूरी पाती है, अमल करती, बाकी छोड़ देती है। इस उथल-पुथल का जवाब भी अवाम ही देगी ।'
'पर यह कहीं हमारा ख्वाब ही न रह जाए?' पारिजात शर्मा ने टिप्पणी की।
'ख़्वाब कैसे रहेगा? आदमीयत ने बहुत मुश्किल दौर देखें है। आज वह ज़िन्दा है।
यह इस बात का सुबूत हैं कि इन्सानियत का दौर हारेगा नहीं।' फ़क़ीर का चेहरा दमक उठा । 'क्या देख नहीं रहे हो पारिजात, आदमी आदमी को जोड़ने वाले तारों को?" बाबा की दृष्टि पारिजात पर टिक गई।
'देखता हूँ उन्हें, पर सत्ता और धार्मिक उन्माद की आँधी उन्हें तोड़कर रख देती है ।' पारिजात कसमसाते रहे।
'सत्ता का रूप भी बदलेगा। आदमी की गरिमा के अनुकूल समाज विकसित करना ही होगा ।'
'कौन जाने, होगा या नहीं?" पारिजात का भोगा हुआ यथार्थ कचोटता रहा । 'लड़ने‌ लड़ाने के बहाने तो आदमी ढूँढ़ ही लेगा।'
"जैसे नदी का तेज बहाव गन्दगी को साफ करता चलता है वैसे ही समाज भी... ।' बाबा जैसे विचारों में खो गए।
'नफ़रत की दीवार खड़ी करने वाले चुप नहीं बैठेंगे।' पारिजात ने बाबा की ओर देखा । 'सच कहते हो पारिजात । पर इस चुनौती को हमें स्वीकारना ही होगा। प्रजा समरसता के पक्ष में खड़ी होगी । उसे उठना ही पड़ेगा।' बाबा की आँखें कुछ खोजती सी दिखीं। 'महात्मन् की बात दुरुस्त है। अवाम को उठना ही पड़ेगा।'
'आशा से भरे ये वाक्य मुझे आशीष से लगते हैं।' पारिजात कुनमुनाते रहे।
'आदि कवि ने 'मा निषाद' कहकर वधिक को आगाह किया था पर क्रौंच वध क्या रुक सका? अबोध इन्सान शकुनपाँखी की भाँति मार दिए जाते हैं, बहेलिया निर्द्वन्द्व घूमता है । कहाँ गया मुनिवर का शाप ? "
'शाकुनपाँखी?' बाबा की प्रश्नाकुल आँखें पारिजात को देखती रहीं।
'हाँ, हर पीड़ित शकुन पाँखी ही है।'
जब भी आदमी खड़ा होने का प्रयास करता है, शाकुनपाँखी होने से इंकार करता है। प्रजा को पिंजरे में कब तक बन्द रखा जा सकेगा? वह दिन जरूर आएगा पारिजात जब बराबरी और भाईचारे के बीच आदमी पंखभर उड़ान भर सकेगा।' फकीर बाबा के शब्दों को ध्यान से सुनते रहे। अचानक उनके मुख से निकला, 'जरूर, जरूर। तभी एक बच्चे ने आकर कहा, 'बाबा, प्रसाद तैयार है।' तीनों उठ पड़े ।




34. नख़्ख़ास !


ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दी में ग़ज़नी एक बड़ा नगर था । दसवीं सदी में अलप्तगीन ने ग़ज़नी पर अधिकार कर वहाँ स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था । सुबुक्तगीन और महमूद ने ग़ज़नी को सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरात से पाट दिया। ग़ज़नी की अट्टालिकाएँ, फव्वारे, उद्यान, पुस्तकालय जो भी देखता, देखता ही रह जाता। भारत तथा अन्य देशों से लूटी गई सम्पत्ति और दास-दासियाँ गज़नी की शोभा बढ़ाते । महमूद ने गोर पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया था । गोर का प्रदेश ग़ज़नी और हिरात के बीच दुर्गम पहाड़ियों में अवस्थित है। महमूद की मृत्यु के बाद गोर शासकों ने ग़ज़नी को अपने अधिकार में कर लिया। महमूद द्वारा निर्मित अनेक भव्य महल धू-धू कर जल गए। गुज्ज तुर्कों ने उसे फिर स्वतंत्र कर लिया। गयासुद्दीन ने अपने शासन काल में छोटे भाई शहाबुद्दीन को ग़ज़नी पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा विजय के बाद शहाबुद्दीन ही ग़ज़नी का सूबेदार नियुक्त हुआ । अनेक झंझावातों के बाद भी गज़नी अभी एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। उसके गलियारे और चतुष्पथ वैभव की कहानी कहते । दास दासियाँ जानवरों की भांति बिकते। नख़्ख़ास ऐसी ही बाज़ार होती जिसमें दास-दासियाँ, हाथी घोड़ों की खरीद-फरोख्त होती । उसी ग़ज़नी का नख़ास । हिन्द से लाए गुलाम और बाँदियाँ भेड़ की भांति लाकर घेर दिए गए। ग्राहक उनकी छानबीन करते और मोल-भाव करते। बेचने वाले गुलामों को खड़ाकर उनकी विशेषताएँ बखानते। पर ग्राहक कम दाम में खरीदना चाहते। बोलियाँ नहीं चढ़तीं तो बेचने वाले झुंझला उठते। एक ताज़िक सरदार दस बाँदियों और पाँच गुलामों को डोरिया कर चल पड़ा। 'मैं बहुत रहम दिल हूँ गुलामों को ठीक से रखूँगा,' एक खरीदार ने कहा, 'दाम थोड़ा कम करो । “गुलाम तो गुलाम हैं। आप चाहे जैसे रखें, मुझे तो दाम चाहिए ।' बेचने वाले ने अपना तर्क रखा । 'ये हिन्द से लाए गए हैं, बिल्कुल बेज़बान हैं और ये बाँदियाँ बिल्कुल अनछुई हैं। ऐसी बाँदियाँ मिलना मुश्किल है मेहरबान ।' बेचने वाले ने पीठ पर धौल जमाकर दो बाँदियों को आगे कर दिया। खरीदार ने उन्हें गौर से देखा । 'बढ़िया माल तो शहंशाह के सिपहसालारों ने रख लिया होगा। कूड़ा-करकट हम लोगों के सर पर थोप रहे हो, कह रहे हो कि ' एक खरीदार ने मसखरी करते हुए कहा। गुलाम और बाँदियाँ सिर झुकाए सब कुछ सुन रहे थे पर कुछ भी कहने में असमर्थ । वह समय ही ऐसा था जब ग़ज़नी के शासक हिन्द से लूट के साथ लड़के, लड़कियों को भी ले जाते थे । उन्हें गुलाम और बाँदियों के रूप में रहने के लिए विवश किया जाता। बाज़ार में उन्हें औने पौने दामों में बेच दिया जाता। कभी कभी विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भी लड़कियां चुनकर भेजी जातीं। वर्षों बाद हवा में अभी चर्चा है कि मुहम्मद बिन कासिम ने खलीफा वालिद के लिए दाहिर की दो कुमारी बेटियों सूर्या और परमल को कैद कर भेजा था। दोनों के यह बताने पर कि बिन कासिम उनके साथ हम बिस्तर हो चुका है, खलीफा बहुत नाराज़ हो गया। उसने बिन कासिम को दूत भेजकर बुलवाया और कैदकर मेसोपोटामिया भेज दिया।