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कान्यकुब्ज महाराज जयचन्द्र का अधिकांश समय यज्ञ की तैयारियों की समीक्षा कर आवश्यक निर्देश देने में ही बीत जाता । हरकारे दौड़ लगाते । सेवक हाथ बाँधे खड़े मिलते। राजपरिवार के लोग सेवा भाव में अधिक विनम्र हो गए थे। यवन, तुर्क, तातार सैनिकों के लिए यह कुतूहल पूर्ण आयोजन था। सुरक्षा आदि के लिए जहाँ उन्हें लगाया जाता पूरी निष्ठा से अपना कार्य करते । सिर पर कफन बाँधकर सैनिक नमक अदा करने के लिए प्रस्तुत रहते । विरोधियों का नमक जानबूझ कर लोग न खाते पर इक्का दुक्का विश्वासघात की भी घटनाएँ घट ही जातीं। सामान्य जन ऐसे लोगों को आदर की दृष्टि से न देखते। विभिन्न शासकों के गुप्तचर सत्ता केन्द्रों के इर्द-गिर्द चक्कर काटते। कान्यकुब्ज में राजसूय यज्ञ की घोषणा होते ही गुप्तचर भी सक्रिय कर दिए गए थे। पर उनका कार्य कठिन हो गया था। बाहरी लोगों का आना जाना बढ़ गया था। वणिक तो पहले से ही जल एवं स्थल मार्गों से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करते थे। इस समय उत्सव में कुछ अधिक कमा लेने का उपक्रम कर रहे थे ।
राजसूय यज्ञ के साथ ही नगर में कथाओं, किंवदंतियों का बाज़ार गर्म हो उठा । प्रवचन कर्त्ता बताने लगे कि यह राजा बलि की नगरी रही है जिन्होंने राजसूय यज्ञ किया था । बलि-वामन की कथा को रस लेकर लोग सुनते सुनाते । कान्यकुब्ज का इतिहास सतयुग तक बताया जाता। सतयुग में इसे 'महोदय' कहा गया, त्रेता में 'कुशस्थली' फिर 'गाधिपुरी' और बाद में कान्यकुब्ज-
कृते महोदयं नाम त्रेतायां च कुशस्थली ।
पुनः गाधिपुरी जातं कान्यकुब्ज यतः परम् ।
श्लोक सुनते ही लोगों की छाती फूल जाती। बिलग्राम को 'बलिग्राम' का रूपान्तर बताया जाता और हरदोई को 'हरिद्रोही' का । लोग कहते राजा बलि का शासन हिमालय पर्यन्त था । कान्यकुब्ज के सम्बन्ध में अनेक जनश्रुतियाँ बड़े-बूढ़े और कथावाचक सुनाते। इसे गुह्यतीर्थ कहा गया । कान्यकुब्ज विष्णु का प्रिय निवास था। यहीं महाराज कुशनाभ की सौ पुत्रियों जिन्हें पवनदेव ने कुब्जा बना दिया था, का पाणिग्रहण काम्पिल्य के ब्रह्मदत्त के साथ हुआ था ।
भरत की माता शकुन्तला के पालनकर्त्ता कण्व के शिष्यों ने गंगातट पर कुब्जक पुष्पों से परिवेष्ठित कण्वकुब्जिका यहीं विकसित की। कालान्तर में इसे कान्यकुब्ज कहा गया। जनश्रुतियाँ यहीं नहीं रुकतीं । बन्दीजन कान्य और कुब्ज दो ब्राह्मण भाइयों की कथा बताकर कान्यकुब्ज को सिद्ध करते । कान्य और कुब्ज दो भाई महाराज राम द्वारा यज्ञ में आमंत्रित किए गए थे । यज्ञ स्थल पहुँचने पर कुब्ज को लगा कि राम ने ब्रह्म
वध किया है, अतः यज्ञ में सम्मिलित होना उचित नहीं है । फलतः कुब्ज लौट गए और कान्य ने यज्ञ में दानादि लिया और वहीं रह गए। कुब्ज के साथ जो लौट गए वही कान्यकुब्ज कहलाए और उनके साथी जो सरयूपार बस गए सरयूपारीण कहलाए ।
सत्ता केन्द्र प्रायः अभिशप्त होते हैं । कान्यकुब्ज ने भी अपने जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखा । हर्ष का वैभव, महमूद गजनवी का आक्रमण उसी उतार-चढ़ाव के दो छोर हैं। आज महाराज जयचन्द्र सत्तासीन हैं। धन एवं धान्य से पूर्ण यह नगरी उत्सव में मग्न है। उत्तर भारत में कान्यकुब्ज शक्ति एवं वैभव का केन्द्र रहा। महमूद ने जब कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया तो नगर की भव्यता से अभिभूत हो गज़नी के नाज़िम को पत्र लिखा कि यहाँ पर हजारों विशाल मजबूत अट्टालिकाएँ हैं। अधिकांश संगमरमर से बनी हैं। अगणित मंदिर हैं। नगर की भव्यता लाखों दीनारों के व्यय से ही संभव है। दो सौ वर्षों से कम समय में ऐसा नगर नहीं बन सकता। कान्यकुब्ज में कथकों एवं ताम्बूलिकों के सहस्रों परिवार थे। कथक नृत्य एवं गायन को माध्यम बना कथाएँ कहते । सम्भ्रांत जन उन्हें विभिन्न अवसरों पर आमंत्रित करते । उत्तर भारत के अनेक नगरों में यहाँ के कथक कार्यक्रम करते। कान्यकुब्ज के ताम्बूल की प्रसिद्धि दूर दूर तक थी। सामान्य जन ताम्बूल खाते ही, उत्सवों में ताम्बूल की माँग अधिक रहती । ताम्बूल स्वागत सम्मान का प्रतीक बन गया था।
गंगातट पर नगर का फैलाव इतना था कि तेज अश्वारोही भी एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचने में घण्टों लगाते। एक शताब्दी से कान्यकुब्ज पर गहड़वालों का शासन है। महाराज चन्द्र देव, मदन चन्द्र, गोविन्द चन्द्र सभी ने कान्यकुब्ज के विभव को बढ़ाया। विजय चन्द्र के बाद महाराज जयचन्द्र ने कान्यकुब्ज की धमक को बनाए रखा । कान्यकुब्ज नरेश तुरुष्कों से बराबर संघर्ष लेते रहे। काशी इनके अधिकार क्षेत्र में था । कान्यकुब्ज को द्वितीय काशी कहा जाता। महाराज जयचन्द्र शिव के उपासक थे पर वैष्णव, बौद्ध जैन सभी के प्रति उदार भाव रखते थे। कान्यकुब्ज मंदिरों का नगर लगता। मंदिरों के आयोजन में कथक अपने नृत्य गान से जन-जन को सम्मोहित कर लेते । धार्मिक एवं पौराणिक आख्यानों की धारा बह जाती। गंगा दुर्ग से सट कर बहती थी। राज महलों से गंगा का मनोहारी दृश्य मन को मुग्ध कर लेता। गंगा की रेती ग्रीष्म काल में लहलहा उठती । वरुण के बेटे नावों के साथ अठखेलियाँ कर यात्रियों को पार कराते ही, मनोरंजन का साधन भी बनते ।
महिषी शुभा अलिन्द में बैठी एक चित्र देख रही हैं। चित्र में एक सिंह शावक हरिणों के झुण्ड पर झपटकर एक को पकड़ लेता है। उनके मुखमण्डल पर मुस्कान थिरक उठती है। वे उठ पड़ती हैं। अलिन्द में टहलती हैं पर मुख मुद्रा, चाल और उँगलियों का संचालन संकेत करता है कि वे किसी महत्त्वपूर्ण प्रकरण पर विचार कर रही हैं। अचानक उनका चेहरा तमतमा उठता है, 'मैं लडूंगी। सत्ता केन्द्रों का षड्यंत्र विफल करूँगी मैं । मेरी दक्षता का क्या कोई मूल्य नहीं? 'कलाभारती' की उपाधि देकर मेरी प्रशंसा की गई। मुझे कान्यकुब्ज का गौरव बताया गया पर संस्कारों के समय मेरा पत्ता काटकर कौन-सा सन्देश देना चाहते हैं मंत्रिगण ? राजमहिषी के मस्तक पर किसी प्रकार का कलंक टीका नहीं होना चाहिए। किसी कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई पवित्र हो जाता है? परम्परागत मूल्य हमें स्वीकार्य नहीं। मैं नारी हूँ पर अबला नहीं । कान्यकुब्जेश्वर मुझसे अलग नहीं जा सकेंगे। मैने श्री हर्ष को हटाया। मंत्रिपरिषद् में अब भी परम्परा ढोने वाले अधिक हैं, पर देखूँगी।' वे टहलती रहीं। प्रतिहारी ने आकर निवेदन किया ‘अंतःपुर में महाराज का आगमन हो रहा है।' महिषी सजग हुईं। संकेत पाकर प्रतिहारी लौट पड़ी। नरेश के आते ही शुभा ने मुस्कराते अधरों से स्वागत कर उन्हें बिठाया। महाराज भी खिल उठे। आज दिन भर की व्यस्तता के बाद महिषी का सान्निध्य उन्हें सुखकर लगा । सेविका ने सुगन्धित शक्तिवर्द्धक पेय लाकर रखा। महिषी एक पात्र में निकालकर महाराज को देने लगीं पर महाराज उसे महिषी के ओठों में लगाकर हँस पड़े । महिषी ने दूसरे पात्र निकाला और महाराज के ओठों से लगा दिया । पात्र महाराज ने पकड़ लिया ।
'तुम्हारी हर भंगिमा मन को मोह लेती है', महाराज ने कहा। महिषी भी हँस पड़ीं, 'आपका स्नेह हैं, महाराज ।'
'पर तुम्हारी कलात्मकता पर कौन ऐसा है जो .....' कहते ही राजमहिषी ने महाराज के ओठों पर उँगली रख दी। शब्द व्यापार अवश्य रुक गया पर महाराज और महिषी दोनों हँस पड़े। महाराज ने वीणा ली। हाथ फेरने लगे। महिषी को संकेत किया और उन्होंने एक मोहक तान छेड़ी। महाराज को तब भी संतोष नहीं हुआ। उन्हीं के संकेत पर राजमहिषी के पग थिरक उठे। महाराज की वीणा झनझना उठी। उसी के साथ महिषी ने भाव, ताल और लय का ऐसा संयोजन किया कि महाराज ही नहीं महिषी भी आत्ममुग्ध हो उठीं। उनकी अंतरात्मा कला में डूब चुकी थी। महाराज की उँगलियाँ ही नहीं सम्पूर्ण शरीर थिरक उठा। महिषी का रोम रोम रोमांच से भर उठा जब उन्होंने
काचिद् वीणां परिष्वज्य सुप्ता कमल लोचना ।
वरं प्रियतमं गृह्य सकामेव हि कामिनी ।।
का स्वर उभारा।
'वीणा का आलिंगन कर सो गई। ओह.. ।' महाराज की उँगलियाँ थिरकती जा रही थीं। एक बार फिर निकला 'ओह' । महिषी उसी लय ताल में स्वर देती रहीं-
पाणिभ्यां च कुचौ काचित् सुवर्ण-कलशोपमौ ।
उप गुह्याबला सुप्ता निद्राबल पराजिता ।।
'कुचों को हाथों से दबाकर सो गई।' एक बार फिर निकला 'ओह' और महाराज की उँगलियाँ अवरोह के साथ ही स्थिर हो गईं। उन्होंने वीणा को किनारे रख दिया। महिषी के पैर थम गए । महाराज के मस्तक पर स्वेद जल लहरा उठे। महिषी ने भी अपने मस्तक से स्वेद जल हटाया। जाह्नवी और शुभा का अन्तर वे अनुभव करते थे । संस्कार जाह्नवी को महत्त्व देते थे और मन शुभा की डोर से बँधा रहता था। महाराज की दुविधा शुभा भी समझती थीं। एक बार उनका मन हुआ कि मेघ के राज्याभिषेक की चर्चा छेड़ें पर कुछ सोचकर उन्होंने बात नहीं उठाई। संयुक्ता के लिए स्वयंवर का आयोजन ही उनकी प्रसन्नता के लिए काफी था । इस समय स्वयंवर कौन रचाता है? कभी यह राजपरिवारों की परम्परा थी पर अब? महाराज ने उन्हीं परम्पराओं को जगा दिया है । कान्यकुब्ज के लिए ही नहीं संयुक्ता के लिए भी यह गौरव की बात है । महाराज भी मुदित हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने शुभा का गौरव बढ़ाया है।