Shakunpankhi - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

शाकुनपाॅंखी - 8 - सत्ता सुख

12 सत्ता सुख

कन्हदेव की उपलब्धियाँ उन्हें लोक में प्रतिष्ठित कर रही थीं। जिधर भी जाइए, उन्हीं की चर्चा । न जाने कितनी किंवदन्तियाँ उनके साथ जुड़ गई थीं। उनके सामने कोई अपनी मूँछ को हाथ नहीं लगा सकता था। बड़े बड़े योद्धाओं की उनके सामने घिग्घी बँध जाती । बालुकाराय के बध ने उनकी ख्याति में चार चाँद लगा दिए थे । व्यक्ति का तेज उसके आगे आगे चलता है। कन्हदेव के साथ भी यही घटित हो रहा था। उनके सामने जो भी पड़ता, माथ नवा लेता । यदि कोई माथ नवाने में चूक जाता तो उसे कन्हदेव का कोपभाजन बनना पड़ता। मानव व्यक्तित्व में भी परिस्थितियाँ कैसे कैसे परिवर्तन कर देती हैं? कोई उनके सामने शिर ऊँचा कर निकल जाता तो उन्हें लगता कि उनका अपमान किया गया है।
राजदरबारों में कब क्या घट जाए, यह निश्चित नहीं रहता। कदम्बवास, चामुण्डराय जिनके बिना चाहमान सत्ता की कल्पना संभव न थी, आज राजदरबार में कोई नाम न लेता। सत्ता सुख कितना क्षणिक है दरबार गाथाएँ इसकी चेतना जगाती हैं। सत्ता के लिए ही मारा-मारी चला करती। लोग सत्ता के लिए किसी भी तरह का अपराध करने से नहीं डरते । अनेक क्रूर कर्म सत्ताधारियों के मस्तक पर अंकित होते, पर सत्ता का जल उन्हें धो डालता । बन्दीजनों की कृपा से कीर्ति पताका आकाश में फहराती ।
जो चन्देल युद्ध का महानायक था वही चामुण्डराय इस समय बेड़ियों से जकड़ा कारागार में पड़ा था। राजकीय हाथी ने एक दिन उसे राजप्रासाद के अन्दर ही दौड़ा लिया। चामुण्डराय ने बचाने का प्रयास किया पर हाथी धकियाता रहा। उन्हें भी गुस्सा आ गया। उन्होंने हाथी को मार दिया। बात महाराज तक पहुँची । हाथी उन्हें बहुत प्रिय था। उसकी हत्या से वे क्रुद्ध हो गए। चामुण्ड विरोधियों ने भी काम किया। महाराज ने चामुण्ड के पैरों में बेड़ियाँ डलवा दी। चामुण्डराय बहुत दुःखी हुए पर अब कोई चारा न था ।
दाहिमा वीर कदम्बवास और राजनर्तकी कारुनटी की अन्तरंगता उस समय बढ़ गई, जब महाराज जंगल में शिकार का आनन्द ले रहे थे। महारानी इच्छिनी को इस संबंध की भनक लगी। उन्होंने तत्काल धावक दौड़ाया। महाराज सूचना पाते ही भड़क उठे। उन्होंने आकर रात्रि के समय कदम्बवास को कारुनटी के आवास पर जाते देखा । कदम्बवास जब घर से निकले एक तीर ने उन्हें स्वर्गधाम पहुँचा दिया। कारु भाग निकली। कदम्बवास का शव एक गढ्डे में गड़वाकर महाराज सो गए। राज प्रासादों में इस तरह की घटनाएँ आसामान्य नहीं थी। राजसुख मादक होता है न? मदमाती आँखों में सब कुछ समा जाता। सारे घाव भर जाते।
जनसामान्य अपने कामों में व्यस्त रहता । जीविका के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती। राजाओं के क्रिया कलाप चर्चा के विषय अवश्य बनते पर उससे उनके दैनिक कार्य बहुत प्रभावित नहीं होते। राज प्रासादों में कोई न कोई कुचक्र चला ही करता । चन्द का कवि हृदय प्रायः इन कुचक्रों का विरोध करता, पर बाल सखा पृथ्वीराज का हित सर्वोपरि हो जाता। वे उनसे अलग नहीं हो सकते थे। कदम्बवास का निधन उन्हें गहरा आघात दे गया। पर वे कुछ कहने या करने की स्थिति में नहीं थे। बहुत प्रयास करने पर वे कदम्बवास का शव अन्त्येष्टि हेतु उनके परिवार को दिला सके। कदम्बवास जितने वीर थे उतने ही दर्शन की गुत्थियों के जानकार । साहित्य एवं संगीत में भी गहरी रुचि थी। वे अनेक शास्त्रार्थों की मध्यस्थता कर चुके थे। उनके शास्त्र ज्ञान से कारु भी प्रभावित हुई। श्रद्धा भी प्रेम में बदल जाती है। दोनों की अवस्था में अन्तर था । पर प्रेम की गहनता इन सीमाओं की चिन्ता कहाँ कर पाती है? इसका आवेग अनेक बन्धनों को पार कर जाता है ।
महाराज का सारा ध्यान कदम्बवास पर केन्द्रित था । कारु की ओर उनका ध्यान नहीं गया। इसी का लाभ उठाकर एक जोगी के वेष में कारु एक पोटली में कुछ कपड़े, आभूषण एवं कार्षापण लेकर रात के अन्धेरे में निकल पड़ी। एक मंदिर के हवन कुण्ड से राख लेकर शरीर पर मला। वणिकों के समूह व्यापार के लिए एक नगर से दूसरे नगर जाया करते थे। दस्यु आदि के भय से प्रायः इनकी यात्रा समूह में हुआ करती थी । दिल्लिका से वणिकों का एक दल कान्यकुब्ज जा रहा था। खच्चर, घोड़े, ऊँट, सामान और सवारी ढोने के काम आते। जोगी वेष में कारु भी उनके साथ लग गई। नई अवस्था के जोगी को देखकर वणिकों ने पर्याप्त सम्मान दिया। जोगी वेष औरों से उसे अलग रखने में भी सहायक बना। पुरुष वेष के कारण उसे बहुत सावधानी बरतनी पड़ती। कारु इसमें निपुण थी। सायंकाल दल रुका। लोग भोजन की तैयारी में लग गये। स्वर मोटा कर उसने भजन गाया । वणिक जन झूम उठे। संगीत और नृत्य ही तो उसके प्राण थे । दिल्लिका की राजसभा में जब उसका नृत्य एवं गायन होता, सभी मंत्रमुग्ध हो उठते । चन्द, विश्वरूप, कृष्ण, आशाधर जैसे वाणी के उपासक ही नहीं, कदम्बवास, चामुण्ड, कन्ह जैसे शूर भी उसकी भंगिमाओं को निहारते रह जाते। उसका उच्चारण, आरोह, अवरोह, हस्तसंकेत सभी कुछ अप्रतिम होता। उसने संगीत और नृत्य को जीविका का साधन बनाया। उसे राजनर्तकी का सम्मान मिला पर वह उसे बचा न सकी। रात में उसे नींद नहीं आई । उसका अपराध बोध उसे भटकाता रहा । ठौर तो कहीं न कहीं मिलेगी पर अनिश्चित भविष्य उसे बेचैन करता रहा। उसने स्वप्न में अपने को कृष्ण की मूर्ति के सम्मुख कीर्तन करते पाया। उसका कीर्तन सुनकर मूर्ति जैसे सजीव हो उठी। नींद खुली। वंशीधर के स्मरण से उसमें आश्वस्तिभाव जगा ।


13. संकेत ?

पृथ्वीराज करवट बदल रहे थे। नींद कोसों दूर थी। खुखुन्दपुर पतन का ही तो उद्देश्य नहीं था । संयुक्ता की प्राप्ति का उपाय खोजना है। मन में विचार उठा। राजा प्रजा का संरक्षक है। उससे सामान्य जन बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। उसके कार्य की कोई मर्यादा होनी चाहिए। मन कान्यकुब्ज की वीथियों में ही घूमता रहा। संयुक्ता का बिम्ब उनके हृदय को मथ रहा था। उन्हें लगा कि दरवाजे पर संयुक्ता खड़ी है। वह मुस्करा रही है । कह रही है, 'आप नहीं आए, मैं ही चली आई। पर दरवाजे तक तो आपको आना ही होगा।' उसकी आवाज़ में कितना माधुर्य है? यह जानते हुए कि यह असंभव है, पृथ्वीराज उठे और दरवाजे तक आए। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई । लौटकर कक्ष में टहलने लगे ।
'कोई उपाय करना ही होगा।' उनके ओठ बुदबुदाए । 'अब संयुक्ता के बिना जीवन व्यर्थ है। चाहमान की प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है यह । दो हृदयों का प्रश्न है। प्राण हथेली पर रखकर प्रयत्न करना ही होगा।'
रुक्मिणी का प्रसंग उन्हें स्मरण हो आया। वे शयन कक्ष से बाहर निकल आए। प्रहरी ने अभिवादन किया। उन्होंने आकाश की ओर देखा । शुक्र की स्थिति से उन्हें लगा कि बाह्ममुहूर्त प्रारंभ हो गया है। शारदा मंदिर की घंटियाँ बज उठीं। यह सोचकर कि चन्द शारदा माँ की अर्चना के लिए आ गए होगे, वे भी स्नान कर धवल वस्त्र पहन कुम्मेत पर बैठ शारदा मंदिर की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे सेवक भी चलता रहा। उनका अनुमान सही था । चन्द शारदा माँ के सम्मुख बिहल हो स्तुति कर रहे थे। महाराज भी चुपचाप माँ के सामने हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। चंद की आँखें बंद थीं। कानों में महाराज की आवाज़ पड़ते ही, उनकी आँखें खुलीं। पार्श्व में महाराज भी भावविह्वल स्तुति कर रहे थे। स्तुति पाठ समाप्त होने पर महाराज ने भी चंद की और देखा । दोनों वहीं बैठ गए।
'कविराज, कोई न कोई उपाय करो।'
'क्या महाराज?"
'जिससे संयुक्ता चाहमान वंश में आ सके।’
चन्द कुछ क्षण के लिए मौन हो गए। महाराज का मन भी तर्क-वितर्क करता रहा ।
'तुम्हारा मौन मुझे कष्ट देता है ।'
'महाराज, मैं चाहमान और गहड़वाल वंश से जुड़ी संभावनाओं पर दृष्टिपात कर मौन हो जाता हूँ । यदि कोई प्रयास किया जाएगा तो दोनों वंशों के बीच वैमनस्य की गहरी दरार पड़ जाएगी। परिणाम सोचकर मुझे मौन हो जाना पड़ता है । आर्यावर्त की यह भूमि अपनी उत्पादन क्षमता के कारण अनेक शासकों को लालायित करती है। भारतीय ही नहीं भारत के बाहर के शासक भी अपना अस्त्र पहट रहे है। धरती का लाल हो जाना कष्टकर नहीं होगा, पर धरती सुरक्षा कवच विहीन हो जाएगी तो इस गांगेय भूमि पर शासन कौन करेगा, यह कहना कठिन है।'
“कविवर मुझे डराओ नहीं। यह जानता हूँ कि कान्यकुब्ज की सैन्यशक्ति बड़ी है। युद्ध की भयंकरता का भी भान है मुझे । पर संयुक्ता मेरी वरीयता में सर्वप्रथम है । उसके बाद ही किसी अन्य योजना पर विचार करूँगा। तुम्हें मेरी भावनाओं के ताप को भी समझना चाहिए। मैं सम्पूर्ण राज्य ही नहीं, अपने को भी उस पर निछावर करने के लिए तैयार हूँ । प्रश्न यह नहीं है कि पग उठाया जाए या नहीं बल्कि यह है कि पग कैसे उठाया जाए?' 'तब भी कठिनाई तो है ही कि पग किस तरह उठाया जाए। यह कोई सरल प्रश्न नहीं है।'
'कठिन प्रश्न हल करने की रणनीति बनाई जाती है।' 'महाराज आप का शरीर केवल आपका नहीं है। समाज ने आपको शासक बनने का अवसर दिया। समाज की संरक्षा आपका दायित्व है। अपनी भावनाओं के लिए समाज को शूली पर न चढ़ाएँ, महाराज। सायंकाल ही सूचना मिली है कि शहाबुद्दीन सैनिकों का मनोबल जीतने के लिए खाना पीना छोड़कर पड़ा है। मध्य एशिया के लड़ाकू कबीलों से सम्पर्क कर रहा है। देर सबेर फिर से आक्रमण करेगा। इसीलिए महाराज..... इसीलिए........।'
कहते हुए चन्द का गला भर आया। 'शासकों की हारजीत के साथ अब जनता की लूट का ताण्डव देखा नहीं जाता, महाराज ।' "देखो कविवर, जब तक प्राण हैं, तभी तक मैं जनता की सुरक्षा का दायित्व ले सकता हूँ । प्राण न रहने पर तो.....।'
'इसीलिए महाराज, शासक के प्राण जनहित में बंधक होते हैं। वह अपने प्राण के साथ मनमानी नहीं कर सकता। सोचो..... महाराज धरती के संकेत को सुनो।'
‘मैं इस समय हृदय का संकेत सुन रहा हूँ तुम जो बाँध बना रहे हो वह हृदय के संकेतों के बीच बँध नहीं पाएगा। कवि होकर भी हृदय के संकेत को नहीं समझ रहे हो ।'
"समाज का दायित्व मुझे इन संकेतों को समझने से रोक रहा है।'
'क्या मैं सामाजिक दायित्व से भाग रहा हूँ?"
'ऐसा कोई कैसे कह सकता है? पर पहाड़ सा दायित्व अधिक सामर्थ्य की अपेक्षा करता है।"
'युद्ध के लिए अपने पति को ललकारती पत्नी क्या आपने नहीं देखी है?"
'देखी है, महाराज ।'
'तो......।'


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