शाकुनपाॅंखी - 4 - तेरी आँखें Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 4 - तेरी आँखें

5. तेरी आँखें

संयुक्ता पाठ का अध्ययन करने के साथ ही सामयिक घटनाओं पर चर्चा छेड़ देती, ‘आर्ये, सुनती हूँ शाकम्भरी नरेश ने तुरुष्क सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी पर विजय पाई ?"
'उचित ही सुना तुमने ।' आर्या कह उठीं।
'पर यह सब कैसे हो गया? आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ।'
'तू शाकम्भरी नरेश में कुछ अधिक रुचि ले रही है।' 'नरेश में नहीं, मैं उस घटना से रोमांचित हूँ इसलिए ।'
'सभी रोमांचित हो उठते हैं उस विवरण को सुनकर मैं तुझे बता रही हूँ। पर मेरी टिप्पणी व्यर्थ नहीं है। तेरी आँखें'....., कहते हुए आर्या हँस पड़ीं। संयुक्ता के मुख मंडल पर भी स्मिति की रेखाएँ उभर आईं। 'महाराज पृथ्वीराज की वीरता में कौन सन्देह करेगा? वे अभी इकतीस पार कर रहे हैं। पर उनको देखकर बड़े-बड़ों के पसीने छूट जाते हैं। वे चाहमान गौरव हैं। शहाबुद्दीन सिन्ध और पंजाब के शासकों को जीतकर सोचता था कि अजयमेरु और दिल्लिका नरेश को भी बस में कर लेगा । पर उसके इन सपनों पर तराइन में पानी फिर गया। एक बड़ी अश्वारोही सेना लेकर वह चाहमान नरेश से टकराने आ ही गया। क्या उसे चाहमान नरेश की शक्ति का पता नहीं था?'
'था क्यों नहीं? पर लूट की सम्पत्ति का इतना आकर्षण है कि सैनिक तलवार भाँजने में ही अपना भला समझते हैं। यदि वह सफल हो जाता तो उसे कितना धन मिलता इसकी कल्पना नहीं कर सकती हो। यदि चाहमान नरेश ने उसे रोक न दिया होता तो वह कान्यकुब्ज तक आ धमकता।' 'कान्यकुब्ज तक !'
'हाँ, कान्यकुब्ज क्या उसकी दृष्टि में नहीं हैं? सिन्ध और पंजाब की सफलता से उसकी उमंगें आकाश छूने लगी हैं।'
'तब तो चाहमान नरेश ने कान्यकुब्ज को भी उपकृत किया है।' 'अवश्य । पर इसका अनुभव कौन कर रहा है? चाहमान वज्रकपाट की भाँति तुरुष्कों को रोककर खड़े हैं। न्याय प्रियता इतनी कि भागती सेना पर प्रहार नहीं किया। नहीं तो क्या शहाबुद्दीन लौटकर जा सकता था?' 'आप भी तो बताती रही हैं कि पीठ दिखाने वाले पर अस्त्र नहीं चलाना चाहिए।'
'युद्ध के भी नियम होते हैं। जो जीवन की भिक्षा माँग रहा हो, उस पर आक्रमण अनीतिकर है राजपुत्री ।'
‘तो चाहमान नरेश अनीतिपूर्ण कार्यों से बचते हैं।'
'ठीक कहती हो तुम। पर बहुत से साधनों की शुचिता पर ध्यान नहीं देते केवल लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, माध्यम उचित हो या अनुचित । जो किसी नियम को नहीं मानता उससे युद्ध करना कठिन होता है। महमूद तो लूटकर चला जाता था पर शहाबुद्दीन गोरी को भारत भूमि पर शासन करने का चस्का लग चुका है।' 'नवीन सूचना दे रही हैं, आयें।' 'इसमें नवीन बहुत नहीं है। वर्षों से शहाबुद्दीन पश्चिमी क्षेत्रों पर अधिकार किए बैठा है।'
'तब तो चाहमान नरेश के कर्म का महत्त्व और भी बढ़ जाता है ।' 'सेनापति स्कन्द को महाराज ने पुरस्कृत किया है। चर्चा है काका कन्हदेव ने सुल्तान पर भयानक प्रहार किया । सुल्तान अश्व सहित घायल हो गया । एक खल्जी पट्ठा सुल्तान को उठाकर अपने अश्व पर बिठा निकाल न लेता तो सुल्तान के प्राण न बचते। उसके कई सेनानायकों को चाहमान नरेश दण्ड लेकर छोड़ चुके हैं। झड़पें बार-बार होती रहीं। हर बार उसकी सेना परास्त होती रही ।' 'नरेश का पराक्रम अद्भुत है !"
'सच कहती हो बेटी । कान्युब्जेश्वर महाराज गोविन्द चन्द्र तुरुष्कों को बहिष्कृत करते रहे हैं पर महाराज शाकम्भरी नरेश को छः वर्षों से निरन्तर तुरुष्कों की नकेल थामनी पड़ी है। चाहमानों के वज्रकपाट से टकराकर तुरुष्क बार-बार लौटते रहे हैं। पर पिछला तराइन का युद्ध तो विनाशकारी सिद्ध हुआ । सुना है शहाबुद्दीन खान-पान भूल गया है। पराजय की पीड़ा उसे दग्ध कर रही है। अश्वों के वणिक उसकी पीड़ा के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ कहते हैं।'
'आयें, मनुष्य क्या इसी तरह युद्धों से प्रताड़ित होता रहेगा? एक क्षण विश्राम कर वह पुनः युद्ध में ही क्यों रम जाता है?"
'तेरा प्रश्न जटिल है। मनुष्य क्यों युद्ध करता है? .... उसके अहं की तुष्टि होती है न। पर बहुत से युद्धों का कारण अर्थ हो गया है। जब किसी के आर्थिक हित दूसरे से टकराते हैं तो युद्ध होता आया है।'
'क्या ऐसा नहीं हो सकता कि युद्ध न हो?"
'यह भी गम्भीर प्रश्न है । चुटकियों में इसका हल हो सकता तो......।' आर्या का वाक्य पूरा नहीं हुआ कि संयुक्ता ने जोर से चुटकी बजा दी। थोड़ी दूर पर पिंजरे में बैठा शुक हड़बड़ा कर बोल उठा 'अयं वयं वयं अयं ।' आर्या और संयुक्ता दोनों हँस पड़ीं।
'ठीक कहता है शुक', आर्या ने जोड़ा ।
'हम तुम भी युद्ध के कारक बन जाते हैं।'
'समझ नहीं सकी, आयें।" अच्छी तरह समझोगी। नारियों के कारण भी युद्ध होते हैं । पुरा कथाओं के अनेक वृत्त इसकी पुष्टि करते हैं।"नारी पण्या नहीं है, आर्ये । उसकी अस्मिता को नकारना क्या उचित है? "काल नर नारी किसी को भी पण्य बना देता है । आवश्यकता होती है इन स्थितियों से निकलने की। नर नारी ही नहीं व्यष्टि और समष्टि के बीच भी समरसता की आवश्यकता होती है।' कहते हुए आर्या उठ पड़ीं और उन्हीं के साथ संयुक्ता भी ।



6. या खुदा

शहाबुद्दीन ग़ज़नी में अपने कक्ष में लेटा करवटें बदल रहा है। उसे नींद नहीं आ रही है। तराइन में पृथ्वीराज से पराजित होकर वह कहीं भी मुँह दिखाने लायक नहीं रहा। उसके सैनिक भाग खड़े हुए। यह कहिए पृथ्वीराज की सदाशयता से वह बच सका ।
‘मैं खुद यह काम न करता जो हिन्द के पृथ्वीराज ने किया । दुश्मन को अपने पंजे से निकल जाने देना । यह उसका बड़प्पन हो सकता है पर इसे हिकमत - ए - अमली नहीं कह सकते।
अब मेरा क्या होगा ?.... या खुदा.....।'
उसकी आँखों से आँसुओं की धार निकल पड़ी।
'या अल्लाह', कहते उसने छत की और दृष्टि घुमाई । 'क्या हिन्द के राय पिथौरा से जीत सकता हूँ? एक बार बस एक बार राय पिथौरा को हरा पाता तो...तो...।' बाकी बातें मन में ही रह गईं।
'ऐ शहाबुद्दीन, तेरे पास राज करने के लिए धरती कम नहीं है। अपनी नींद क्यों हराम कर रहा है?" उसके अन्दर से आवाज़ आई ।
'यही तो शहाबुद्दीन नहीं कर सकता। वह चुप रहे, यह कैसे हो सकता है ? उसे हार का बदला लेना ही है'।
'चुप बैठ', उसके एक मन ने कहा । 'बदला ले'। दूसरे मन ने दाग दिया।
'चुप बैठ', 'बदला ले' दोनों विचार उसके स्मृति पटल पर क्रमशः आते जाते रहे। इसी कशमकश में समय बीतता रहा। फज़िर की नमाज़ का समय हो गया। वह अपने बिस्तर से उठा । नमाज़ अदा की। सामने उगते सूरज को देखने लगा ।
'तेरे मन में कभी इन्सानी भलाई की बात भी उठती है? लोगों पर रहम कर ।' एक मन ने कहा । 'करने को बहुत से काम हैं। लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। उनके लिए पानी का इन्तज़ाम कर । मज़लूम और बेबस की ख़िदमत कर। ख़ुदा करम अता करेगा।' पर दूसरे मन ने तुरन्त उत्तर दिया, 'यह हारे हुए मन का एहसास है। हार कर मन को तसल्ली देने का ख़याल अच्छा है । सोचो.......हार के कलंक को कभी मिटा सकोगे? हारने पर ख़िदमत का ख़याल आया । हारने पर इबादत की ओर मुड़ गए ।' 'सोचो, साथ क्या जाएगा? जिस ग़ज़नी को महमूद ने सोने चाँदी और कीमती पत्थरों से भर दिया, बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कीं, कुतुबखाना, अजायबघर और मस्जिद बनवाई, उन सबको जलते और मिटते क्या देर लगी ? तुम्हीं ने उनके ख़ानदान को किस घाट का पानी नहीं पिलाया? कितनों को सताकर जंग करते हो? कितने मर जाते है? किसी के हाथ कटते हैं किसी के पैर ? क्या यही पैगाम लेकर घूमोगे तुम? सोचो क्या इसी से अम्न कायम करोगे?' एक मन ने अपना क्रम जारी रखा।
'हाँ.... हाँ.... ठीक है। दुनिया को अपने कदमों में देखना चाहते थे। अब ज़ख़्म खाकर पूँछ दबा भागना चाहते हो । दुनिया यही कहेगी बुज़दिल डरपोक... और तुम सिर उठाकर देख भी नहीं पाओगे । बहादुरों की कतार के सामने सर उठाकर निकल नहीं सकोगे। तुम्हें देखकर लोग जब तालियाँ पीटेंगे, सहन कर पाओगे इसे ? जिस्मानी ज़ख़्म तो भर जाएगा पर मन के ज़ख़्म का क्या करोगे? इन्सान हो तुम, कोई पत्थर नहीं । पत्थर भी ठोकर खाकर आवाज़ करता है और तुम अपनी बुज़दिली छिपाने के लिए बहाने तलाशते हो ।' दूसरा मन ललकारता रहा।
'तुम किसी का सर कलम कर सकते हो पर किसी को ज़िन्दा नहीं कर सकोगे। किसी ने तुम पर हमला नहीं बोला है। अवाम को भर पेट रोटी तो खाने दो। अल्लाह किसी पर कहर बरपा करने की इजाज़त नहीं देता। अपने को अल्लाह का बन्दा कहते हो और इन्सान को पाँवों पर गिराने में ही अपनी सारी ताकत झोंक देना चाहते हो । लानत है तुम्हें। सिर्फ अपना ख़्वाब देखते हो, आदमी की भलाई से कोई मतलब नहीं। इनसानी खून के प्यासे होकर भी अपने को रहमदिल कहते हो । इन्सान बनो, शैतान नहीं।' पहला मन अपना तीर फेंकता रहा ।
दूसरा मन देर तक हँसता रहा, जैसे उतार-चढ़ाव की असलियत को पहचान रहा हो। 'करोगे वही जो मैं कह रहा हूँ। तुम बिना इस ज़ख़्म को भरे ज़िन्दा ही नहीं रह सकोगे ? मौत के मुँह में जाकर कैसे दरियादिली दिखाओगे? तुम्हारे लिए ज़िन्दा रहना सबसे अहम है और बिना बदला लिए तुम जिन्दा नहीं रहे सकोगे। सोच लो.. .... जल्दी क्या है? पर करना तुम्हें वही पड़ेगा जो मैं कह रहा हूँ ।'
'ठीक कहते हो तुम। मैं ज़िन्दा रहना चाहता हूँ और बिना बदला लिए कैसे ज़िन्दा रह सकता हूँ? मैं कोई सूफी फकीर नहीं हूँ । राय पिथौरा की आँखें अब भी मुझे तरेरती दिखाई देती हैं। उस काफिर कन्हदेव के बल्लम का ज़ख़्म क्या ऐसे भरेगा?” सोचते विचारते बेंत के बने सुन्दर मोढ़े पर आकर बैठ गया। पर मन अशान्त ही रहा।