Shakunpankhi - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

शाकुनपाॅंखी - 6 - सन्देश

9. सन्देश
पृथ्वीराज दिल्लिका की बैठक में चाचा कन्ह देव, महाकवि चन्द, सन्धिविग्रहिकामात्य वामन, सेनाधिपति स्कन्द, चन्द्र पुण्डीर, केहरी कठीर, पज्जूनराय, सलखपरमार, जैतराव, निड्डर, वीर सिंह, लखन बघेल, जाम राय यादव, पहाड़राय तँवर के साथ विचार विमर्श कर रहे हैं। तराइन की अभूत पूर्व विजय से सभी के चेहरे दमक रहे हैं यद्यपि सैन्यबल की एक टुकड़ी भटिन्डा को अवमुक्त कराने में लगी है। महाराज प्रसन्न मुद्रा में भटिन्डा की स्थिति पर विचार कर रहे हैं। इसी बीच प्रतिहारी ने माथ नवा निवेदन किया कि एक ब्राह्मण महाराज से कुछ निवेदन के लिए उपस्थित है। महाराज के संकेत पर प्रतिहारी लौटा। ब्राह्मण ने प्रवेश करते ही महाराज को आशीर्वाद देते हुए स्वस्तिगान कर मुग्ध किया ही, पूरी सभा कौतूहल से आसन्दी पर ब्राह्मण को आसीन होते देखने लगी। प्रयोजन की ओर संकेत करते ही ब्राह्मण ने कहा, "महाराज, मैं कान्यकुब्ज से आया हूँ।' सभी के कान ब्राह्मण के शब्दों पर ही लगे थे। "इतनी लम्बी यात्रा का एक लक्ष्य है। अपेक्षा यही करता हूँ कि महाराज मेरी बातों पर ध्यान देंगें।'
‘अवश्य....अवश्य’, कन्हदेव के मुख से निकल गया। महाराज ने भी संकेत किया। 'महाराज, आपको विदित ही है कि महाराज कान्यकुब्जेश्वर राजसूय यज्ञ कर रहे हैं। उसी में बेटी का स्वयंवर भी आयोजित है। बेटी बत्तीस लक्षणों से युक्त त्रिपुर सुन्दरी का प्रतिरूप है। उसके शील और सौन्दर्य के सामने सभी उपमान कान्तिहीन हो गए हैं। प्रकृति ने उसे बड़ी कुशलता से गढ़ा है। उसका शरीर, रूप-रंग, चाल-ढाल देखकर मन मुग्ध हो उठता है । भारतेश्वर के लिए ही बालिका ने जन्म लिया है।'
काका कन्ह अपनी मूछों में ही मुस्करा रहे थे।
सलख परमार कसमसा उठे, 'उसका स्वभाव कैसा है? चाहमान परम्परा क्या वह निभा सकेगी?"
"विधि ने वैसी रचना दूसरी नहीं की होगी। शील एवं स्वभाव भी उसी ने गढ़ा है, उसमें त्रुटि की गई होगी ऐसा मुझे नहीं लगता। स्वर्ग की अप्सराएँ भी उसकी तुलना में कहीं नहीं टिकतीं।'
'पर वह स्वयं क्या भारतेश्वर के प्रति..... ..?' चन्द ने प्रश्न करना चाहा। 'महाराज क्षमा करें। उसकी इच्छा जान कर ही मैंने इस तरह का दुस्साहस किया है।' महाराज के संकेत पर महामात्य ने भृत्य को बुलाकर ब्राह्मण के विश्राम की व्यवस्था करने के लिए कहा।
ब्राह्मण के जाते ही सभा में विमर्श प्रारंम्भ हो गया। 'यदि बालिका ने चाहमान वंश में आने का प्रण कर लिया हो तो हमें प्राणपण से उसकी रक्षा करनी चाहिए।' कन्हदेव बोल उठे। सभी लोगों के बीच चन्द चुपचाप बैठे थे। महाराज के इंगित पर वे उठे । अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'कान्यकुब्ज नरेश की शक्ति से हम परिचित हैं।
राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर निर्धारित सेवा करना एक तरह से उनका आधिपत्य स्वीकार करना है ।'
'यही नहीं हो सकता, कन्हदेव बोल पड़े। उनकी आवाज़ के साथ ही पूरी सभा कसमसा उठी।
'राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता, अनेक आवाजें उभरी। 'तो स्वयंवर में भी सम्मिलित होने की स्थिति नहीं बनती।' चन्द ने जोड़ा। 'उचित कहते हैं आप', वामन और स्कन्द एक साथ बोल पड़े। सदस्यों ने सुझाव दिया कि प्रकरण अगली प्रातः सभा में रखा जाए तब तक आचार्य चन्द ब्राह्मण से विस्तृत जानकारी प्राप्त कर लें।
महाराज के इंगित पर सभा समाप्त हुई। लोग छोटे छोटे समूहों में चर्चा करते हुए सभा से बाहर निकले।
ब्राह्मण के संदेश ने चाहमान नरेश की नींद उड़ा दी। रात में वे जितना ही सोने का प्रयास करते, नींद उतनी ही दूर भागती। ऐसा लगता जैसे संयुक्ता की प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य रह गया हो। वे प्रातः ही उठ पड़े। स्नान कर ध्यान लगाने की कोशिश की पर वहाँ भी उन्हें संयुक्ता ही दिखाई दी । 'महाराज को नींद नहीं आई', यह सूचना महारानी इच्छिनी तक पहुँची। वे पूजा पर बैठने जा रही थीं पर इस सूचना से विचलित हो उठीं। महाराज के कक्ष से धूप एवं गुग्गुल की सुगन्ध आ रही थी। महाराज यंत्रवत् कार्य कर रहे थे पर मन उनका कहीं और था। पूजा खत्म होते ही राजमहिषी इच्छिनी पहुँच गई। महाराज और महारानी दोनों ने एक दूसरे की आँखों में झाँका । आँखों से समाधान न हुआ तो महारानी बोल पड़ीं, 'आर्यपुत्र को रात में नींद नहीं आई?"
'सचमुच आज नींद उचट गई तो फिर नहीं ही आई' ।
'कोई विशेष चिन्ता'?
“चिन्ता का तो कोई कारण नहीं था।'
'सुना, कल कान्यकुब्ज से कोई ब्राह्मण संदेश लेकर आया था...।’
'हाँ।'
'क्या उस संदेश ने महाराज को उद्वेलित कर दिया?"
'संदेश में उद्वेलन की कोई बात न थी ।'
कहीं से कोई अशुभ समाचार तो नहीं आ गया?"
'ऐसा भी नहीं हुआ।'
'किसी सहयोगी ने विश्वासघात किया?'
'नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ।'
'तब?"
'कभी कभार नींद न आना कोई चिंता की बात नहीं है।'
' पर कारण तो होना चाहिए।....... बाद में कोई अनिष्ट हो जाए तो उसका निदान अत्यन्त कठिन हो जाता है।'
'तुम्हें मेरी शक्ति पर विश्वास नहीं है क्या?"
'विश्वास की बात नहीं है ।......कोई ऐसी चिंता अवश्य थी जिसने आपकी नींद में बाधा डाली।
'तुम्हारी पूजा का समय निकला जा रहा है। जाओ...... मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ....... चिंता करने की आवश्यकता नहीं।' महाराज की उँगलियाँ महारानी की केशराशि से खेलने लगीं। महारानी कुछ आश्वस्त सी हुईं। महाराज को प्रणाम कर पूजा सम्पन्न करने के लिए चल पड़ीं।
महाराज का मन कान्यकुब्ज कुमारी से हट नहीं रहा था। वे जितना ही अपने को अलग करने का प्रयास करते उतना ही मन उलझ जाता। एक संदेश इतना अचूक हो सकता है इसका प्रत्यक्ष अनुभव सामने था। महाराज का हृदय धक-धक कर रहा था। वे संयुक्ता की कल्पना करते। उसका उठना बैठना, चाल-ढाल मन मस्तिष्क में उभर उठता। ब्राह्मण का एक-एक शब्द बिम्ब ग्रहण के लिए पर्याप्त था। कल्पना की छलांग बहुत लम्बी होती है। संयुक्ता प्राप्ति और कठिनाइयों के बीच उन्हें कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। ऐसे ही समय उन्हें चन्द की याद आई। बालसखा कवि चन्द की डोर कहीं न कहीं पृथ्वीराज से जुड़ती थी। उनके मुख से निकल गया, 'प्रतिहारी'। कर जोड़े प्रतिहारी उपस्थित हुआ। 'आचार्य चन्द' आगे कुछ कहा नहीं गया। प्रतिहारी अभ्यस्त था। आचार्य को बुलाने भृत्य को दौड़ा दिया ।
आचार्य चन्द अतिथि कक्ष में ब्राह्मण से विचार विमर्श कर रहे थे। भृत्य खोजता हुआ अतिथि कक्ष आया। महाराज का संदेश पाकर वे तुरन्त चल पड़े। कुछ ही क्षणों में आचार्य महाराज के सामने उपस्थित हुए।
प्रतिहारी को आदेश मिला कि कक्ष में किसी को आने न दिया जाए।
'क्या किया जाए', महाराज के मुख से निकला।
'समस्या कठिन है....... निदान भी......।'
‘आपने ब्राह्मण से विमर्श किया?"
'हाँ। वहीं से आ रहा हूँ।'
'कोई नई बात ?"
'महाराज कान्यकुब्ज नरेश की पुत्री संयुक्ता पूरी तरह भारतेश्वर के प्रति समर्पित है।
उसी के संकेत पर ब्राह्मण यहाँ आया है।'
'संदेशवाहक ब्राह्मण को प्रतिदान?"
'उसकी व्यवस्था कर दी गई है।'
"अब आगे?"
'कार्य कठिन है। कान्यकुब्ज की विशाल सेना से संघर्ष किए बिना संयुक्ता का पाणिग्रहण संभव नहीं दिखता ।'
'क्यों?'
'क्योंकि कान्यकुब्ज नरेश महाराज के बढ़ते प्रताप से चिंतित हैं। वे स्वेच्छा से कन्या अर्पित करने के लिए प्रस्तुत नहीं होंगे।'
‘मैं भी यह अनुभव करता हूँ पर कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा ।'
“स्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं। सीमाएँ असुरक्षित हैं। शहाबुद्दीन की पराजय अवश्य हो गई है किन्तु अभी भी भटिंडा में सेना पड़ी है। ऐसे में एक नया मोर्चा खोलना ?' 'ठीक कहते हो। कठिनाइयाँ हैं। पर संयुक्ता ने किसी आशा से संदेश भिजवाया है। हम 'हाँ', 'न' करते रहें यह भी तो उचित नहीं । यदि हम कोई सकारात्मक उत्तर नहीं दे सके तो उसकी दृष्टि में हम......।’
'आपके विचार संगत हैं। संयुक्ता की आशा फलीभूत हो, ऐसा ही प्रयास करना होगा। कोई युक्ति निकालनी ही होगी।'
'कोई युक्ति सोचिए.....।' कहते हुए महाराज उठ पड़े, उन्हीं के साथ चन्द भी । प्रातः सभा का समय हो रहा था। महाराज चन्द के साथ ही अन्तःपुर तक आए । चन्द भी अपनी तैयारी के लिए घर गए। सभा में सदस्य आ चुके थे। महाराज के पहुँचते ही सभी ने खड़े होकर अभिवादन किया। महाराज और चन्द भी अपने आसनों पर बैठे। गुप्तचरों की सूचना से महामात्य वामन अत्यन्त उत्तेजित थे। महाराज के बैठते ही उन्होंने खड़े होकर बताया, 'महाराज, गुप्तचरों ने सूचित किया है कि कान्यकुब्ज नरेश ने महाराज की मूर्ति बनवाकर द्वारपाल की जगह रखवा दी है।'
'कान्यकुब्ज नरेश का यह साहस?” कन्हदेव तमतमा कर खड़े हो गए।
'हमें कान्यकुब्ज नरेश को इसका उत्तर देना होगा।' पज्जून, केहरी एक साथ बोल पड़े।
महाराज ने उन्हें शान्त किया। गुरु राम पुरोहित और चन्द चुपचाप सुनते रहे। महामात्य ने कहा कि चाहमान सेनाएँ पश्चिमी और दक्षिणी छोर पर लगी हुई हैं। वहाँ से उन्हें तत्काल हटाना उपयुक्त नहीं है। कान्यकुब्ज के सम्मुख भी एक सबल सैन्य बल आवश्यक होगा । सेनापति स्कन्द ने भी महामात्य का समर्थन किया। महाराज की दृष्टि गुरु राम पुरोहित पर पड़ी। वे खड़े हो गए। सम्बोधित करते हुए कहा, 'महाराज, क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे कोई बड़ा युद्ध लड़े बिना ही कार्य सम्पन्न हो जाए?' पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। सभी पुरोहित का मुख देखने लगे। पुरोहित ने कहा, 'महाराज इस समय हमें किसी युक्ति से कान्यकुब्ज का राजसूय यज्ञ विध्वंस करना चाहिए।'
'पर उपाय?"
'बताता हूँ। खोखन्दपुर के बालुकाराय कान्यकुब्ज नरेश के सगे हैं। यदि किसी प्रकार उनका वध हो जाए तो अशौच होने पर राजसूय यज्ञ खंडित हो जाएगा। उन्हें पता चल जाएगा कि किसी सम्राट् को द्वारपाल बना देने का फल क्या होता है? अभी माघ बदी पंचमी को राजसूय यज्ञ प्रारम्भ हुआ है। कल पुष्य नक्षत्र है। सैन्य प्रस्थान का उत्तम समय हैं।' पुरोहित का प्रस्ताव तत्काल स्वीकृत हो गया। काका कन्हदेव को नेतृत्व सौंपा गया। वे हँसते कह उठे 'जब तक काका के हाथ में सिरोही है, आप सबको निश्चिन्त रहना चाहिए।' उनके आगे के दो दाँत शहाबुद्दीन के साथ युद्ध करते टूट गए थे। इसीलिए कभी कभी आवाज लड़खड़ा जाती पर उनकी शमशीर की धमक वैसी ही थी ।

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