शाकुनपाॅंखी - 7 - समरसता की चिन्ता Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 7 - समरसता की चिन्ता

10. समरसता की चिन्ता
कच्चे बाबा गंगा तट पर स्थित अपने छोटे से आश्रम में एक आसनी पर बैठे हैं। पारिजात शर्मा कन्धे पर उत्तरीय डाले आए। बाबा के सामने ही बैठ गए। उन्होंने बताया, “कान्यकुब्ज नरेश का राजसूय यज्ञ प्रारंभ हो गया है।'
'हूँ' बाबा के मुख से निकला।
‘अनेक सामन्त सेवा कार्य हेतु आ गए हैं । चाहमान नरेश पृथ्वीराज की एक मूर्ति द्वारपाल की जगह लगाई गई है।' पारिजात बताते रहे।
बाबा जैसे चौंक पड़े हों, कहा, 'उचित नहीं किया कान्यकुब्ज नरेश ने। स्वेच्छा से सेवा कार्य करने की परम्परा है। मूर्ति लगाकर तो अपमानित करना हुआ । क्या तुम समझते हो, जिसकी मूर्ति लगाई जाएगी वह चुप बैठेगा?"
'चुप कैसे बैठेगा?" पारिजात भी दुःखी हुए।
'परिणाम की चिन्ता नहीं करते ये नरेश । जो भी मन में आता, कर जाते हैं ।'
'पारिजात इस वृहत्तर समाज का भला कैसे होगा? जिधर देखिए युद्ध या युद्ध की आशंका । मनुष्य भय एवं असुरक्षा के बीच पिस रहा है।' 'लूट के लिए युद्ध ? कुछ लोग जैसे लूट का अधिकार लेकर पैदा हुए हों।' पारिजात ने चिन्ता जताई।
'इस लूट को समाज सहन कर रहा है पारिजात। लोग लूट को ही अपनी जीविका बनाकर प्रसन्न हैं । लूट कौन रहा है? वही जो समर्थ है।'
'समर्थ की व्याख्या भी सापेक्ष है न? इसीलिए जिसको जहाँ भी अवसर मिल रहा है, लूटने का प्रयास कर रहा है।'
'पारिजात तुम ठीक कह रहे हो। इससे मनुष्य को छुटकारा कब मिलेगा?"
'प्रश्न कठिन है। मानव समाज संभव है कोई विकल्प ढूँढ लें। ज्यों ज्यों सामान्य जन की कठिनाइयाँ बढ़ेंगी, निदान की खोज भी उतनी ही तेज़ होगी ।'
'इसी आशा पर मनुष्य जी रहा है, पारिजात।' बाबा के इतना कहते ही एक स्त्री अपने बच्चे को लेकर आ गई। बच्चे को आँख आ गई थी। दर्द था। बाबा ने उसे देखा। आमा हल्दी पिसवाई। बच्चे के अँगूठे में बँधवा दी। एक वनस्पति का रस आँखों में डाला । बच्चे का दर्द कुछ कम हुआ। 'कल तक ठीक हो जाओगे।' बाबा ने कहा माँ बेटे को लेकर घर चली गई।
आश्रम में पारिजात शिक्षण कार्य देखते थे। पत्नी की मृत्यु के बाद अपना सम्पूर्ण समय कच्चे बाबा के आश्रम को समर्पित कर दिया था। बच्चे आसपास के गाँवों से आते । दिन में पढ़ते और सायंकाल अपने घरों को लौट जाते। पारिजात के निर्देशन में बच्चे सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार के विषयों को पढ़ रहे थे। शिल्प और आयुर्वेद पर बाबा अधिक बल देते। भाषा, साहित्य, व्याकरण, गणित, दर्शन की पढ़ाई तो होती ही। आश्रम के पास थोड़ी भूमि थी। बाबा उस भूमि पर पर्याप्त श्रम कराते और प्रयास यही करते कि आश्रम का व्यय भूमि के उत्पादन से निकल आए। पारिजात राजकीय अनुदान पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। कभी उन्होंने इसके लिए प्रयास भी नहीं किया।
आश्रम का द्वार धनी निर्धन सभी के लिए खुला था। अध्ययन करने के लिए जो बच्चे आते, उनकी देखरेख अत्यन्त कुशलता से की जाती। बाबा स्वयं इस बात का ध्यान रखते कि बच्चों में मानवीय संस्कार विकसित किए जाएँ। विभिन्नताओं के होते हुए वे आपस में सद्भाव से रह सकें। अनेक जोगी, बैरागी, सूफी, सन्त भी आश्रम पर आते। एक-आध दिन रुकते और अपने गन्तव्य पर चल पड़ते। बाबा का व्यवहार अपनी अमिट छाप छोड़ता । पारिजात भी आश्रम के परिवेश में रच बस गए
उस समय ग्रामदान से गुरुकुलों का खर्च चल जाता था । प्रायः आचार्य इसके लिए प्रयास भी करते । राजा के सान्निध्य में रहने वाले आचार्य प्रायः इस तरह के ग्रामदान पा जाते। पर कच्चे बाबा किसी से याचना नहीं करते। आसपास की जनता आश्रम को बड़े सम्मान से देखती । बाबा केवल साधक ही नहीं थे वे जनसामान्य का दुःख दर्द भी बाँटते । आयुर्वेदिक औषधियों को यत्नपूर्वक बनवाते और रोगियों में वितरित करते । बाबा सामाजिक समरसता के प्रति निरन्तर सचेत रहते। जो बच्चे पढ़ने के लिए आते उनमें सामाजिकता विकसित करने का प्रयास करते। बच्चे प्रायः सामान्य घरों के होते। उनको खेलते कूदते पढ़ते देखकर बाबा का मन प्रसन्नता से नाच उठता। पर एक बात उन्होंने अनुभव की । सम्भ्रान्त परिवार के बच्चे उनके आश्रम में नहीं आ रहे थे। उन्होंने पारिजात से चर्चा की।
अगले दिन पारिजात ने बाबा के सम्मुख एक बच्चे को प्रस्तुत किया। बच्चा आश्रम छोड़ गया था ।
"इस गरुकुल को क्यों छोड़ गए ?" पारिजात ने पूछा। बालक मौन खड़ा रहा। बाबा के प्रोत्साहित करने पर बोला, 'बाबा.......।'
'कहो, रुक क्यों गए?" बाबा ने कहा ।
'बाबा यहाँ हमको सबके साथ काम करना पड़ता है।'
'अच्छा', बाबा हँस पड़े । 'यही सिखाने के लिए तो यह आश्रम है। क्या तुम्हें सबके साथ काम करने में लज्जा की अनुभूति होती है?"
“हाँ । यहाँ दण्ड में भी हमें कोई छूट नहीं मिलती।'
'दण्ड में भेद भाव क्या ठीक है?"
'बाबा, हम बड़े घर के बच्चे हैं।'
'बेटे, अब तुम जा सकते हो।' पारिजात ने संकेत किया।
बाबा विचारों में डूब गए। सामाजिक ऊँच नीच का भेदभाव क्या गुरुकुलों में भी बरता जाए? किन मूल्यों का पोषण इन गुरुकुलों से हो सकेगा? समरसता क्या केवल शब्दों से आती है? लोग अपनी शालाएँ चलाना चाहते हैं । समरस मूल्यों की चिन्ता किसे है?
'तुम्हें असुविधा तो नहीं हो रही है?" बाबा ने पारिजात से पूछ लिया।
'नहीं तो। मुझे क्यों असुविधा होगी?" पारिजात कह उठे ।
'अपने गुरुकुल में किसी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। चौका और चौकी का भेद करने वाले समाज को बाँटते ही अधिक हैं, जोड़ते कम । वाणी और कर्म का भेद लोगों की अन्तरात्मा को कैसे उद्वेलित कर सकेगा?" बाबा बोलते रहे।
क्या गुरुकुल सामाजिक अलगाव बढ़ाने के लिए खोले जाते हैं? वे देर तक सोचते रहे।


11. प्रसन्नता के बीच रक्ताभ आँखें

यज्ञ की कार्यविधि में लगे महाराज जयचन्द्र प्रसवितृ देवताओं को आहुतियाँ दे रहे हैं। सत्य प्रसव के लिए सविता, गार्हपत्य के लिए अग्नि, वनस्पति और कृषि के लिए सोम, वाक्शक्ति के लिए बृहस्पति, उत्तम शासन के लिए इन्द्र, पशु रक्षा के लिए रुद्र को आहुति देते हुए अत्यन्त प्रसन्न दिख रहे हैं। सत्रह स्थानों से संभृत जल से अभिषिक्त महाराज का शरीर दमक रहा है। रत्निनों के घर जाकर रत्न हवि प्रदान करने का कार्य प्रारंभ हो चुका है। पुरोहित के बाद राजन्यों के यहाँ रत्न हवि प्रदान करने का कार्य चल रहा है। महाराज कौशेय वस्त्र धारण किए हुए यज्ञवेदी से उठे । चारणों ने प्रशस्तिगान प्रारंभ कर दिया। दान देकर ब्राह्मणों एवं याचकों को तृप्त किया जाने लगा। महाराज की प्रसन्नता फूटी पड़ रही है। महिषी जाह्नवी दान देने में सहयोग कर रही हैं। मेथ और हरि दान सामग्री ला रहे है। अनेक सामन्त सेवा कार्य में लगे हैं। यज्ञवेदी से महाराज जैसे ही निकले खुखुन्दपुर से आए धावक ने प्रणाम किया। बालुका राय की प्रतीक्षा ही कर रहे थे महाराज। जैसे ही महाराज ने धावक की ओर दृष्टि उठाई, धावक पैरों पर गिर पड़ा। उसके आभाहीन मुखमण्डल को शंका अवश्य हुई पर उन्होंने जिज्ञासु भाव से पूछ लिया, 'कुशल तो है?"
'महाराज खुखुन्दपुर का सूर्य अस्त हो गया।' धावक रो पड़ा।
"क्या?' महाराज गरज उठे ।
'चाहमानों ने सब कुछ नष्ट कर दिया। महाराज..... वीरगति पा स्वर्ग प्रस्थान कर गए।'
'चाहमानों का इतना साहस? महाराज की बाहें फड़क उठीं। सहज बड़ी बड़ी आँखें रक्त से भर उठीं। उन्होंने कन्ह कमध्वज को ललकारा, 'खुखुन्दपुर में चाहमान घुस आए हैं। उन्हें खदेड़कर बाहर करो ।'
कन्ह ने तातार को भी साथ लिया। सेना के साथ खुखुन्दपुर के लिए चल पड़े। महाराज का पारा चढ़ा हुआ था। उनका रौद्र रूप देख लोग सहम उठे। ऋत्विजों के लिए नया प्रकरण उपस्थित हुआ । अशौच में यज्ञ ?
'कैसे होगा यज्ञ ?' एक ने कहा। 'ऐसी स्थितियाँ पहले भी आई होंगी। शास्त्र वचन होगा। इतना महत्त्वपूर्ण यज्ञ ।' आचार्य आपस में ही विचार विनिमय करने लगे।