18. पंछी उतरो द्वार
पूर्वप्रत्यूष काल । नगर निद्रामग्न । पक्षी भी अपने घोसलों में दुबके हुए। गंगा के हरहराते जल की ध्वनि । रात की साँय साँय । संयुक्ता दो सेविकाओं के साथ बार बार खिड़कियों से झाँकती। 'समय खिसक रहा है', उसने कहा । 'महाराज आते ही होंगे,' एक ने कहा ।
‘अवश्य आएँगे। वे महाराज हैं', दूसरी ने जोड़ दिया। संयुक्ता की व्यग्रता बढ़ती जा रही है । 'उन्हें आना ही होगा,' वे बुदबुदा उठीं।
'माँ यदि सहयोग कर पातीं। उनकी अपनी विवशता है, मेरी भी ।' सम्पूर्ण कान्यकुब्ज का विरोध.....वह सिहर उठी । 'नहीं, मैं निश्चित कर चुकी हूँ, वे आएँगे।' उसने खिड़की से झाँक कर देखा । प्रासाद के पिछले द्वार पर एक अश्वारोही दिखा। संयुक्ता के मुख से निकल गया, 'वही होंगे।' उसने सेविका को संकेत किया। उसने जाकर धीरे से द्वार खोला । अश्वारोही अन्दर आ गया। सेविका आगे आगे, महाराज पीछे पीछे । पृथ्वीराज के सामने होते ही संयुक्ता की आँखें छलछला उठीं। एक सेविका थाल में सिन्दूर ले आई। महाराज ने सिन्दूर दान कर संयुक्ता को अपने पार्श्व में बिठा लिया। शब्द निकल नहीं रहे थे, केवल अनुभूतियों की सिहरन । 'शीघ्रता करो समय नहीं है', कहते हुए महाराज ने दोनों सेविकाओं को हीरक हार देकर कार्षापण की दो मंजूषाएँ भी पकड़ा दी। ‘चलो', महाराज के मुख से निकलते ही संयुक्ता ने झुक कर धरती और गंगा को प्रणाम किया। सेविकाओं को आने का आमंत्रण दे, महाराज के पीछे-पीछे चल पड़ीं। द्वार पर आते ही अश्विनी पर सवार हुई । चन्द सहित अन्य सामन्त खड़े थे । आगे आगे कन्हदेव। पचास सामन्त आगे, पचास संयुक्ता और महाराज के पीछे । 'प्रहरियों को मुक्त करा दें।' संयुक्ता ने कहा । प्रहरी मुक्त किए गए। कार्षापण की मंजूषाएँ पाकर वे समझ नहीं पा रहे थे, प्रसन्न हों या .... । महाराज कान्यकुब्ज नरेश की अप्रसन्नता का दंश तो उन्हें मिलेगा ही । प्रतोलीद्वार पर चन्द सहित पाँच सामन्त पहुँचे । 'महाराज शाकम्भरीनाथ महारानी संयुक्ता को विदा कराकर लिए जा रहे है । नेगचार भी कुछ ।' कहते हुए अपने अपने अश्वों को एड़ लगाई। द्वार रक्षक चिल्लाते हुए दौड़ पड़े। प्रत्यूष काल में कुछ लोग उठने लगे थे। मंदिर की घंटियाँ बज उठी थीं। महाराज तक सूचना पहुँची। उन्होंने सेनापति को बुलवाया। उनका मुखमण्डल तमतमा उठा। जमाल से कहा 'मीरजादों को लेकर पृथ्वीराज को पकड़ो।' तब तक राव वनसिंह और केहरी कठीर आ गए। महाराज ने उनसे भी कहा, 'पृथ्वीराज को पकड़ो।' वे दोनों भी जमाल के साथ आगे बढ़े। पृथ्वीराज का दल निकल चुका था । कान्यकुब्ज दल भी आगे बढ़ा। निकट आता देखकर चाहमान दल से गोविन्द गहलौत अपने दल के साथ जमाल से मोर्चा लेने के लिए पलट पड़ा। अपने अद्भुत कौशल से उसने मीरजादों में हड़कम्प मचा दिया। मीरजादों को कटते देखकर जमाल ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। दिन चढ़ आया था। जमाल और गोविन्द दोनों अपना कौशल दिखाने लगे। जमाल का एक नेजा गोविन्द के पेट पर बैठ गया। गोविन्द ने कसकर कुन्त चला दिया । जमाल का अश्व वहीं ढेर हो गया। एक मीर की तलवार गोविन्द के सिर पड़ी। सिर धड़ से अलग हो गया।
यह दृश्य पज्जूनराय ने देखा। उन्होंने तत्काल अपने अश्व को पुचकारा और मोड़ दिया। उनके साथ भोया चन्देल, नरसिंह दाहिमा, चन्द्रपुण्डीर सहित छह सामंत भी पलट पड़े। भयंकर मार काट शुरू हो गई। दोनों पक्ष एक दूसरे को ठेलने की कोशिश करते रहे। दो प्रहर बीत गए। लोथों और रक्त से मार्ग पट गया। मीरजादों का एक वार पज्जून की गर्दन पर पड़ा। सिर कट गया। पर रुण्ड अपना काम करता रहा। कान्यकुब्ज की ओर से बाघराय बघेला और कामोद चाहमान सामंतों पर टूट पड़े । चन्द्र पुण्डीर और कामोद में ठन गई। कोई किसी से कम न था। दिन ढलता रहा। अन्त में दोनों ने कुन्त से एक दूसरे पर प्रहार किया और दोनों कट मरे । चन्द्र के गिरते ही कूरम्भ राय आगे बढ़े। टक्कर देने के लिए बाघ राय बघेला आ गए। दो घड़ी तक दोनों अपने अस्त्रों का कौशल दिखाते रहे। तलवार टूटने पर दोनों एक दूसरे के शरीर में कटार भोंक कर स्वर्ग सिधार गए। कूरम्भ के गिरते ही नरसिंह दाहिमा पंगुदल पर टूट पड़ा। कूरम्भ और पज्जून के बेटे भी पानी में किलोल करती मछलियों की भाँति अपना करतब दिखाने लगे। दोनों ओर के वीर कट कट कर गिरने लगे। सूर्यास्त होते होते हाथियों का रेला पंगुदल की ओर से आ गया। चाहमानों की ओर से कन्हदेव ने आगे बढ़ कर उन्हें तितर-बितर किया। अँधेरा होने पर युद्ध बन्द हुआ। चाहमान दल के सात सामंत खेत रहे । सामन्तों के शवों को देखकर पृथ्वीराज रो पड़े । घायलों का उपचार किया जाने लगा ।
रात्रि में सभी सामन्त विचार करने लगे। 'राजा को दिल्लिका भेज दिया जाए', चन्द ने कहा। कन्हदेव रुष्ट हो गए, कहा, 'भटवा ने हमें फँसा दिया। सेना लेकर आए होते तो यह स्थिति तो न होती। अब तो शंकर जी ही इस औघट नाव को पार लगाएँ।' तब तक पृथ्वीराज भी आकर बैठ गए। सामंतों ने उनसे कहा, 'महाराज आप प्रातः दिल्लिका के लिए प्रस्थान कर जाएँ। हम लोग एक एक कर पंगुदल से निपटते हुए स्वर्ग की राह पकड़ेंगे।
'कायरता की सीख देते हो मुझे?” महाराज रुष्ट होकर बोल पड़े। 'तुम्हें मौत के मुँह में छोड़कर मैं चुपके से निकल जाऊँ? मैं पंगुराज को पीठ दिखाकर नहीं जाऊँगा। हम साथ साथ ही युद्ध करेंगे।' 'आप और महारानी का सुरक्षित रहना आवश्यक है।' एक ने कहा।
'यदि कहीं कुछ उल्टा सीधा हो गया तो हम लोग क्या मुँह दिखा सकेंगे?" 'जीवन और मृत्यु का कोई ठिकाना नहीं। मनुष्य जब तक जिए सुकीर्ति अर्जित करे। दधीचि, दिलीप, राम, भीष्म को हम लोग क्यों स्मरण करते हैं? हम भी क्षत्रिय की आन रखते हैं। पंगुदल को ध्वस्त करके ही दिल्लिका में प्रवेश करेंगे, पहले नहीं ।'
गतिरोध उत्पन्न होते देखकर जामराय ने कहा, 'कल ही कल देखेंगे। आज महाराज की सुहागरात्रि का तो प्रबन्ध हो ।' महाराज भी चौंक पड़े। सेवक संयुक्ता के शिविर को सजाने लगे। युद्ध में सुहाग रात महाराज ने शिविर में पग रखा। संयक्ता का स्वप्न इस तरह साकार होगा, इसका अनुमान उसे भी न था । सामन्तों ने टोलियाँ बना लीं। एक घंटे एक टोली को सुरक्षा का भार सौंप कर सामन्तों ने रात काटी । प्रत्यूष काल में चन्द ने माँ शारदा की स्तुति प्रारम्भ की। संयुक्ता ने महाराज को जगाया। सभी सामन्त भी जगने लगे।
प्रकाश होते ही पंगुदल के दमामे बज उठे। पृथ्वीराज और संयुक्ता ने भी रकाब पर पाँव रखा। अन्य सामन्त भी अश्वों पर सवार हुए। आज महाराज जयचन्द्र स्वयं मैदान में आ गए थे। दोनों दल भिड़ गए। महाराज, जयचन्द्र ने बढ़ते हुए कहा, 'पृथ्वीराज को पकड़ो।' एक तीर तान कर पृथ्वीराज ने संयुक्ता से कहा, 'तेरे पिता को मैं इस तीर से यमलोक भेज सकता हूँ।'
'नहीं नहीं', संयुक्ता लगभग चीखती हुई कह गई। पृथ्वीराज ने तीर से उनके महावत को गिरा दिया। उनका हाथी विचल उठा। पृथ्वीराज बाणों की झड़ी लगा पंगुदल को तितर-बितर करने लगे। दिन बीतता रहा। शाम हुई। दोनों दल भिड़े रहे । युद्ध बन्द होने पर चाहमान सामन्त इकट्ठा हुए। महाराज से कहा, 'आप दिल्लिका की ओर प्रस्थान करें। आज दो घाव आपको दो घोड़े को, एक घाव महारानी को लगा है। हम लोगों के लिए इससे अधिक कष्ट की बात नहीं हो सकती।'
पर पृथ्वीराज कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुए। आज वे सैनिक वेष में ही विश्राम करने लगे। चन्द भी दुःखी थे पर कुछ कह नहीं सकते थे ।
तीसरे दिन प्रातः ही पंगुदल ने आक्रमण कर दिया। चाहमान दल भी प्राणों का मोह छोड़कर आगे बढ़ा। पूरा दिन बीता। शाम हुई। चाहमान दल के चौबीस सामन्त खप चुके थे। शेष सामन्त फिर इकट्ठा हुए। महाराज से फिर निवेदन किया कि वे दिल्लिका की ओर कूच कर जाएँ पर इस बार भी पृथ्वीराज क्रुद्ध हो उठे। कहा 'तुम्हें छोड़कर मैं नहीं जा सकता। मरना तो एक दिन है ही। पीठ दिखाकर क्या मरना ?' अल्प विश्राम में रात बीती । प्रातः चाहमान दल ने ऐसी व्यूह रचना की जिससे पंगुदल को आक्रमण का अवसर ही न मिला। सभी चलते ही रहे। 'पकड़ो पकड़ो' कहते हुए जयचन्द्र भी डटे हुए थे। पंगुदल को बिखरते देख कान्यकुब्ज नरेश ने मखवाल से कहा, 'शत्रु निकला जा रहा है और तू...... । यह सुन वह कुन्त लेकर हाथी से कूद पड़ा, 'कहाँ है पृथ्वीराज? मोर्चा ले।' इस पर चाहमान दल से रणवीर परिहार निकला 'अरे पेटू, मुझसे निबट', कहकर अपना कुन्त उस पर चला दिया। उसके भी पलटवार से रणवीर के भी दो टुकड़े हो गए। युद्ध चलता रहा। शाम हुई। चाहमान सामंतों ने पृथ्वीराज को मनाने के लिए चन्द को घेरा । चन्द ने कहा, 'प्रातः देखा जाएगा।'
प्रातः हुई, चन्द ने कहा, 'महाराज आपने अद्भूत पराक्रम दिखाया। आप प्रिया को लेकर सकुशल चलिए । सामन्त रक्षा के लिए प्रस्तुत है।' पृथ्वीराज सहमत हो गए। गंगा में संयुक्ता के साथ स्नान किया। संयुक्ता ने संकट निवारण के लिए गंगा से प्रार्थना की। दिल्लिका की ओर बाग मुड़ी। इतने में पंगुदल ने आक्रमण कर दिया। जयचन्द्र ने मारूफ खाँ से कहा, 'पृथ्वीराज जाने न पाए।' मारूफ खाँ दौड़ पड़ा। पर पृथ्वीराज उसके दल को चीर कर निकलने लगे। सामन्त वीरसिंह ने आगे बढ़कर मारूफ खाँ को रोका। दोनों अपना कौशल दिखा, एक दूसरे को मार कर स्वर्ग गए। पर पृथ्वीराज का निकलना सरल नहीं था, पंगुदल उन्हें घेरता रहा । विकट स्थिति देखकर हरिसिंह ने राजा को प्रणाम किया और घोड़ा पीछे मोड़ दिया। हरिसिंह के मोर्चे में पृथ्वीराज चार कोस निकल गए।
पर पंगुदल का वीरमराय जब निकट पहुँच गया तो कनक रघुवंशी ने राजा से विदा माँगी, कहा, 'भूल-चूक क्षमा करना।' वीरम और कनक में ऐसी ठनी कि पृथ्वीराज छह कोस और निकल गए। पर पंगुदल बलीभद्र के नेतृत्व में आगे आ गया। पृथ्वीराज ने निड्डुरराय की ओर निहारा । निडुर बलीभद्र का भाई था । सामना होते ही बलीभद्र ने निडुर को प्रणाम किया। दोनों ने एक क्षण एक-दूसरे को देखा। फिर भिड़ गए। दोनों के युद्ध में पृथ्वीराज आठ कोस निकल गए। बली और निड्डर के गिरते ही जयचन्द्र स्वयं आगे बढ़ गए। उनका सामना करने के लिए जब कन्ह आगे बढ़े तो पृथ्वीराज का कलेजा मुँह को आ गया । पर धग्गन राय ने कन्ह को रोक दिया। स्वयं आगे बढ़ गया। भयंकर युद्ध कर वह स्वर्ग सिधार गया। उसके गिरते ही अल्हन परिहार ने महाराज को प्रणाम कर अपना घोड़ा मोड़ दिया। रक्त की नदी बहाकर वह भी खण्ड खण्ड हो गिर पड़ा।
उसके गिरते ही पहाड़राय तोमर ने अपना घोड़ा बढ़ाकर महाराज को माथ नवाया। पंगुदल के अशोक राय से उसका सामना हुआ । अनेक लोगों को गिराकर वह भी स्वर्ग गया। अब पृथ्वीराज सोरों पहुँच गए थे जहाँ से आगे चाहमान की भूमि थी । जयचन्द्र अपने क्षेत्र में पृथ्वीराज को पकड़ न पाने से अत्यन्त दुःखी थे। उन्होंने एक बार फिर महादेव को ललकारा। वह संयुक्ता का मामा था। महादेव के आगे बढ़ते ही संयुक्ता विचलित हो उठी । चाहमान दल के नवयुवक कंचनराय ने शीश झुका राजा से आज्ञा माँगी। उसका पराक्रम देखकर महादेव एक बार सहम गया। दोनों एक दूसरे पर वार करने लगे। भयंकर कटा कटी के बीच दोनों कट मरे । पृथ्वीराज के पीछे अगम गंगा और तीन और पंगुदल। उन्हें लगा कि अब बचना कठिन है। उन्होंने माँ शारदा को स्मरण किया। पंगुदल का हम्मीर भागता हुआ पीछे से आया और पृथ्वीराज के गले में धनुष डाल कर कहा, 'कहाँ भागा जाता है?' पृथ्वीराज को संकट में देखकर सामन्त दौड़े। संयुक्ता ने कटार से धनुष की प्रत्यंचा काट दी। पृथ्वीराज ने बिना देर किए बाण चलाकर हम्मीर का कंठ बेध दिया।
पंगुदल घेरने लगा। चाहमान नरेश के सामन्त घिरने लगे। पृथ्वीराज की चिन्ता बढ़ी। उन्होंने वाणों की वर्षा कर पंगुदल को रोका। अब जयचन्द्र हाथी पर सवार हो स्वयं आगे बढ़े। उनकी दृष्टि कातर भाव से पिता की ओर देखती हुई संयुक्ता पर पड़ी। उनके मुख से निकला, 'पकड़ो पकड़ो'। पर इतना कहते ही वे स्वयं हौदे में गिरकर बेहोश हो गए। पंगु सामन्त महाराज जयचन्द्र की शुश्रूषा में लग गए। जब उन्हें चेतना लौटी तो सामन्तों ने कहा, 'महाराज, कान्य कुब्ज से यहाँ तक पीछा करते हुए हम पृथ्वीराज को पकड़ नहीं सके । अब उनके क्षेत्र में युद्ध करना अधिक कष्ट कर होगा।' जयचन्द्र की आँखों में संयुक्ता का कातर मुखमण्डल कौंध गया । उन्होंने कहा 'पृथ्वीराज, तूने यज्ञ विध्वंस कर बेटी का अपहरण कर लिया। संभवतः भगवान् ने यहीं लिख रखा था। अब तुझे जीता छोड़कर मैं जा रहा हूँ।' पंगुसेना लौट पड़ी। महाराज ने मृत सैनिको का संस्कार कराया और कान्यकुब्ज लौट पड़े ।
चाहमान दल को भी विश्राम का अवसर मिला । जंगल के बीच उन्होंने अपना शिविर लगाया । चन्द ने धावक द्वारा दिल्लिका सूचना भिजवाई।
अपने सत्तावन सामन्तों को खपाकर तैंतालीस सामन्तों एवं संयुक्ता के साथ चाहमान नरेश ने जब दिल्लिका में प्रवेश किया, मंगलगीत एवं वाद्यों से पूरा नगर झंकृत हो उठा। एक चारण ने आलाप भरा......
'पंछी उतरो द्वार दिल्लिका, रक्तन नदी बहाय ।'
संयुक्ता ने राज महिषी के पाँव छुए। महादेवी ने उसे गले लगा लिया। दोनों के नेत्र छलछला उठे ।
'जीजी, क्षमा करना' संयुक्ता के मुख से निकला ।
‘किस अपराध के लिए?' कह कर महिषी मुस्करा उठीं। संयुक्ता के अधरों पर भी हँसी खेल गई। दोनों ने एक दूसरे को देखा । अन्तर के तार जुड़े ।
'तू मेरी छोटी बहन है न?"
“हाँ।' संयुक्ता ने हामी भरी।
"फिर द्वद्ध कैसा? पांचाली पाँच पतियों के बीच सामंजस्य बिठा कर चलती रहीं । हम तो ..... ।' महादेवी कहते कहते रुक गईं।
'कहते हैं, वे पाँचो भाइयों को जोड़ती रहीं । प्रेरणा स्रोत थीं वे।' "क्या हम भी जुड़कर नहीं रह सकते?"
"क्यों नहीं रह सकते?"
'तो निश्चिन्त रहो। हम दो रूप एक प्राण, परिवार स्नेह से पलता है।'
'सच कहती हैं आप।'
'अपना अहं आड़े न जाए, तो कोई समस्या नहीं होती । कठिनाइयों की जड़ में यह अहं ही होता है। तूने बड़ा साहसपूर्ण निर्णय लिया। परिवार, परंपरा सभी के विपक्ष में खड़ा होना सरल नहीं होता।'
'मैं स्वयं नहीं जानती दीदी, ऐसा निर्णय मैं कैसे ले सकी? बालिकाओं को इतनी छूट नहीं मिल पाती। पर मेरा मन पीछे हटने के लिए तैयार नहीं था।'
'जो तूने किया, हर साहसी लड़की वैसा ही करती । जिस परिवेश में तू पली थी, उससे ऐसे ही प्रस्फुटन की संभावना थी। उस माँ को मैं नमन करती हूँ जिसने बालिका को इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ विकसित होने दिया । तू भाग्यवान है ।' महादेवी इच्छिनी ने लतिका को पुकारा। उसके उपस्थित होते ही निर्देश दिया, 'आज पूर्णिमा है। मदनोत्सव न सही, पर नव वधू के स्वागत में उत्सव तो होना ही चाहिए। तुम लोग नई महारानी को सुसज्जित करो। मैं महाराज को देखती हूँ।' महादेवी उठीं। अपने अंतः कक्ष की ओर चल पड़ीं।
राज सदन का उपवन सजाया गया। पुष्प वृक्षों के बीच दीपाधारों पर दीप जल उठे, स्नेह पूरित दीप नेह निमंत्रण देते हुए। लगता था उपवन में चमकीले तारे उग आए हों। उपवन को सजाने का दायित्व लतिका ने ले रखा। उसके पग धरती पर नहीं पड़ रहे। वह चाहती है ऐसा कुछ करना जो सर्वथा नवीन हो, पृथ्वीराज और संयुक्ता के लिए तृप्तिदायक भी। अपने दल के सदस्यों को उसने इकट्ठा किया। संगीत और नृत्य का मादक वातावरण सृजित करने के लिए उसने आपस में विमर्श किया। सभी अत्यन्त उत्साहित थीं । वीणा, बाँसुरी, मादल, मुरज, शंख, दुंदुभी और खजरी लेकर सप्त बालिकाएँ आ जुटीं । उन्हें पात्रानुसार सज्जित किया गया। सभी नृत्य कला में भी कुशल। पगों में घुंघरू बाँधे गए। अभ्यास करते हुए सभी ने अपने को आँका। उपवन में वीथिकाएँ और चतुष्पथ रेखांकित किए गए। उन पर रंगविरंगे चित्र, स्वस्तिक चिह्न । लतिका का सपना साकार हो रहा था। युगल के स्वागत का बिल्कुल नया रूप । उसने महादेवी को सूचित किया। वे भी प्रसन्न हो उठीं। उपवन के मध्य एक झूला था। उसे सज्जित किया गया। दम्पति यहाँ बैठेंगे।
महादेवी नव युगल को लेकर चलीं। पृथ्वीराज और संयुक्ता दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुस्करा उठे। आगे आगे महादेवी उनके पीछे नव युगल । महारानी उपवन द्वार तक गईं। 'जाइए, उपवन का आनन्द लीजिए।' इतना कहकर वे लौट पड़ी। संयुक्ता ने कहा 'दीदी।' 'आवश्यकता नहीं है, महाराज हैं न?' महारानी के क़दम बढ़ते ही गए। जैसे ही युगल ने उपवन में क़दम रखा, घुंघरुओं की छूम छनन के साथ ही एक युवती ने शंख बजा दोनों का स्वागत किया। शंख की ध्वनि निकलते ही सप्त कन्याएँ सप्त मोड़ों पर अपने वाद्ययंत्रों से स्वर निकालने लगीं। पूरा उपवन संगीत की स्वर लहरियों से गुंजित हो उठा। हर मोड़ पर वाद्य यंत्र लिए कन्याएँ । पृथ्वीराज और संयुक्ता मुस्कराते आनन्द लेते चलते रहे। लतिका पीछे पीछे चलती रही। चलते चलते युगल झूले के निकट पहुँच गया। दोनों झूले पर बैठे। शीतल चाँदनी उमड़ी पड़ रही थी । दीप यथावत जल रहे थे। सातो कन्याएँ युगल के सम्मुख आ गई। समूह नृत्य प्रारंभ हो गया। वातावरण रसमय हो उठा। नवयुगल के हाथ और पैर भी ताल देने लगे। नृत्य करते करते कन्याएँ उपवन के बाहर होने लगीं। लतिका भी प्रणाम कर उपवन से बाहर निकल गई। धीरे धीरे दीपाधारों के दीप भी योजनानुसार बुझने लगे। अब केवल शुभ्र चाँदनी का साम्राज्य । पृथ्वीराज ने संयुक्ता का हाथ अपने हाथ में ले लिया। ‘आज चाँदनी कितनी मादक है, प्रिये ?' पूर्णिमा है न ।' संयुक्ता बोल पड़ी। "जब दो निशिपतियों में स्पर्द्धा हो तो......।'
'दो चंदा......!'
'हाँ, एक आकाश में एक मेरे पार्श्व में' कहकर पृथ्वीराज ने संयुक्ता का गाढ़ा आलिंगन लिया। कुछ क्षण, पल बीते । फिर दोनों उठ पड़े। उपवन में अब केवल वे दोनों ही थे । पृथ्वीराज एक एक पुष्प की कथा बताते। 'यह बकुल है, उधर किनारे कर्णिकार, अमलतास की पत्तियों को छूकर देखो।' क्यारियों में बेला और जूही की शुभ धवल पंक्ति । सुंगध से महमहाता उपवन। दोनों हाथों में हाथ डाले टहलते रहे ।
कुछ समय पश्चात् फिर वही छूम छनन.....। समापन का संकेत । पृथ्वीराज और संयुक्ता दोनों लौट पड़े। हर मोड़ पर विभिन्न मुद्राओं में कन्याओं द्वारा पुनः स्वागत। फिर वही शंख, मृदंग, बाँसुरी, वीणा की ध्वनि । उपवन से निकलते ही लतिका ने सैनिक की मुद्रा में नवयुगल को प्रणाम किया। महाराज और संयुक्ता दोनों हँस पड़े ।