शाकुनपाॅंखी - 25 - तुम यही कहोगे ! Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 25 - तुम यही कहोगे !

35. तुम यही कहोगे !

चन्द चलते रहे। उन्होंने एक जंगल में स्कन्द को खोज निकाला। दोनों गले मिले। देर तक स्कन्द के अश्रु गिरते रहे। मन जब कुछ शान्त हुआ तो स्कन्द ने चाहमान नरेश के बन्दी होने की जानकारी दी। यह भी बताया कि किस प्रकार उन्हें बन्दीगृह से निकालने की योजना बनी है। दोनों भावी कार्यक्रमों पर चर्चा कर ही रहे थे कि चंचुक ने आ कर प्रणाम किया ।
'कोई नई सूचना? स्कन्द ने पूछा ।
'मंत्रिवर, सब कुछ उलट गया।' कहते हुए चंचुक रो पड़ा ।
'महाराज की आँखें निकाल ली गईं। उन्हें ग़ज़नी ले जाया गया।'
'तब तो सम्पूर्ण योजना ही असफल हो गई।' स्कन्द के चेहरे पर स्वेद कण झलक उठे । चन्द अचेत हो गए। कुछ क्षण बाद उन्हें चेत हुआ। वे रो पड़े। स्कन्द से कहा, 'आप हरिराज से मिलकर चाहमान प्रजा का हित देखें। मैं ग़ज़नी जा रहा हूँ। अब क्षण क्षण कठिन लग रहा है।' इतना कहकर चन्द उठ पड़े। एक बार पुनः स्कन्द से गले मिले । 'यदि लौट सका तो भेंट होगी।' कहते हुए चल पड़े। चंचुक ने झुककर प्रणाम किया। आशीष के लिए हाथ उठा तो कुछ देर उठा ही रह गया।
लम्बी यात्रा। टेट में थोड़े काषार्पण मन की उड़ान का कोई छोर नहीं । चाहमान नरेश की चिन्ता | क्या यही था उनके भाग्य में? हारा हुआ व्यक्ति संतोष के लिए एक सहारा ढूँढ लेता है । राजाओं की हारजीत तो होती ही रहती है पर चाहमान नरेश की पराजय क्या इतिहास की धारा ही बदल देगी? वे सोचते रहे ।
सत्ताईस दिन की यात्रा के बाद आज वे सिन्धु के तट पर पहुँचे। स्नान कर माँ शारदा को स्मरण किया। नदी पार करने के लिए किसी नौका की खोज में लग गए। एक ग्राम वासी ने बताया की आधा योजन उत्तर नदी घाट है । पाल से चलने वाली नाव वहाँ मिलेगी। दिन डूब चुका था । चन्द ने रात वहीं विश्राम किया। ग्रामवासियों ने जौ की रोटी, मस्का और गुड़ खिलाया । चन्द थके थे। नींद आ गई।
प्रातः हुई। वे घाट की ओर चल पड़े। घाट से एक नाव उस पार जाने के लिए तैयार थी। वे भी नाव पर सवार हुए। नदी का फाट चौड़ा था । पार करने में पूरा एक प्रहर लग गया। उस पार हुए। स्नान किया। माँ शारदा की स्तुति की। चाहमान नरेश के सम्बन्ध में सोचते विचारते चल पड़े। हिन्दुकुश की पहाड़ियों के बीच चलते हुए दर्रे से पहाड़ी पार किया। अनेक श्रेणियाँ एवं नदिकाएँ पार करते अन्ततः ग़ज़नी पहुँच गए। यात्रा की थकान थी ही कपड़े भी धूल धूसरित अस्तव्यस्त । बाल बढ़े हुए। मन चाहमान नरेश से मिलने के लिए आतुर । जिस समय उन्होंने ग़ज़नी में प्रवेश किया, सुल्तान चौगान खेलने के लिए जा रहे थे । चन्द भी रास्ते के एक मोड़ पर इस तरह खड़े हुए जिससे सुल्तान उन्हें देख सकें । सुल्तान जब निकट आए तो चन्द ने हाथ उठाकर कहा, 'चाहमान नरेश का राजकवि चन्द आपको आशीष देता है।' चन्द को पहचानने में सुल्तान ने देर नहीं की। पूछा, 'यहाँ कैसे?"
'आपका दर्शन करने चला आया, चन्द के मुख से निकला। पर सुल्तान को विश्वास नहीं हुआ। उसने हुजाब खाँ से कहा, 'शायर को बइज्जत ठहराओ। कल हम बात करेंगे।' हुजाब खाँ कवि को लेकर चल पड़ा। एक खत्री के घर में ठहराया। कहा, ये शाही मेहमान हैं। इनकी खातिर करो।' खत्री परिवार चन्द की सेवा के लिए उपस्थित हुआ। 'मुझे स्नान करना है। भोजन में दो रोटियाँ पर्याप्त होंगी। एक कक्ष में मुझे एकान्त चाहिए।' चन्द ने कहा । स्नान के लिए जल की व्यवस्था हुई । अल्प भोजन लेकर चन्द ने अपना कक्ष बन्द कर लिया। माँ शारदा की आराधना में लग गए। कब नींद आ गई? इसका पता नहीं चला। प्रातः खत्री परिवार पुनः उपस्थित हो निवेदन किया, ‘राजकवि आपके वस्त्र धूसरित हो गए हैं। मैं वस्त्र की व्यवस्था करता हूँ । आप स्नान कर राजकवि के अनुरूप धवल वस्त्र धारण करें।' चन्द ने स्नान किया। नवीन वस्त्र धारण कर प्रातराश लिया। हुजाब खां आ गए। राजकवि को शाही दरबार में ले गए। राजकवि के पहुँचते ही शाह ने पूछा, 'कहो चन्द तुम्हारे आने का सबब क्या है ?" पूरी सभा राजकवि को देखने लगी। 'आप जानते ही हैं कि मैं राय पिथौरा का राजकवि ही नहीं, उनका दोस्त भी हूँ। साथ ही पैदा हुआ, साथ ही पला, बढ़ा तीर्थयात्रा के लिए निकला था सोचा राजा के भी दर्शन करता चलूँ।' चन्द ने उत्तर दिया।
'सिर्फ इसीलिए इतनी दूर चले आए? यह बात गले नहीं उतरती।' सुल्तान का चेहरा चमक उठा।
'आप सुल्तान हैं। आपकी आँखें दूर तक देखती हैं। हम और राय पिथौरा साथ साथ खेलते थे। एक बार उन्होंने कहा था मैं शब्द पर तीर चलाता हूँ। इच्छा थी कि यह कला भी देखता चलूँ।' चन्द जोड़ते गए।
'यह बात मैंने भी सुनी थी। पर इम्तहान लेने का मौका नहीं मिला, अब तो वह अन्धा है। क्या कर सकेगा?" सुल्तान ने दुःख प्रकट किया।
राय पिथौरा आवाज़ पर तीर चला कर दिखाएगा। आप उससे मिलने का एक मौका दें।' चन्द ने कहा। ‘कुछ हो नहीं सकेगा लेकिन एक मौका मैं तुम्हें देता हूँ । पर शर्त यह है कि और कोई बात नहीं होगी। हुजाब, ले जाओ, शर्त के मुताबिक राय पिथौरा से मिलवा दो।' सुल्तान के कहते ही हुजाब राजकवि के साथ चल पड़ा ।
कैदखाने का दरवाजा खुला। सलाखों के अन्दर शाही कैदी आँखों पर पट्टी बाँधे लेटा है। चन्द ने प्रशस्ति गान करते हुए राजा को आशीष दिया। राजा आवाज़ पहचान गया पर टस से मस नहीं हुआ। चेहरा और कठोर हो गया। 'आपके ही हठ के कारण मैं काँगड़ा गया था । वहाँ बन्दी बना लिया गया। इसमें मेरा दोष क्या है? मैं आप से मिलने आया हूँ। बड़ी कठिनाई से सुल्तान ने मिलने का अवसर दिया।' चन्द ने आर्त होकर कहा। चाहमान नरेश थोड़ा नरम पड़े। उठकर बैठ गए।
'आप और हम साथ खेलते थे। एक अंधेरी रात में आपने कहा था कि मैं शब्द पर बाण चलाता हूँ। ‘कभी तीर चला कर दिखाऊँगा।’ ‘मैं उपवास के कारण बहुत दुर्बल हो गया हूँ। अब यह सब सम्भव नहीं है, तुम देर से आए।'
'यह चाहमान नरेश का स्वर नहीं है। मैं सुल्तान से वादा करके आया हूँ । आपको आवाज़ पर तीर चलाना ही होगा। नहीं तो हम सब झूठे हो जाएंगे।'
'हूँ', राजा ने हुंकार भरी। 'तो ठीक है यदि विधाता की यही इच्छा है तो ...... ।'
राजा ने सहमति दे दी। वे चलकर राजकवि तक आए। सलाखों के पार खड़े हो गए। हुजाब सामने खड़ा था। पृथ्वीराज ने हाथ बढ़ाया। चन्द ने उनकी उंगलियों को सहलाया। दोनों निःशब्द केवल हथेली का स्पर्श ।
‘चलता हूँ महाराज, कल......।' चन्द के मुख से निकलते ही पृथ्वीराज लौट पड़े। चन्द की पीड़ा भी चाहमान नरेश वाणी एवं स्पर्श से ही अनुभव कर सके। आँखों का काम भी हाथों से। चन्द जैसे कहीं दूसरे लोक में खो गए। क्या यही था अन्त? वे सोचते रहे। कुछ क्षण प्रतीक्षा करने के बाद हुजाब ने टोका, 'चलें।' 'हाँ चलो' चन्द ने कहा और साथ हो लिए।
सुल्तान की कौतुकी वृत्ति पृथ्वीराज की कला देखना चाहती थी। दूसरे दिन रंग शाला सजाई गई। सभासदों और जिज्ञासुओं की भीड़ । सुल्तान भी मुसाहिबों के साथ बैठे। पृथ्वीराज सबके सामने लाए गए। आँखों पर पट्टी बंधी हुई। उन्हें तीर और धनुष दिए गए। पृथ्वीराज ने धनुष तोड़ दिया। मीर ने दूसरा धनुष दिया, वह भी तोड़ दिया। वह चिढ़ गया, उसने अपना धनुष दे दिया। पृथ्वीराज ने आज़माया। कहा, 'ठीक है, इससे कुछ काम चल सकता है।' इस पर चन्द ने सुल्तान से कहा, 'यदि पृथ्वीराज की कला देखनी हो तो उनका धनुष उपलब्ध करा दिया जाए।' कुछ सभासदों ने भी समर्थन किया।
सुल्तान ने चाहमान नरेश के धनुष को उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। उनका धनुष लाया गया। धनुष पाकर पृथ्वीराज भावुक हो उठे। उसे छाती से लगा लिया। दर्शकों की दृष्टि उन पर टिक गई।
हुजाब ने सुल्तान से अर्ज़ किया, 'हुजूर, इस चन्द का कोई भरोसा नहीं। राय पिथौरा से जाने क्या करा दे। होशियार रहने की ज़रूरत है हुजूर ।' सुल्तान हँस पड़े, 'पूरे इन्तजामात हैं, परीशान न हों।' हुजाब, चन्द के निकट जा कर खड़ा हो गया। 'राजा शब्द पर वाण चलाएगा पर हुजूर, हुक्म आपको देना होगा। किसी दूसरे का हुक्म वह न मानेगा।' चन्द ने हाथ उठाकर कहा ।
मैं जानता था चन्द कि तुम यही कहोगे। कोई हर्ज नहीं, मैं ही हुक्म दूँगा।' सुल्तान ने अपने दो विश्वस्त सैनिकों की ओर देखा। उनके बगल में सुल्तान की कपड़े से ढकी आदमकद मूर्ति थी । सुल्तान को जोखिम उठाने में भी आनन्द आता था । उन्होंने जैसे ही हुंकार भरी, पृथ्वीराज तीर तान कर खड़े हो गए। दूसरी हुंकार पर तीर को कस कर खींचा और तीसरी हुंकार होते ही छोड़ दिया। पर सुल्तान तेजी से बग़ल हुए। आदमकद मूर्ति को आगे कर दिया गया। तीर मूर्ति के होठों को चीरता हुआ धँस गया। पर आवाज़ से पृथ्वीराज ने जाना कि तीर किसी मूर्ति में लगा है। स्थिति भाँपते हुए चन्द दौड़कर पृथ्वीराज के निकट गए। अपना पेट चाक कर कटार पृथ्वीराज को पकड़ा दी। उन्होंने अपना पेट चाक कर लिया। दोनों की ओर लोग लपके। पर वे पहले ही शरीर छोड़ चुके थे ।
'खुदा कर शुक्र है, सुल्तान बच गए', लोग कहते रहे। सुल्तान अपनी दानिशमंदी पर मुस्करा रहे थे।