31. पता नहीं कौन भेदिया निकल आए ?
अजयमेरु पर अपना कब्ज़ा जमा फौज के एक हिस्से को वहां रोककर सुल्तान अपने सिपहसालारों के साथ दिल्लिका पहुँच गया। शहर में लूट मच गई। इन्द्रप्रस्थ में सुल्तान की फ़ौजों ने अपना शिविर लगाया। मंदिर और मिहिरपल्ली की वेधशालाएँ ध्वस्त कर दी गई। कुहरम और समाना में कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में फ़ौजों का एक बड़ा दल व्यवस्था देखने के लिए नियुक्त किया गया। दिल्लिका का शासन कन्ह के बेटे को सौंप दिया गया। पर अजयमेरु में गोविन्द और दिल्ली में कन्हपुत्र मात्र कठपुतली थे । असली सत्ता सुल्तान के सिपहसालारों के पास थी।
मंदिरों के तोड़फोड़ और लूट जनता में आक्रमणकारियों के प्रति जुगुप्सा का भाव बढ़ता गया । इन्द्रप्रस्थ जिसे पाण्डवों ने बसाया था, कई बार बसा, उजड़ा, इस समय सुल्तान की फ़ौजों का शिविर स्थल था । दिल्लिका जिसे तोमरों ने आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बसाया था, अनेक उतार चढ़ाव का शिकार हुई । बारहवीं सदी में चाहमान शासक विग्रहराज के चरण दिल्लिका की धरती पर पड़े। तभी से चाहमान ही दिल्लिका पर शासन करते रहे। चाहमान की पराजय से दिल्लिका श्मशान नगरी लग रही थी। सुल्तान के सैनिक समूहों में घूमते। सोने, चांदी, जवाहरात ही नहीं, सैन्यबल के लिए भोजन सामग्री की भी लूट मचाते। नगर के बहुत से लोग अगल-बगल के गाँवों में शरण लिए हुए थे। चाहमान समर्थकों का एक बड़ा वर्ग बागी बन गया था। वह जंगलों, दूरस्थ दुर्गों में अपनी बैठकें करता, रणनीति बनाता पर अभी निर्णायक पहल के लिए अपने को सक्षम नहीं पाता। अनेक नागरिक जो तराइन युद्ध को खेल समझ रहे थे, मंदिर तोड़कर मस्जिद बना दिए जाने से दुःखी थे। पर घोड़ों की टाप के आगे उनकी भावनाएँ दब जातीं ।
नगर में डुग्गी पीटने वाले बता रहे थे कि सुल्तान बहुत रहमदिल हैं। उन्होंने अजमेर की गद्दी पृथ्वीराज के बेटे गोविन्द और दिल्लिका की गद्दी कन्हदेव के बेटे को सौंप दी है । सुल्तान के साथ रहने में ही अवाम की भी बहबूदी है।
डुग्गी पीटने वाला जैसे ही एक मोड़ पर पहुँचा, एक दिमाग का ढीला भट जिसका एक पैर युद्ध में कट चुका था पूछ बैठा, पर मंदिर क्यों तोड़े जा रहे हैं भइए?' 'मैं गुलाम हूँ, जो हुक्म है, उतनी ही बात कर सकता हूँ?' डुग्गी वाला कह हुए आगे बढ़ गया? कोई दिमाग़ का दुरुस्त आदमी सवाल करने की स्थिति में नहीं था। सत्ता व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है। सुल्तान की सत्ता आ जाने पर अनेक लोग अपना हित देखते हुए उसके साथ जुड़ने लगे । सामन्तों के साथ प्रजा का भी विभाजन हो जाता । जनता समूहों में बंट जाती ।
जिनका सब कुछ लुट जाता, वे भी विरोध करने की स्थिति में नहीं होते। इसे वे अपनी नियति मान लेते। अनेक लोग मौत के घाट उतार दिए गए। कितनी लड़कियों को क़ैद कर ग़ज़नी के लिए रवाना कर दिया गया। कितने ही युवक गुलाम बना दिए गए।
नगर में सुल्तान के सैनिक रात दिन चौकसी करते । गलियारे, वीथिकाएँ घोड़े की टाप से निरन्तर प्रतिध्वनित होतीं । नृत्य गान सब कुछ बन्द ।
सुल्तान ग़ज़नी कूच कर गए हैं, कुतुबुद्दीन ऐबक को कार्यभार सौंपकर । किमामुल मुल्क रुहुद्दीन हम्ज़ा रणथम्भौर के किले में अड्डा जमा चुके हैं। पण्यशालाएँ खुलने लगीं। लोग कब तक बन्द रखते? मूल्यवान मूर्तियों को लोग छिपाते फिरते ।
धीरे धीरे लोगों का आना जाना शुरू हुआ। पर अब भी कोई खुलकर किसी से बात नहीं करता। पता नहीं कौन सुल्तान का भेदिया निकल आए ? जिन लोगों ने सूचनाएँ देकर सुल्तान की सहायता की थी, वे भी गोविन्द और कन्ह पुत्र को गद्दी देने से बहुत खुश नहीं हुए पर सुल्तान की दृष्टि दूर तक जाती है। जो पृथ्वीराज का खाकर उनका न हुआ वह सुल्तान का कब होगा? वे सोचते ।
आँधी की तरह तराइन की घटना ने जनमानस को प्रभावित किया । धार्मिक और सांस्कृतिक हस्तक्षेप ने जनता को सोचने के लिए विवश किया। वह भी अपनी पहचान के लिए सजग होने लगी। अनेक लोगों के सिर कलम कर दिए गए पर उन्होंने इस्लाम कबूल न किया । पर कुछ ऐसे भी थे जो उसी में घुलमिल गए।
32. मैं चला
हाहुली राय तराइन के मैदान में वीरगति पा गए। यह सूचना कांगड़ा पहुँची । हाहुली के पुत्रों ने महाकवि चन्द को छोड़ दिया। उन्हें पृथ्वीराज के बन्दी होने की सूचना भी मिली। वे दुःख के पारावार में डूबने उतराने लगे। पृथ्वीराज के बाल सखा थे। सुख-दुःख के अन्तरंग साथी। सुल्तान पृथ्वीराज को मुक्त करेगा या नहीं, यही सोचते वे वहाँ से चल पड़े। खाने-पीने की कोई सुधि नहीं । वे अपना अश्व दौड़ाते दिल्लिका पहुँचे। नगरी उजाड़ लग रही। कहीं भी खिलखिलाते चेहरे नहीं ? क्या यह वही दिल्लिका है?
वे भागते हुए शारदा मंदिर पहुँचे। पर यह क्या? मंदिर ध्वस्त हो गया है । मूर्ति तोड़कर लोग ले गए हैं। कुतुबुद्दीन के सैनिक जगह जगह घूम रहे हैं । दुःखी मन से वे अपने आवास की ओर मुड़ गए। घर में पत्नी उन्हें देखकर सहम गईं। बढ़े हुए केश, अस्तव्यस्त वस्त्र, असहज मुखमण्डल, कवि कितना बदल गया है? जिनसे चाहमान नरेश का सूत्र मिलता, उनमें से कोई नगर में नहीं था । केवल सुल्तान के पक्षधर ही इधर-उधर दिखाई पड़ते ।
बिना सिर पैर की किंवदंतियां सुनाई पड़तीं । चाहमान नरेश के बारे में जानने के लिए उन्होंने कन्ह पुत्र से सम्पर्क साधा पर वह भी बहुत कुछ नहीं बता सका। उन्हें यह अवश्य ज्ञात हो गया कि गोविन्द और कन्ह पुत्र सुल्तान की कठपुतली बन गए हैं ।
स्कन्द, हरिराज किसी के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। वे दिल्लिका के निकटस्थ वनों में भी घूमे। एक भट से ज्ञात हुआ कि हरिराज, स्कन्द मिलकर विद्रोह की कोई योजना बना रहे हैं पर उनके स्थान के सन्दर्भ में वह भी कुछ बता नहीं सका। जो सुल्तान के प्रति विद्रोह करना चाहते थे उनमें से अधिकांश भूमिगत हो गए थे।
घर पर ही माँ शारदा की स्तुति की । भाव विहवल चंद महाराज से मिलने के लिए आतुर थे । महाराज को अजयमेरु ले जाया गया था इतना उन्हें ज्ञात था पर इसके बाद क्या हुआ? यह कोई बता नहीं पा रहा था। कहीं न कहीं कोई सूत्र मिलेगा ही । यदि महाराज जीवित हैं तो उनसे सम्पर्क करना ही है, कठिनाइयाँ चाहे जितनी आ जाएँ। दिन रात लगकर 'रासउ' में कुछ जोड़ा। जल्हण को बुलाया। देश-काल का ऊँच-नीच समझाया। लिखी पुस्तक के कुछ पन्ने उलट कर देखा । उलटते पलटते उनकी आंखों में आँसू आ गए। जल्हण भी विचलित हो उन्हें देखता रहा । चन्द की पत्नी ने चंद को रोकना चाहा, 'संकट में घर रहो।' 'कैसा घर ? चाहमान नरेश के साथ ही जीवन की डोर बंधी है।'
चन्द ने जल्हण के हाथ पर पोथी रख दी। 'इसे संजो कर रखना। मैं चला ।' कहते हुए चन्द उठ पड़े।