मौत पर विजय Rajesh Rajesh द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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मौत पर विजय

जब भी नंदू को कोयले की खदान से छुट्टी होने के बाद घर आने में देर हो जाती थी, तो उसके दादा जी रामलाल अपनी छड़ी टेक टेक कर कोयले की खदान के पास बने एक चबूतरे पर बैठकर नंदू का इंतजार करते थे।

अपने बहू बेटे की मौत के बाद नंदू रामलाल के जीने का इकलौता सहारा था। जब नंदू दो बरस का था, तब गांव में बाढ़ आने के कारण पूरा गांव बर्बाद हो गया था, इस प्रकृति आपदा में बहुत से लोगों की जान चली गई थी, उन लोगों में रामलाल का बेटा बहू भी थे, रामलाल की पत्नी अपने बहू बेटे की मृत्यु से तीन वर्ष पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी।

नंदू का जिस दिन अवकाश होता था, तो वह शाम को सप्ताहिक बाजार में दादा जी के साथ जरूर घूमने जाता था। सप्ताहिक बाजार घूमते हुए उसे अपने बचपन के वह दिन याद आ जाते थे, जब उसके दादाजी उसे अपने कंधे पर बिठाकर बाजार घूमते थे, और नंदू की पसंद की चीजें उसे खिलाते थे। नंदू को सबसे ज्यादा दूध जलेबी प्रसंद थी।

इसलिए उसके दादा जी सप्ताहिक बाजार का इंतजार नहीं करते थे, उन्हें जब भी मौका मिलता था, वह नंदू के लिए दूध जलेबी जरूर खरीद कर लाते थे।

कोयले की खदान के सारे मजदूर जिस कॉलोनी में रहते थे, उस कॉलोनी के बीच में बहुत बड़ा मैदान था। उस मैदान में काॅलोनी के लोग शादी समारोह करते थे, होली जलाते थे होली खेलते थे और अन्य त्योहार भी उस बड़े मैदान में मिलजुल कर मनाते थे।

शाम को कोयले की खदान की छुट्टी होने के बाद सारे मजदूर खाना खाकर इकट्ठा होकर उस मैदान में बैठते थे, और पूरे दिन की बातें करते थे।

और जब कभी सबका नाच गाकर और मनोरंजन करने का मन होता था, तो नंदू को गाना गाने की जरूर कहते थे, क्योंकि नंदू की बहुत सुरीली आवाज थी। लेकिन नंदू गाना गाने से पहले सबसे कहता था कि "पहले दादा जी से कहो मेरी तरफ पीठ करके बैठ जाएं, क्योंकि दादा जी को देखकर मुझे गाना गाने में बहुत शर्म आती है।"

नंदू और उसके दादा रामलाल बहुत सुख शांति से अपना जीवन कोयले की खदान के मजदूरों के साथ जी रहे थे।

एक दिन दोपहर को नंदू के दादा रामलाल जैसे ही अपनी थाली में खाना परोस कर खाना खाने लगते हैं, तो उनके घर के आस-पास तेज तेज शोर-शराबा होने लगता है, कि कोयले की खदान में कुछ मजदूर फंस गए हैं।

रामलाल खाने की भरी हुई थाली छोड़कर तुरंत अपनी छड़ी टेक टेक कर जल्दी-जल्दी कोयले की खदान के गेट पर पहुंचते हैं। और कोयले की खदान के पास बने चबूतरे पर बैठने की जगह अपनी कमजोर टांगों पर खड़े होकर अपने पोते नंदू का कोयले की खदान से सुरक्षित बाहर आने का इंतजार करने लगते हैं।

सारे मजदूर के कोयले की खदान से बाहर आने के बाद पता चलता है, कि तीन मजदूर कोयले की खदान में लापता हो गए है। उनमें रामलाल का पोता नंदू भी शामिल था।

कोयले की खदान के मजदूर उनके परिवार वाले और नंदू के दादा जी के बहुत देर इंतजार करने के बाद लापता तीन मजदूरों में से दो मजदूर कोयले की खदान में मृतक मिलते हैं। लेकिन कोयले की खदान में लापता नंदू बहुत ढूंढते से भी किसी को नहीं मिलता है।

नंदू के लापता होने के बाद नंदू के दादा जी रोज शाम को कोयले की खदान की छुट्टी होने से पहले कोयले की खदान के पास बने चबूतरे पर बैठ जाते थे, और कोयले की खदान की छुट्टी होने के बाद मजदूर जब खदान से बाहर आते थे, तो एक एक मजदूर को अपनी बूढ़ी आंखों से बड़े ध्यान से देखते थे, कि इनमें मेरा पोता नंदू कहां है। और जब सारे मजदूर कोयले की खदान से बाहर आ जाते थे, तो नंदू के दादा जी रामलाल अपनी छड़ी टेक टेक कर निराश उदास अपने घर आ जाते थे।

उनके अकेलेपन और उनकी उदासी को कम करने के लिए कोयले की खदान के मजदूर उनके परिवार वालों उनका पहले से ज्यादा ध्यान रखने लगे थे।

इसलिए एक रात गर्मियों के मौसम में कुछ मजदूर कॉलोनी के बड़े आंगन में रामलाल जी को अपने पास बिठा कर अपनी अपनी आवाज में नंदू की याद में वह गाने सुनाते हैं, जो गाने नंदू गाया करता था, और नंदू के पसंद की दूध जलेबी नंदू के दादा जी के साथ मिल बैठ कर खाते हैं।

ज्यादा रात होने की वजह से कोयले की खदान के मजदूर दादा जी को अकेले घर नहीं जाने देते हैं। और उनकी चारपाई अपने पास लगाकर वही सुला लेते हैं।

रात के तीन बजे रामलाल के कानों में गानों की आवाज आती है। जैसे कि कोई उनकी कान के पास बैठकर बड़ी मधुर आवाज में गाने गा रहा हो।

और वह नींद से जाकर देखते हैं, तो नंदू उनकी चारपाई के पास बैठकर उन्हें अपनी सुरीली आवाज में गाने सुना रहा था।

उस रात के बाद नंदू की आत्मा अपने दादा जी के पास रोज रात को आने लगती ह। और रात को घंटो नंदू की आत्मा अपने दादा जी के साथ समय बिताती थी।

धीरे-धीरे यह बात पूरी कॉलोनी में फैल जाती है, सब लोग यह सोचते हैं, कि पोते की मौत के गम में नंदू के दादी जी पागल हो गए हैं।

लेकिन रोज नंदू से मिलने से रामलाल के जीवन में दोबारा खुशियां और बहार आ गई थी।

दादा पोते का इतना सच्चा प्रेम था, की मौत भी दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं कर पाई थी।