भाग 24
निकाह के बाद की जो रातें मोहब्बत के आगोश में बीतनी चाहिये थीं वो रातें नश्तर के माफिक चुभन दे रही थीं। उसे नही पता था सुहागरात पर पड़े हुये गुलाब के फूल काँटों में बदल जायेंगे। उसकी महक और जाज़िफ आराईश इतनी जल्दी बदसूरत हो जायेगी। ख्वाबों में सलीके से तराशी गईं, सभी तस्वीरें मिटने लगेंगी। हवाओं में तितलियों सा उड़ना, नदियों सा बह जाना एक ख्वाब ही रह जायेगा। उसकी चाहतें उसके अहज़ान का अस्बाब होंगीं। वह खुद को एक बदनसीब की तरह देख रही थी।
जिस्मानी तौर पर किसी भी हाल में, किसी भी हालात में जबरदस्ती एक हो जाना खौलते हुये लावे की तरह होता है जो जहाँ गिरता है उसे राख कर देता है। यही बजह थी फिज़ा उसमें झुलसने लगी थी।
सुबह जब वह उठ कर बाहर आई तो उसे ऐसा लगा जैसे काजल की कोठरी से निकली हो और जिस्म पर उसके निशान लग गये हों। उसकी तबियत भी नासाज़ लग रही थी। उसने बाहर आने से पहले दुपट्टा सिर से ओढ़ लिया था। ताकि बेअदबी न हो।
रात भी उसने खाना नही खाया था। पेट में चूहे दौड़ रहे थे। यही सोच कर किचन में चाय बनाने के लिये पहुँची तो वहाँ पर अफ़साना भाभी साहब पहले से मौजूद थीं। उनके बच्चे जल्दी स्कूल जाते थे। उन्ही के टिफिन के वास्ते वह घर में सबसे पहले उठती थीं।
वह फिज़ा को देख मुस्कराईं। शायद ये बात-चीत शुरु करने का अच्छा ढंग होता है। फिर उन्होने कल वाली बात छेड़ दी- " फिज़ा तुम अभी यहाँ नई हो जल्दी ही यहाँ के तौर-तरीके सीख जाओगी। अगर किसी भी बात को दिल पर लोगी तो जी नही पाओगी। इससे अच्छा है खुद को यहाँ के माहौल में ढ़ाल लो।"
"भाभी साहब,, मेरी खता क्या है?"
"दुल्हन, यहाँ खता से सजा नही मिलती। आवाज़ उठाने से मिलती है। अपने ख्वाबों को संदूक में दबा दो। यहाँ आरिज़ ही नही सबके सब ऐयाश हैं। फिर भी कोई खुद को आसिम नही मानता।"
फिज़ा उनकी बातों से और ज्यादा इज़्तिराब में आ गई उसने कई बार अपने दुपट्टे को ऊँगली से मरोड़ा। लगे हाथों वह कल हुई कार वाली बात, भाभी साहब को बताना चाह रही थी फिर न जाने क्यों उसकी हिम्मत नही हुई। उनका जीने का तरीका बनावटी ही सही मगर वह खुशी से जी तो रही थीं भलें ही वह खुशी झूठी हो फिर भी ये उनकी मजबूरी थी या नजरिया कहा नही जा सकता।
"चाय पीनी है आपको? मैं बना रही हूँ। जाओ आप जब तक बैतुल खला से फारिग हो लो।" भाभी साहब ने बड़े ही अपनेपन से कहा।
"थैंग्यू भाभी साहब, फिज़ा को लगा जैसे किसी ने उसे नियामत दे दी हो। क्यों कि जब से वह इस घर में आई थी चाय पूछने तो दूर किसी ने भी तमीज से बात नही की थी। सिवाय बच्चों को छोड़ कर। अफसाना के दो बेटियाँ थी और फरहा के एक बेटा और एक बेटी। स्कूल से आने के बाद वो लोग फिज़ा के कमरें में दौड़ आते थे। वक्त मिलते ही फिज़ा के ईर्दगिर्द चक्कर काटते रहते थे। अफ़साना की बेटी सबा ने अपने स्कूल के सारे प्रोजेक्ट फिजा़ से ही बनवाये थे। इसलिये उनके बीच काफी करीबियत हो गयी थी।
बड़ा गुरुर था इस घर के लोगों को अपने रसूख का, अपनी रईसी का। आज मौका अच्छा था। वह अफसाना से कुछ जरुरी बातें पूछ सकती थी। सुहागरात वाली रात अटैची किसने रखी थी? और चोरों की तरह गायब क्यों हो गया?
"भाभी साहब एक बात पूछूं आपसे?" इतना कहते ही उसने सब पूछ डाला? अफसाना पहले तो खामोश हो गयी फिर ठंडी साँस लेकर बोली- "आरिज़ के बड़े भाई जान पर कभी यकीन मत करना फिज़ा। वह बाहर से कुछ और मगर अन्दर से गलीच किस्म के इन्सान है।"
"आपके शौहर हैं वो" फिज़ा ने उजलत में कहा।
" हाँ,, हमारे शौहर हैं, ये हमारी बदकिस्मती है फिज़ा, और उस रात आपकी अटैची पहुचाँने भी वही आये होगें। हमें पूरा यकीन है। हर औरत को देखते ही नियत खराब हो जाती है उनकी।"
"उफफ,,, भाभी साहब! ये क्या कह रही हैं आप? कैसे सहती हैं आप ये सब?"
"अब आपको भी सहना पड़ेगा फिज़ा। इस खानदान की रवायत ही ऐसी है।" अफ़साना ने निहायत ही बुझे हुये लब्ज़ों मे कहा।
अफ़साना से बात करने के बाद फिज़ा को बहुत दुख हुआ था। वह उनके अहज़ान से बहुत चिन्तित हो गयी थी।
बेशक वह इस घर की दुल्हन है। मगर नाइन्साफ़ी बर्दाश्त करना मुमकिन नही होगा। कल वाली बात तो उसने भूलने की सोची थी मगर भाभी साहब से बात करने के बाद ऐसा करना मुश्किल लग रहा था। अगर महीने भर में ही इन लोगों की ज़हनियत का पता चल गया तो आगे जिंदगी कैसे कटेगी? कैसे तालमेल बिठा पायेगी वह इन लोगों के साथ? और अफ़साना भाभी साहब के लिये वो क्या कर सकती है? ऐसे तमाम सवाल थे जो अपना पुख्ता जवाब ढ़ूँढ़ने की जद्दोजहद में लगे थे।
आज उसे पहली मर्तबा किसी से बात करके अच्छा लग रहा था। उसके कई सवालों के जवाब मिल गये थे। मगर अपनी अम्मी जान के कहे लब्ज़ उसके कानों में गूँज रहे थे -'औरत का काम घर को जोड़ना होता है। तोड़ना नही।
उसने दिल ही दिल में फैसला कर लिया- 'हालात जैसे भी हों, वह लड़ने से पहले तालमेल बिठाने की कोशिश करेगी और अपने वालदेन का सिर झुकने नही देगी।'
आज फिज़ा के वालदेन के घर से बुलावा आया था। सबका डिनर वहीँ था। आरिज़ के साथ-साथ घर में सभी लोगों को न्योता भेजा गया था। बजह कोई खास नही थी बस मुलाकात का बहाना था। मिलने- मिलाने से नजदीकियां तो बढ़ती ही हैं साथ ही गलत फहमियाँ दूर होती हैं और इन्सान एक-दूसरें से मुतमईन हो जाता है।
माहौल को खुशनुमा बनाने का अच्छा मौका था। मुमताज खान ने खुद ही आरिज़ के अब्बू मियाँ को फोन पर न्योता दिया था। उन्होंने आने के लिये हामी भी भर दी थी। मगर इसी शर्त पर कि आने में देरी हो जायेगी।
फिज़ा बहुत खुश थी। निकाह के बाद वह मुश्किल से चार बार ही मायके गई होगी। आज वह जी भर के बातें करेगी। खाला भी आयेगीं उनसे भी कब से नही मिली हूँ।
उसने अपनी पसंद का बदामी रंग का रेशम की कढ़ाई वाला सूठ पहना था। जिसे उसने निकाह के बाद एक बार भी नही पहना था। आँखों में काजल और पीच कलर की लिपिस्टि में वह एकदम शहजादी लग रही थी। ये तय हुआ था आरिज़ उसे सुबह ही उसके घर छोड़ देगा और रात को डिनर के वक्त घर के वाकि लोग आ जायेगें। तभी फिज़ा साथ में वापस आ जायेगी।
आरिज़ फिज़ा को बाहर से ही छोड़ कर वापस जाने लगा। तब फिज़ा ने कहा- "आइये आरिज़,,, अन्दर आइये"
"नही अभी नही, मैं रात को देखता हूँ।" उसने निहायत ही लापरवाही वाले अंदाज में कहा।
फिज़ा के दिल में आरिज़ के लिये महोब्बत का फूल जब भी खिलता, खिलने से पहले ही मुरझा जाता था। वह हर बार दिल मसोस कर रह जाती थी। वहाँ के मर्दो की ज़हनियत में औरत की कद्र थी ही नही।
उसे लगा था अगर आरिज़, अम्मी -अब्बू के पास कुछ देर बैठेंगें तो अपने दिल की बात कह पायेंगे, और उसे भी गिला करने का मौका मिलेगा, हो सकता है रिश्तों की गाँठ मजबूत हो जाये। उसे उसकी खताओं का अहसास हो। लेकिन ऐसा कहाँ हुआ? उसने गाडी को स्पीड दी और बगैर कोई जवाब सुने चला गया।
उसके लिये फिज़ा महज एक बीवी थी जिसे जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल किया जाता है। या तो मजबूरी के वक्त, या फिर तब जब वो खुद चाहे। रिश्तों के वक़ार को समझने की समझ शायद कभी सिखाई ही नही गयी थी उसे। उसे क्या उसके भाई जान को क्या? किसी को भी नही।
शबीना ने आरिज़ की अम्मी जान को एक बार फिर से फोन किया। उन्हें वहाँ आने के लिये याद दिलाया।
क्रमश: