Mujahida - Hakk ki Jung - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 7

भाग 7
नुसरत फूफी की वैसे तो किसी से भी कम ही पटती थी मगर नूरी फूफी के अहज़ान के अस्बास से वह भी परेशान रहने लगी थीं। कुछ कहानियाँ नुसरत फूफी ने भी हमें सुनाईं थी, मगर उनकी कहानियों में हमें उतना मजा नही आता था जितना नूरी फूफी जान की कहानियों में आता था। कभी-कभी हमें लगता था जब हम और नूरी फूफीजान लिहाफ मुँह से ढ़क कर बातें करते थे तो नुसरत फूफी को अकेलापन महसूस होता था और वह थोड़ी अफ़सुर्दा हो जाती तो हमें खुशी होती थी। हम उन्हें और चिढ़ाते थे। उस वक्त हमारी सोच अब जैसी नही थी इसलिये हम नुसरत फूफी के अकेलेपन को नही समझ पाये। मगर नूरी फूफी शुरू से ही बड़ी नरम दिल रहीं। वह हमें ऐसा करने के लिये मना करती थीं और कहती थीं कि किसी को भी दुखी करना अच्छी बात नही होती है इससे अल्लाह नाराज़ हो जाता है। इसके अलावा भी नूरी फूफी ने हमें बहुत अच्छी-अच्छी बातें सिखाई थीं, जिसका मतलब हमें आज समझ में आता है।
मोहल्ले के लोगों ने घर में बहाने से आना शुरु कर दिया था और उधेड़-उधेड़ कर बातों को पूछते थे। बाल की खाल निकालते थे। कितना बचती थी उन दिनों अम्मी जान किसी से भी मिलने से? और हम समझते थे कि इतनी मेहमाननवाजी करने वाली हमारी अम्मी को जाने क्या हो गया है? क्यों वह लोगों से मिलने में कतराने लगी हैं? पहले तो ऐसी कभी नही थीं। क्या हो गया है पूरे घर को? और क्यों फूफीजान हरदम कमरें में पलंग पर पड़ी रहती हैं? जाऱो-कतार रोती हैं? न तो वह घर का कोई काम ही करती थीं और न ही बात करती थीं।
हमें समझ नही आता था कि तलाक क्या इतनी बुरी चीज होती है? जो औरत की जिन्दगी को जहन्नुम बना देती है? जहाँ से औरत चाह कर भी बाहर नही निकल पाती।
इतना खौफ़नाक होता है ये मंजर? ऐसे मंजर औरत के लिये ही बने होते हैं? क्या फूफा जान भी ऐसे ही रोते होगें? क्या वो भी इतना ही गमज़दा होगें? उनकी आँखें भी लाल हो गयी होगीं? वह भी खाना नही खाते होगें? क्या हमारी फूफी जैसा हाल होगा उनका भी??
तलाक कौन देता है ? और कैसे देता है? इस बात का ज़रा भी इल्म नही था हमें। अब आगे क्या-क्या होगा ये भी नही पता था हमें। बस हमें चिन्ता रहने लगी थी कि घर का माहौल कैसे सही होगा?
उसे ये भी याद आया, जब उसने ये सब देख कर सोचा था- 'तलाक हो गया तो हो जाने दो इसमें इतना रोने जैसा क्या है? और अब तो अच्छा ही है नूरी फूफीजान हमारे साथ ही रहेंगी अब। कितना मजा आयेगा? कितना चाहती हैं नूरी फूफी हमें? जबकि नुसरत फूफी तो बस चिढ़ाती रहती थी दिनभर। हम खूब बातें करेगें फूफी के साथ, अब वह पहले की तरहा हमारे साथ ही रहेंगीं और वो क्रोशिये वाला डायनिंग मैट हम सीख लेंगे फूफी से, जो हम अब तक नही सीख पाये। कितनी सफाई है फूफी के हाथ में?
अच्छा हुआ जो फूफी का तलाक हो गया। हमारी फूफीजान को हमारे साथ रहने से अब कोई नही रोक पायेगा। वैसे भी फूफा जान हमें ज़रा भी पसंद नही थे। हर वक्त फूफी से चिपके रहते थे। हम जरा भी बात नही कर पाते थे अपनी फूफी से।
जब नूरी फूफी अपने निकाह की तैयारी कर रही थीं तब हम खूब रोये थे और वो भी हमारे साथ रोती थीं, एक तरफ तो वह खुश होकर तैयारी करतीं तो दूसरी ओर घर की दीवारों को निहारने लग जातीं और उनकी आँख भर आती। हमें समझ नही आता था वो बेसाख्ता रोने क्यों लग जाती हैं? हम भी उन्हें देख कर रो पड़ते थे। हमें उन्हें देख कर रोना आता था और ये सोच कर भी वह चली जायेंगी और हम किससे बातें करेगें? क्रोशिया किससे सीखेगी? अकेलापन हमसे सहा नही जायेगा।
उस वक्त हमें बस इतना ही पता था कि फूफी घर छोड़ कर जा रही हैं। वो हमेशा के लिये जायेंगी या कुछ दिनों बाद वापस आ जायेंगी ये हमें नही पता था। हमें तो उनकी दूरी एक दिन के लिये भी बर्दाश्त नही थी। बस हम तो इसीलिए रो रहे थे, कि वो हमें छोड़ कर जा रही हैं।
उसके बाद वह जब भी आईं एक मेहमान की तरह ही आईं थीं। कभी एक-आत रात रूक जातीं तो कभी उसी दिन वापस चली जातीं। हर बार हमने क्रोशिया और धागा निकल कर रखा था कि अबकि तो जरुर ही सीखेगें हम, मगर हर बार रह जाता। कभी अम्मीजान की बातें खत्म नही होतीं तो कभी फूफाजान आ जाते उन्हे लेने।
तलाक के बाद फूफीजान को घर में आये हुये आठ-दस दिन ही हुये थे।
उस दिन सुबह-सुबह जब हमारी आँख खुली थी तो घर में अफरा-तफरी मची हुई थी। कोई कुछ नही बता रहा था। सब घबराये हुये घूम रहे थे। अमान करीब आठ बरस का था उस वक्त, लेकिन अड़तीस बरस का लग रहा था। जिस संजीदगी से वह अब्बू जान के ईशारों पर नाच रहा था। कितनी बार वह इधर-उधर न जाने कहाँ चक्कर लगा चुका था?
उस वक्त हमनें खुद को कितना छोटा महसूस किया था। लड़की कह कर सभी हमें बार-बार अन्दर भेज रहे थे। पर अमान को कोई कुछ नही कहता था, बल्कि उसको तो शामिल किया जा रहा था।
अब्बूजान अमान को साइकिल से इधर-उधर दौड़ा रहे थे। घर में मजमा लगा हुआ था खाला जान, खालू जान औरअब्बू जान के सभी खास, करीबी लोग आ चुके थे। वो उनके साथ मशवरे में लगे थे। सभी बुरी तरह घबराये हुये थे और अब्बूजान के चेहरे पर तो हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। हमें कुछ भी समझ नही आ रहा था कि क्या हुआ है? फूफी भी घर में दिखाई नही दे रही थीं। सब उन्हें ढूँढ रहे थे। हम भी घबरा गये थे और हमनें भी उन्हें ढ़ूढने की कोशिश की थी। हम दौड़ कर ऊपर वाली छत पर चढ़ गये थे। क्यों कि वह अक्सर मुमटी में कबूतरों को दाना डालने के लिये बैठ जाया करती थीं। पर वो हमें वहाँ भी नही मिलीं। घर के पिछवाड़े भागे थे हम, जहाँ वह अमरुद और आम के पेड़ों पर चहचहाने वाली चिड़ियों को बैठ कर घण्टों देखा करती थीं और न जाने क्या करती थीं अकेले, पर मगर वहाँ भी नही थीं। फिर हमनें एक- दो बार छुप कर मेहमान खाने में झाँका था, वहाँ फूफी तो नही मिलीं मगर अब्बू जान अपनी गीली आँखों को रुमाल से पोछ रहे थे।
नुसरत फूफी कमरें के कोने में बैठी सुबक रही थीं। हमनें उनसे पूछा तो उन्होंनें हमे कस के लिपटा लिया मगर बताया कुछ भी नही। हमने फिर उनसे बताने की जिद की, वैसे पूछते हुये हमें थोड़ा डर भी लग रहा था, मगर फिर भी हमनें पूछ ही लिया।
नुसरत फूफी हमारे सवाल से और परेशान हो गयी थीं उन्होंने नूरी फूफी का बिस्तर पकड़ कर कस के झझोड़ दिया था और कहनें लगी- "कहाँ हो आपा आप? कहाँ चली गयी हो बगैर बताये?" बस इतना कहते ही फफक पड़ी थी वो। हम भी उनके पीछे खड़े-खड़े रो रहे थे। घर के सभी लोग रो रहे थे, मगर हमारे रोने की बजह ये भी थी, कि हमें कुछ पता नही था।
तभी बेसाख़्ता ही घर का लैड लाइन नम्बर घनघना उठा था। अब्बू जान फोन पर बात कर रहे थे। उनके तास्सुरात बड़े भयानक हो रहे थे। जिसे देख कर सबकी साँसे रूकने लगीं थीं। फोन पर बात क्या हुई? ये तो नही पता मगर सुन कर अब्बूजान वहीँ जमीन पर धड़ाम से गिर पड़े थे। अम्मी जान, खालाजान और खालूजान सब उन्हे उठा कर तख्त पर लिटाये थे। होश आने पर वह चीख पड़े थे- "शबीना, अपनी नूरी नही रही। अभी कोतवाली से फोन आया था। उन्हें रेलवे ट्रैक पर एक लड़की की लाश मिली है। हमारी नूरी ही है वो....कह कर बिलख पड़े थे वो। आधे अल्फा़ज उनके मुँह में ही रह गये थे।
अम्मी जान बर्फ की सिल्ली के माफिक अपनी जगह पर जम सी गयीं। फिर काँपते हुये बोलीं-"जरूरी नही वह हमारी नूरी ही हो? पहले आप लोग जाकर देख तो आइये। अल्लाह इतना बेरहम नही हो सकता। नूरी गमज़दा है इसलिये कहीँ छुप कर रो रही होगी। घर में वह खुल कर नही रो पाती है।" फिर यकायक चिल्लाने लगी- "आप लोग जल्दी जाइये। क्या कर रहें हैं यहाँ?" बस इतना कह कर शबीना की आवाज भरभरा गयी। उसने दोनों आँखों से आँसुओं का सैलाब सा उमड़ पड़ा। आज़दार्ह से वह काँप रही थीं। खुद को ही ढ़ाढस दे रही थी।
उनका इस तरह काँपना देख कर हम बुरी तरह डर गये थे। चमन खाला ने अम्मी जान को संभाला। किचिन से जाकर पानी लाई और एक गिलास अम्मी जान को दिया और दूसरा अब्बूजान को। हमारी तो हिम्मत ही नही थी दालान में आने की। हमें याद है उस दिन हम कमरें के अन्दर ही छुपे बैठे रहे थे।
उसके बाद अब्बूजान खालूजान के साथ कोतवाली चले गये। चलते वक्त अम्मीजान ने उनकी जेब में कुछ रुपये भी ठूस दिये थे, ये कह कर- "फिज़ा के अब्बू, इसे रख लो। घर के बाहर सिर्फ पैसा ही काम आता है।" कहते-कहते उनकी आवाज़ भरभरा गयी थी और वह बिलख पड़ी थीं।
क्रमश:

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