Mujahida - Hakk ki Jung - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 1


भाग 1
तलाक .....तलाक ......तलाक....... इन तीन अल्फ़ाजों को, बिल्कुल किसी मालिकाना हक की तरह बोल कर, उसका शौहर आरिज़ कमरें से बाहर निकल गया।
जलजले की तरह आये इन लब्जों के मायनों ने उस बैडरूम में कोहराम मचा दिया था। उस कमरें के सारे काँच दरक गये और दीवारें चटखने लगीं थीं। कमरें में मौत जैसा सन्नाटा छा गया था। वह बुत की तरह बैड पर बैठी हुई थी और घुटनों को मोड़ कर सीने से लगा लिया था उसके बाजुओं का घेरा घुटनों के इर्द-गिर्द फैला हुआ था और चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। आरिज़ के इन अल्फ़ाज़ों ने उसके कानों के परदों को फाड़ दिया था। जो अभी-अभी वह कह कर कमरें से बाहर निकल गया था। "या अल्लाह...! ये हमनें क्या सुना है? ये कौन से गुनाह की सजा है? रहम कर हे! पर्वरदिगार..हम पर रहम कर..."
फिज़ा ने अपने दोनों कानों को अपने हाथों से ढ़ाँप लिया। उसे लग रहा था जैसे उफनता हुआ गर्म लावा किसी नें उसके कानों में डाल दिया हो और उसकी गर्मी से उसका पूरा जिस्म पिघल रहा हो। पूरा का पूरा बैडरुम धरती की तरह अपनी धुरी पर घूम रहा था। होंठ सिल गये थे और अब्सार से आसूँओ का रेला फूट पड़ा था।
वह गूँगी -बहरी सी हो गयी। हाथ-पाँव काँप रहे थे और दिल धड़क कर गर्दन में अटक गया था। दीवार पर लगी तस्वीरें काँपने लगी थीं और कमरे की वाकि चीजें धुँआँ-धुँआँ सा होकर आड़ी- तिरछी रेखाओं में तबदील हो गयी थीं। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा और वह पलंग पर कच्चे घड़े की तरह लुढ़क पड़ी। रोते-रोते वह बेहोश हो गयी थी और घण्टे भर बेहोश ही पड़ी रही।
जब उसे होश आया तो उसके आस-पास कोई नही था। वह चीख कर रोना चाहती थी। उसने दम लगाया मगर उसके अन्दर ताकत नही थी, जो थोड़ा सा भी रो सके। पल भर में वह कमरा भुतहा हो गया था और वह उससे डरने लगी। अब वह कमरा कमरा न होकर कोई खण्डहर जैसा था, जो खुद में गवाह था उन सभी कसैले जख़्मों का जो अभी ताजा रिस रहे थे।। अपनी ही ससुराल अजनबी सी लगने लगी। उस अजनबी जगह पर वह जिन्दा लाश के सिवाय और कुछ नही थी। चन्द मिनटों में ही सब कुछ बदल गया था।
हक़ीकत में यह एक तूफ़ान ही था। इस तूफ़ान ने उसके दिल की दीवारों को इतने जोर से झकझोरा था कि उन दीवारों की बुनियाद भी हिल गयी थी।
उसका हलक़ सूख कर चटखनें लगा था। उसे लगने लगा था अगर जल्दी से पानी न मिला तो उसका दम निकल जायेगा। उसने देखा तिपाई पर पानी की बोतल और गिलास रखा है। वह बेजान, बेसुध सी घिसक कर, पलंग के सिरहाने रखी तिपाई तक पहुँची और वहाँ रखा हुआ गिलास उठा कर थोड़ा हलक तर किया था। तब जाकर उसकी फँसी हुई साँस अन्दर गयी थी।
अब वह उस घर का पानी भी पीना नही चाहती थी। मगर जिन्दा रहना था जिसके लिये उसे ये करना पड़ा।
जैसे ही वह कुछ सोचने के काब़िल हुई उसने हालात को महसूस किया और बिखर गयी। बुरी तरह तड़पने लगी। वह बिल्कुल जायज़ तरीके से लुटी थी। एक बरस तक उसके जिस्मों ज़हन के साथ खेलने वाला और कोई नही उसका ही शौहर था जिसकी न तो वह किसी से शिकायत कर सकती थी और न ही शिकवा।
ये बलात्कार ही तो था, बस जिसको उसने बक़ायदा सर्टिफिकेट हथिया कर किया था उसी के सहारे अपने हवस की भूख मिटाता रहा और जब दिल भर गया तो उसी सार्टिफिकेट को अपनी ताकत से पामाल करता हुआ निकल गया।
वह आज उसे तलाक देकर आज़ाद हो गया था और वह एक मुज़रिम की तरह बेड़ियों से बँधी हुई थी। जहाँ एक औरत तलाक के खिलाफ आवाज नही उठा सकती थी। वह न तो तलाक दे सकती है और न ही इसे रोक सकती है। ये सारे हक़ सिर्फ मर्द के होते हैं। उसकी ताकत होते हैं और उसी के गुरूर से वह कब अन्धा हो जाता है उसे खुद नही पता होता। औरत तो हर हाल में अपनी गृहस्थी टूटने से बचाती रहती है चाहे वह हिन्दू हो सिख हो या ईसाई हो।
आरिज़ ने उसे तीन तलाक दिये थे जहाँ सोचने समझने का कोई मौका या दस्तूर नही होता। सिर्फ एक हथौड़ा होता है मर्द के हाथ में और उसकी चोट लगती है औरत के दिल पर। वह गिड़गिड़ती है, चिल्लाती है, यतीमों के माफ़िक भीख माँगती है- "रहम करो..मत दो हमें तलाक...हम अबला कहाँ जायेंगे?" मगर वह ये भूल जाती है कि भीख में कभी किसी को मुँह माँगी चीज नही मिलती। उसे तो वही मिलता है जो देने वाला देना चाहता है। वह चीखती रहती है, चिल्लाती रहती है मगर उस मर्द का सीना पत्थर जैसा हो जाता है जहाँ से हर आवाज़ टकरा कर वापस आ जाती है। औरत का बिलखना उसे अच्छा लगता है।
उसका धँधकता हुया कलेजा चीख-चीख कर कहने लगा-"अब ये घर उसका नही रहा, उसे तुरन्त छोड़ देना चाहिये। ये घर, ये दीवारें और यहाँ के लोग अब उसके लिये पराये हो चुके हैं। किसी से भी उसका कोई नाता नही रहा।" ये तीन अल्फ़ाज उसका सारा हक़ छीन कर ले गये थे।
सब कुछ इतना जल्दी में हुआ कि सोचने समझने का वक्त ही नही मिला। हलाकिं हालात तो पहले भी अच्छे नही थे। मगर तलाक, एक जहरीले काँटे के माफ़िक था जो हलक़ में अटक कर उसे लहूलुहान कर रहा था। न ही उस काँटें को निगला ही जा सकता था और न ही उगला। इसके ज़हर ने उसके गले में ही नही पूरे ज़िस्म में जगह-जगह सुराग कर दिये थे।
वक्त खराब हो तो आस-पास सब बुरा ही होने लगता है। बुरे ख्याल, बुरी बातें और वो सारी बुरी चीजें जो उसका रंज बढ़ा सकती थी, उसके साथ भी होने लगीं। फिर बेसाख़्ता, वो सभी हिदायतें उसके कानों में गूँजने लगीं जो शादी के वक्त उसकी अम्मी जान ने उससे कहीँ थी। हलाकिं वह सभी बातें उसे निहायती कड़वी लगीं थी फिर भी उसने अम्मी की सीख समझ कर उस पर अमल करने का फैसला कर लिया था। इस वक्त न जाने क्या-क्या उसके ज़हन से होकर गुज़र रहा था। उन्होने समझाते हुये कहा था-
"फिज़ा मेरी लाडो, ध्यान से सुन- तू जहाँ ब्याह कर जा रही है अब वही तेरा घर है और ज़िन्दगी भर तुझे वहीँ रहना है। तेरी मय्यत भी निकलेगी तो वहीं से, औरत एक बार जिस घर में एक बार ब्याह कर जाती है फिर ज़िन्दगी भर उसे वही रहना होता है।" ये बात उसकी वालिदा ने उसके चेहरे को अपने हाथों में लेते हुये कही थी।
अन्दर-ही-अन्दर फिज़ा की अम्मी शबीना को ये कहते हुये बड़ी तकलीफ़ भी हो रही थी, मगर उसे अच्छी तरह याद था उसकी अम्मी जान बताया करती थीं कि उनके निकाह पढ़े जाने के वक्त उनकी अम्मी जान यानि नानी ने भी यही कहा था और उन्होनें उनकी कही एक-एक बात को पत्थर की लकीर की तरह निभाया था और तुम्हें भी निभाना है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही सीख हर औरत अपनी बेटीयों को देती आई है। फिज़ा के दिमाग पर भी इस बात की छाप बड़ी गहरी पड़ी थी।
उसे सुन कर फिज़ा का कलेजा टूट गया था। मगर अपनी इस टूटन को उसने अम्मी जान के सामने नही दिखाया। बस यही सोचती रही थी आखिर क्यों देतीं है वालिदा अपनी बेटी को ऐसी सीख जो उसे चन्द लम्हों में ही पराया कर देती है? रिव़ाज़ो के वारे में सोच कर उसका गला कड़वाहट से भर गया। कितना बुरा अहसास था ये उसके लिये? जिसको वह किसी को दिखा भी नही सकती थी और न ही बता ही सकती थी। कौन समझता उसे? सभी तो इसके आदी होते हैं।
बस उस वक्त बचपन से लेकर बड़े होने तक का एक-एक दिन उसकी आँखों के आगे घूम गया था। कैसे अब्बू जान की पीठ पर चढ़ कर मचान से डेकची उतारा करती थी जैसे ही उसके नन्हें हाथों से डेकची फिसलती, फिर वो और अब्बू जान खूब हँसते थे, इस बात से कि अगर गिर कर उसमें पिचका पड़ गया तो अम्मी जान पूरा घर सिर पर उठा लेगीं। चूंकि वह घर के रख रखाव को लेकर बड़ी ही संजीदा थीं और उन्हें चींजें संभाल के रखने की आदत थी। अम्मी के गुस्से से अब्बू और वह दोनों डरते थे। शायद झूठ-मूठ का डरते थे इसीलिये ऐसी गुलकन्द भरी फटकार के लिये वो लोग जानबूझ कर शैतानियाँ किया करते थे।
अॅक्सर वह कमरे की बड़ी अल्मारी के अन्दर छुप कर बैठ जाया करती थी फिर जब अम्मी जान को पता लगता तो उनकी साँसे अटक जातीं, ये सोच कर कि- 'अगर दरवाजा अन्दर से कस के बन्द हो गया और न खुला तो क्या होगा?' अम्मी जान की तड़प और अब्बू जान के साथ बिताये हुये सभी खूबसूरत दिन और लम्हें आँखों के आगे तैरने लगे थे।
छाया अग्रवाल
क्रमश:




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