Mujahida - Hakk ki Jung - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 4

भाग 4
उसकी सारी जान जैसे निकल चुकी थी और वह बेसुध हो गयी थी। सिर्फ आरिज़ की अम्मी ही उसके साथ थीं, आरिज़ भी नही। वह होता भी क्यों? अब उसके साथ उसका रिश्ता बचा ही क्या था? वैसे रिश्ता तो उसकी अम्मी के साथ भी नही बचा था, मगर हालात के मद्देनजर उन्हे ये करना पड़ा था। जिसमें उनकी मर्जी शामिल नही थी। उनकी बेरुखी इस बात की गवाह थी। वैसे भी उनका होना या न होना बराबर ही था।
अस्पताल आ गया था। ड्राइवर चाचा ने अस्पताल के ठीक गेट के पास गाड़ी लगाई थी ताकि फिज़ा को उतरने में कोई दिक्कत न हो। वह अपने जानिब से पूरी कोशिश कर रहे थे कि उसे जितना हो सके तकलीफ से बचा लें, वाकि जैसी खुदा की मर्जी। वह इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते थे। वह ठहरे इस घर के एक अदने से मुलाजिम। उन्होंने फुर्ती से उतर कर झट गाड़ी का दरवाजा खोल दिया था। आनन-फानन में उसे स्टेचर पर लिटा कर अन्दर ले जाया गया।
जरूरी कागजात पूरे होने के बाद फौरन उसका इलाज शुरु हो गया था।
उसे बस इतना भर याद था डा. रेहाना ने उसे अन्दर ले जाकर उसका चैक अप किया था। बुर्के के साथ सलबार भी उतारवा दी गयी थी जो इस काबिल नही रह गयी थी कि उसे दोबारा पहना जा सके और एक इन्जैक्शन उसके बायें कूल्हे पर लगाया गया था। उसके बाद क्या हुआ उसे नही पता।
करीब एक घण्टे के बाद उसे होश आया था।
जब उसको हल्का सा होश आया तो उसे अपने निचली जगह पर तेज दर्द हुआ और चुभन महसूस हुई जिससे वह कराह उठी। उसकी कराहट में जान नही थी। इतना जरुर समझ चुकी थी कि उसका बच्चा गिर चुका है डाक्टर उसका अबार्शन कर चुकी है। बस अब पेट में उतना दर्द नही था। जितना पहले था। जिस्म कमजोर था और आँखें भी पूरी तरह नही खुल रही थीं। उसने फिर से देखने की कोशिश की। उसकी अम्मी शबीना उसके सिरहाने बैठीं थी और चमन खाला भी थी। आरिज़ की अम्मी दूर-दूर तक कहीँ नज़र नहीं आईं। फिज़ा को पूरा यकीन तो नही था कि ऐसा ही होगा? वह उसे वहाँ छोड़ कर चली जायेंगी? वो भी बिल्कुल जानवरों वाली ज़हनीयत के साथ? मगर ऐसा ही हुआ था। वह विना कुछ इन्तजार किये वहाँ से चली गयीं थी। उन्होंने ये जानने की कोशिश भी नही की थी कि बच्चे और फिज़ा का क्या हुआ होगा?
शबीना आँसू बहा रही थी, बीच-बीच में आँसुओं को दुपट्टे से पोछती जा रही थीं। चमन खाला उन्हें ढा़ढस दे रही थी- "मत रो बाजी, कब तक रोओगी?" कह कर उन्होनें कई बार गिलास से पानी पिलाने की कोशिश की, मगर हर बार उन्होनें इनकार कर दिया। इस वक्त बेटी के अहजान से वह दुखी थीं इसके अलावा उनके लिये कोई चीज मायने नही रखती थी। बेशक गला रोते-रोते चटखने लगा हो।
अब फिज़ा को भी धीरे-धीरे पूरा होश आने लगा था। उसनें जैसे ही आँखें खोली सामने अपनी अम्मी जान को देखते ही चीख कर रो पड़ी। वालिदा जब सामने हो तो जज्बातों पर किसका बस चलता है? वो तो ज्वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं और बेहताशा बेलगाम बहते जाते हैं।
उसकी आवाज से अस्पताल की दीवारें काँपने लगी थीं। कितना दर्द था उन चीखों मे? कितनी तड़प थी उस दिल में? क्यों कि ये चीखें जहन्नुम से गुजर कर आईं थीं। जिसने उसकी जहनी ताकत निचोड़ कर रख दी थी।
शबीना का कलेजा काँपने लगा उसने झट से आगे बढ़ कर उस पर औधीं होकर अपनी बाहों में भर लिया और कस के सीने से लिपटा लिया।
"चुप हो जा बच्ची, तू इस वक्त कुछ मत सोच, हम घर चल रहे हैं सब ठीक हो जायेगा।" शबीना ने अपनी लाडली को ढ़ाढस बँधाया। वेशक कह कर वह खुद फफक पड़ी थी, मगर ऐसे में वह अपना दर्द भूल गई थी। बेटी की तकलीफ के आगे वालिदा को अपनी तकलीफ कहाँ दिखाई देती है?
उसके आँसू फिज़ा के बैड की बुर्राक सफेद चादर पर नदी में आई बाँढ के माफिक गिर रहे थे। जिससे वहाँ की काफी चादर भीग गयी थी। जिन्हें वह चाह कर भी छुपा न सकी थी।
रुम नम्बर चौबिस में डराबना सा सन्नाटा था।
शाम के राउन्ड के वक्त डाक्टर ने हालात का जायज़ा लिया था और हालात की नज़ाकत को देखते हुये वह समझ गयीं थीं कि मामला कुछ ज्यादा ही संगीन है, इसलिये देर न करते हुये उन्होनें एक नींद का एक इन्जैक्शन उसकी बाहं पर लगवा दिया था। ये सोच कर कि इस वक्त उसके दिमाग पर किसी तरह का स्ट्रेस न पड़े और वह कुछ देर आराम से सो जाये।
फिज़ा फिर से सो गयी थी। वह बिल्कुल एक बच्ची की तरह लग रही थी। उसने शबीना का हाथ नही छोड़ा था। जैसे वह बचपन में सोती थी। इस वक्त वह बिल्कुल वैसी ही लग रही थी। सामने वाली बैन्च पर मुमताज खान अपनी बच्ची की हालत पर सिर झुकाये बैठे थे। कभी आँसुओं को हाथ से पोछ कर सोचने लग जाते कभी नज़र उठा कर बच्ची को निहार लेते।
न जाने कैसे अस्पताल में खलबली मच चुकी थी। फलां खानदान की दुल्हन है ये, और ऐसे हालात में? कोई ससुराल का साथ नही, क्या बात हो सकती है? लोग जानने की ख्वाहिश में अपने दुख-दर्द भूल चुके थे।
उसकी खाला चमन ने राय दी कि "जल्द से जल्द फिज़ा को छुट्टी दिला ली जाये और घर लेकर चलें। यहाँ पर लोग कानाफूसी कर रहे हैं। दूसरे, हमारी फिज़ा भी घर में राहत महसूस करेगी। एक तो इतने बड़े तूफान की चोट ऊपर से लोगों के वाहिआत सवाल। चलो बाजी डाक्टर से बात करके छुटटी ले लो। वाकि देखभाल हम घर पर कर लेंगे। कम-से-कम यहाँ लोगो की जहालियत से तो बचेगें"
ये बात उन्हे भी जँच गयी। वैसे भी फिजा़ के वालदेन इस हालत में नही थे कि कुछ सोच विचार पाते। वो तो खुद ही टूटे हुये थे। ऐसे में जब खुद का दिमाग काम न कर रहा हो तो दूसरे की राय बड़ा काम आती है, बशर्ते वह आपके भरोसेमंद हों।
उन्होने फौरन छुट्टी की अर्जी लगा दी।
पहले तो डाक्टर ने छुट्टी देने से साफ मना कर दिया। फिर बार-बार कहने पर उन्होंने कुछ हिदायतें और देखभाल की सलाह के साथ छुट्टी दे दी- "देखिये खाँ साहब, बच्ची की हालत ठीक नही है। खून काफी बह चुका है अगर दो दिन यहाँ रहेगी तो अच्छी तरह से रिकवरी हो जायेगी। फिर भी अगर आप लोग घर ले जाने की जिद कर ही रहे हैं तो ध्यान रखिये पेशेन्ट के माइन्ड पर कोई स्ट्रेस न पड़ने पाये। दवायें टाइम पर देते रहिये, और हाँ जितना रैस्ट मिलेगा अच्छा रहेगा।"
"ठीक है डाक्टर साहब, आप जैसा कह रही हैं हम वैसा ही करेंगे। हम तो अपनी जान भी निकाल देंगे अपनी बच्ची के लिये, बस ये जल्दी से अच्छी हो जाये। हम आखिर इसके वालदेन जो ठहरे।" कह कर मुमताज खान अपने उन आँसुओं को पोछने लगे जो उनके अलावा किसी ने नही देखे थे।
मुमतान खान और शबीना ने डाक्टर की सभी शर्तों को मान लिया- "डाक्टर रेहाना, आप जैसा कह रहीं हैं हम वैसा ही करेगें, बस आप छुट्टी दे दीजिये।" शबीना ने भी लगभग गिड़गिड़ा कर कहा था।
फिज़ा को अस्पताल से छुटटी मिल गयी थी। इसे मिलना तो नही कहेंगें, हाँ जबरदस्ती दिलवाई गयी थी।
मुमताज खान और शबीना अपनी बेटी को लेकर घर आ गये। वह जानते थे इसी सदमें के कारण उसका हमल गिरा है और इसका सदमा बहुत गहरा है। वो नही जानते थे कि कैसे इससे अपनी बेटी को बाहर ला पायेंगे? मगर वालदेन अपने बच्चों की खुशी के लिये किसी भी हद से गुजर जाते हैं। कहतें हैं खुदा ने उन्हें चाहत के गढ़े में डाल दिया है। जिससे वह चाह कर भी बाहर नही निकल पाते। औलाद कितनी भी बुरी हो फिर भी उसके वालदेन उसका बुरा नही सोचते। फिर यहाँ तो वह उनकी लाडली बिटिया थी।
वैसे आरिज़ की अम्मी ने उन्हे फोन पर ही फिज़ा के तलाक की खबर दे दी थी और वो आनन-फानन में अस्पताल भागे थे। वो इतनी जल्दी में थे कि चमन के अलावा उन्होने किसी को भी इत्तला नही दी थी। आमतौर पर ऐसी खबरों को छुपाने की रवायत भी होती है। दुनिया की तौहीन का डर इन्सान के जहन में इस कदर बैठा होता है कि वह इसके इर्द-गिर्द घूमता रहता है और खुद की इज्जत बचाने के लिये खुद को ही तोड़ता रहता है। इज्जत तो उसकी जानी चाहिये जो गुनाह करता है, फिर..? दर असल शरीफ और बेगुनाह लोग इज्जत के फलस़फे खुद ही बना लेते हैं जिसका खामियाजा ताउम्र सबको भुगतना पड़ता है।
क्रमश:

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