Mujahida - Hakk ki Jung - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 5

भाग 5

दो जोड़ा कपड़े लेकर वह मायके आ गयी थी। ये दो जोड़ा कपड़े वही थे जो चलते समय आरिज़ की अम्मी ने एक बैग में रखे थे। शायद उन्होंने पहले से तय कर रखा था कि अब इसे वापस घर नही लाना है। इसके वालदेन तो आ ही रहे हैं वहीँ उन्हें सौंप दिया जायेगा।
फिज़ा का नकाब आँसुओं से भीग-भीग कर तर हो चुका था। घर आते ही अम्मी से लिपट कर बिलख पड़ी। अब वह खुल कर रो पाई थी। दहाड़े मार-मार कर रो रही थी। घर में कोहराम मच गया। उसकी आँखों से जारो-कतार आँसू बह रहे थे। बेहिसाब सैलाब था जो रोके नही रूक रहा था। उसने कस कर अम्मी जान को जकड़ रखा था। हिचकियों ने बदन को हिला के रख दिया था। साथ में शबीना भी फूट-फूट के रो रही थी। वह कभी बेटी के माथे को सहलाती, कभी सिर के बालों को। उसे समझ नही आ रहा था ऐसा क्या करें जिससे उसकी बच्ची को तसल्ली मिल सके।
बेटी को दुल्हन बना कर विदा किया था ये दिन देखने के लिये? "अल्लाह! रहम कर... और सजा दे उस हैवान को, जिसने मेरी फूल सी बच्ची की ये हालत कर दी....रहम कर मौला रहम कर....।" फिज़ा को देख कर शबीना का कलेजा फट रहा था।
मुमताज खान सामने वाले सोफे पर लाचार बैठे थे। न तो उनकी आँख में आँसू थे और न ही मुँह में बोल। वह एकटक उन दोनों माँ बेटी को टकटकी लगा कर देख रहे थे। उनके जिस्मानी हाव-भाव एकदम लाचार से लग रहे थे। इसके अलावा एक बाप और कर भी क्या सकता है? फिर चुप्पी को तोड़ते हुये गहरी साँस ली और लब्जों को चबा कर बस इतना ही बोल पाये-
"चुप जा शबीना, मत रो, सब्र कर और इस बदकिस्मत को भी चुप करा ले। जो मंजूर है खुदा को वही होगा। नसीब का लिखा कौन मिटा पाया है?"
इतना सुनते ही शबीना चुप होने के बजाय फूट-फूट के रोने लगी- "कैसे सब्र करूँ फिज़ा के अब्बू? बोलो कहाँ से लाऊँ सब्र? और क्या समझाऊँ इस बेकसूर को? आप ही बताओ? आपके पास है कुछ ऐसा जिससे बेटी के जख़्मों पर मरहम लगा सकूँ? बोलो फिज़ा के अब्बू??"
मुमताज खान आज जिन्दगी में दूसरी बार इतना तड़पे थे। उनके पास इस बात का कोई जवाब नही दिया था उनके पास जवाब था ही नही, इसलिये वह बगैर जवाब दिये सिर झुका कर बाहर निकल गये।
मेहमान खाने में जाकर चुपचाप सोफे की पुश्त पर सिर टिका कर बैठ गये। वह गमज़दा नशीन थे। उनकी तबीयत नासाज़ थी। मर्द होने के नाते अपने आसूँओ को पी रहे थे। क्योंकि मर्द चाह कर भी नही रो सकता। अगर रो भी लिया तो वह मर्द नही। आसूँओ को पीना ही उसकी मर्दागनी बनता है, ऐसी भ्रमित सोच पुख्ता हो चुकी है।
एक बाप के लिये अपनी बेटी का गम कितना मायने रखता है ये तो एक बाप ही जान सकता है। वह अन्दर ही अन्दर बेइज्जती और रंज से घुट रहे थे। उन्होंने खुद को बद अख्त़र बाप की तरह महसूस किया। उन्होंने ख्वाब में भी नही सोचा था कि इस तरह उन्हें अपनी बच्ची को देखना पड़ेगा। उनके जहन में अपनी बहन नूरी की यादें ताजा हो गयीं। आज दोबारा वही कहानी दोहराई गयी थी। आँख बन्द करके नूरी का तसब्बुर करने लगे। अब की बार झर-झर आँसू निकल पड़े थे। "या अल्लाह! मेरी बच्ची को सही सलामत रखना। अब मैं और नही झेल पाऊँगा। क्या फिज़ा भी नूरी........? नही..नही...ऐसा हरगिज़ नही होगा, फिज़ा को नूरी नही बनने दूँगा।" उन्होनें अपने हाथ से माथे को रगड़ा और अगले ही पल उन आँसुओं को पोछने लगे। अगर इस वक्त वह टूट गये तो शबीना और फिज़ा को कौन संभालेगा?
फिज़ा को मायके आये तीन दिन हो गये थे। पूरे घर में वीरानियत पसरी हुई थी। दीवारों से लेकर फर्नीचर तक सब खामोश था। मौत जैसा सन्नाटा छा गया था। बस कभी-कभी घर में पली हुई भूरी और काली अरेबियन बिल्लियाँ मिँमया जातीं और मुँह उठा-उठा कर सबको देखतीं, जैसे वो समझ रही हों घर में कुछ बुरा हुआ है। कहते हैं जानवर को कुदरती तौर पर ये इल्म हो जाता है और बुरे की खबर उन्हें व्याप जाती है। जैसे कुत्ते का रोना भी किसी बुरी घड़ी या किसी हादसे का सूचक होता है ऐसा माना जाता है और ये बात सही भी देखी गयी है। शायद इसीलिए बिल्लियों का व्यवहार भी बदल गया था।
घर में खाना न भी पक रहा हो फिर भी उन्हें मजबूरन गोश्त मँगा कर डाला जाता। बेजुबान जानवर का ख्याल उनके अलावा और भला कौन रखता? चूंकि वह अरब से लाई गयीं थीं तो उन्हे गोश्त खाने की ही आदत थी। वैसे कभी-कभार दूध और रोटी भी डाल दी जाती।
फिज़ा जब से आई थी उसने एक बार भी उन्हें गोद में नही उठाया था। इसीलिये वो बार-बार उसके पलंग पर चढ़ जातीं और उसके करीब बैठ कर उसका मुँह तकती रहतीं। जब तक फिज़ा उन्हें अपने हाथ से सहला ना दे वो दोनों बिल्लियाँ मुँह फुला कर उसे देखती रहतीं। फिज़ा सोचती- ' जानवर इन्सान से कितना अच्छा है? जानवर होते हुये भी इन्सान को समझता है उसके अहज़ान में शरीक होता है और किसी न किसी बहाने से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। इन्सान के माफिक अहसान फरामोश नही होता। अपने पेट का भी कर्ज अदा कर देता है। फिर क्यों कहते हैं कि इन्सान कुदरत की सबसे उम्दा रचना है?
उस घर में इतना सन्नाटा पसर गया था कि पंखें की आवाज भी सन्नटे को चीरती थी या फिर जब घड़ी की सुई कलेजा फाड़ती, तो शबीना झल्लाकर कहती- "कौन सा समय बताने में लगी है तू? अब इससे बुरा समय और क्या दिखायेगी तू? थोड़ी देर खामोश क्यों नही हो जाती? अब कौन सा दिन बचा है जो तू दिखाना चाहती है?"
इस तरह घर की बेजान चीजों को फटकार लगने लगी थी। जिनसे आज तक किसी ने बात नही की उन्हे फटकार ही सही कुछ तो अहमियत बढ़ी थी। घर के गमज़दा लोग भी क्या करते? जब बेबसी मुँह फाड़ कर जब चिल्लाती है तो इन्सानी ताकत को आखरी बूँद तक नचोड़ लेती है। मंजिल दिखाई नही पड़ती और रास्ते खो जाते हैं।
उन खाली और सूखे हुये दिलों में इस वक्त कुछ नही बचा था, सिवाय खाली दीवारें ताकने के।
फिज़ा को ससुराल में बिताये हुये वो सभी पल याद आने लगे। जिनमें से ज्यादातर मनहूस ही थे। अच्छे पलों के नाम पर शुरुआती दौर के दो-चार वाक्या ही थे। जब आरिज़ उसे घुमाने ले गया था। पूरा दिन साथ में रहे थे और खाना भी बाहर ही खाया था। कई बार उसने बाहोँ में भर कर चूमा भी था। तब उसके दिल में कोई मैल नही था। ये सब बस कुछ दिन ही रहा उसके बाद जल्दी ही सब बदलने लगा था।
जिस्मानी तौर पर उसने हमेशा अपनी मर्जी चलाई थी कभी उसकी इजाज़त नही ली। शुरू में उसे, इसमें उसकी मोहब्बत नजर आई थी। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसे समझ में आने लगा था कि एक होने के लिये दोनों की रजामंदी जरूरी होती है। इसके अलावा तो उसने समझौते की नाव पर बैठे-बैठे आठ महीने गुजार दिये थे। वो भी और कितना सहती? और कब तक सहती? उन लोगों की ज़हनी बनावट ही ऐसी थी जिसे बदल पाना नामुमकिन था।
"आरिज़, क्या नही सहा मैंने आपके घर में? एक-एक कौड़ी को मोहताज कर दिया आपने। सौ-सौ रुपयों के वास्ते हाथ फैलाना पड़ता था आपके आगे, बिल्कुल किसी फ़कीर की तरह। जबकि अपनी हैसियत से बढ़ कर ज़हेज दिया था अब्बू ने आपको। आपके घर में तीन गाड़ीयाँ होने के बावजूद आपकी पसंद की गाड़ी भी दी थी। बिल्कुल वही माडल जो आपको पसंद था। बगैर ये सोचे कि उनका बजट बिगड़ जायेगा। उन्होंने सिर्फ हमारी खुशिओं के लिये अपनी पीठ पर कर्ज का बोझ लादा। अब एक और लग्जरी गाड़ी ..? कहाँ से लायेंगे अब्बू? कितनी जगह होती है आप जैसे नामुराद शौहर के पेट में? जरा भी शरम नही होती आप जैसे लोगों की आँख में? आरिज, आपके दिल की जगह पर बड़ा सा पत्थर था जो हमें पहले दिखाई नही दिया। और फिर अभी शादी को वक्त ही कितना हुआ था? एक बरस भी तो नही हुआ इतनी जल्दी दूसरी गाड़ी? पैसों का पेड़ लगा है क्या हमारे आँगन में? जो जब चाहे तोड़-तोड़ के देतें रहें?
क्रमश:

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