मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 6 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 6

भाग6
बीता हुआ एक-एक लम्हा, किसी खौफ़नाक मंजर के माफिक उसके सामने से गुजरने लगा।
आँखों को अश्कों से डुबोती हुई फिज़ा बैड पर बैठी हुई सिसक पड़ी। अब तो उसका काम बात- बात पर सिसकना ही रह गया था। ये वक्त की नज़ाकत थी कि दिलासा जैसे लब्ज़ अन्दर जाते ही नही थे।
जो तस्वीरें उसके आस-पास उभरतीं उनमें आरिज़ का चेहरा सबसे ऊपर रहता था। उसके दिल में आरिज़ के लिये ये नफरत थी या चाहत इसका सही-सही अन्दाजा लगाना तो मुश्किल था, मगर ये तय था कि ये चाहत तो हरगिज नही हो सकती। चाहने के लिये एक दूसरे को समझना और नजदीकियों का होना बहुत जरुरी है जबकि वो तो उनके बीच कभी रही ही नही। रहा सवाल नफरत का? तो नफरत करने का वक्त ही नही मिल पाया था। एक दम बज्रपात जो हुआ था और ऐसे में दिल और जहन दोनों सिफर हो जाते हैं। बस केवल टूटने की धमक सुनाई पड़ती है, आइने की चूर-चूर हुई किरचों की तरह, जिसमें हजारों चेहरे बस मुँह चिढ़ाते हैं। उसमें न तो पूरा चेहरा ही दिखता है और न ही वो अपना अक्स छोड़ता है।
उसे भ्रम हुआ सामने वाले सोफे पर एक शख्स बैठा हुआ है वह उसका शौहर आरिज़ है। अगले ही पल उसने खुद से कहा- "आरिज़? वो यहाँ क्यों आयेगा? ये तो उसका घर नही है। ये तो मेरा......? नही ...नही... ये तो अम्मी अब्बू का घर है। दिनों-रात यही बातें घूमते-घूमते उसके जहन में कहीँ गहरे बैठ गयी थी। बस यही बात सोच कर फिर से उसके आँखों से आसुँओं की धार बह कर उसके गर्दन को भिगोनी लगी।
बात-बात पर और बिना बात के ही रो देना उसकी आदत में शुमार हो गया था। वह इन तीन दिनों में इतना रोई थी कि सोते-सोते भी हिचकियाँ आ जातीं और वह घबराकर उठ बैठती। उसने अपने बाँय हाथ को धड़कते हुये दिल पर रखा, खुद को ढ़ाढस बँधाने लगी थी। उसकी बँधी हुई हिचकियों को सिर्फ दीवारें ही थीं जो देख और सुन रही थीं। इस वक्त वह अपने कमरें में सिर्फ अपनी बदनसीबी के साथ थी। शबीना किचिन में उसके लिये जर्दा पका रही थी। फिज़ा कुछ मीठा खायेगी तो उसका दिल अच्छा होगा, यही सोचा था शबीना ने।
फिज़ा घर में जब आस-पास कोई नही होता तभी रोती थी। वैसे छुप कर रोना इतना आसान नही होता। दम घुटता है। साँस लेना मुहाल हो जाता है। ऐसे में वह अम्मी -अब्बू को दुखी करना नही चाहती थी। उनकी जिन्दगी का ये मुहाना ऐसा नही था जहाँ वो लोग गमों को बर्दाश्त कर सकें।
यही सोच कर फिज़ा ने खुद को एक कमरें के अन्दर समेट लिया था। दिन भर वही पड़ी रहती। लोगों का मिलना -जुलना उनसे आँख मिलाना बेइज्जती भरा लगता था। उसे लगने लगा था आस-पड़ोसी मिलने नही बल्कि उसकी टोह लेने आ रहे हैं। फूफी, चाची और ताया सब के चेहरे पर नकाब चढ़े हुये हैं, जो सामने कुछ और पीछे कुछ और हो जाते थे। वो लोग बस ऐसे मौकों पर ही घर आते थे, या तो कोई खुशी हो या फिर कोई दुख। ज्यादातर तो दुख के वक्त ही आते हैं। दुख में भीड़ बड़ी होती है। शायद लोगों के लिये ये आसान होता है। लेकिन किसी की खुशियों में हँसना मुश्किल काम है।
जब आरिज़ फूफी जान के घर में मिलता था तब उसका चेहरा भी कितना पाक दिखता था। वह कभी अन्दाजा नही लगा पाई थी कि अन्दर से इतना अलग होगा। वैसे तो कहते हैं कि चेहरा इन्सान की इवारत होता है? न जाने कहाँ गयी ये सब दलीलें?
वह उस गुनाह की सजा भुगत रही थी जो उसने किया ही नही था। रसूखे खानदानी अन्दर से इतने गिरे हुये भी हो सकते हैं? ये बात अगर उसे पता होती तो वह निकाह से इन्कार कर देती। अगर इन्कार किया होता तो उसके दामन पर ये दाग न लगा होता? " नही...नही..हमारे दामन पर दाग क्यों लगेगा? हमने किया ही क्या है? दाग तो उसके गिरेवान पर लगना चाहिये जो हैवान है। मगर ऐसा होता क्यों नही है? वो तो आज भी छुटटा घूम रहा होगा? हँस रहा होगा? और हम खुद में ही कैद हो गये हैं। आँसुओं के सिवाय कुछ नही बचा है हमारे पास। "या अल्लाह! हम क्या से क्या हो गये?"

आज फिज़ा को अहसास हो रहा था कि वास्तव में तलाक का दर्द क्या होता है? क्या होती है इसकी तड़प? कितना दर्द होता है इसमें? अभी तक उसने सिर्फ इसका नाम ही सुना था। और ये भी सुना था कि तलाक एक बहुत ही बुरा लब्ज़ है। हम लोग बचपन में खेल-खेल में इस लब्ज़ को बोल दिया करते थे तो अम्मी जान गुस्से से आग बबूला हो जाया करती थीं। और हमें उनकी डाँट खानी पड़ती थी। उनके गुस्से का अस्ब़ाब हम तब नही समझ पाये थे।
उसे याद आने लगा जब वह करीब दस-बारह बरस की थी उसकी बड़ी फूफी का भी तलाक हुआ था। ये खबर हमारे पूरे मोहल्ले में जंगल की आग की माफिक फैल गयी थी।
हमारे घर में जरा सी आहट होने पर औरतें उचक-उचक कर घरों से झाँकने लगती थी। और कई बार तो हमसे नगमा चाची जान ने पूछा भी था- "फिज़ा बेटी, घर में सब कैसे हैं? तुम्हारी नूरी फूफी कहाँ हैं? क्या घर आ गयीं?" बगैहरा-बगैहरा। हमें बड़ा अजीब सा लग रहा था ये सब, पर हमने हमेशा उनकी बात को टाल दिया था सिर्फ अम्मी जान के डर से। वरना तो हमारा भी दिल करता था कि हम नगमा चाची से खूब बातें करें और वो सभी बातें पूछ लें, जान लें जो घर में कोई कुछ नही बताता। मगर फिर न जाने क्यों हिम्मत नही पड़ती थी। हमें डर लगता था कि अगर हमनें नगमा चाची से ज्यादा बात की तो अम्मी जान हमें डाटेंगी। नगमा चाची भी हमेशा हमसे चुपके से बात करती थीं। ये देख भाल कर कि अम्मी न देख लें। उनके अलावा महोल्ले की और भी कई औरतें थीं जो घर के अन्दर की बातें जानना चाहती थीं। इसके लिये वो बच्चों का सहारा लेती थीं।
तलाक की खबर सुन कर अम्मी जान भी बेहिसाब रोई थीं। घर में दो दिन खाना भी नही पका था और हँसनें पर पाबंदी लग गयी थी। पूरे घर में मातम सा छाया हुआ था।
तलाक के बाद अब्बू जान फूफी जान को घर ले आये थे।
इस बार फूफा जान साथ में नही आये थे, जैसे हर बार आते थे। जब अब्बू जान उन्हे घर लेकर आये तब फूफी जान अम्मी जान से लिपट गयीं थीं। वो बस रोती ही जा रही थीं। कुछ बोल नही रहीं थीं। अम्मी जान भी रो रही थीं और उन्हें खुद से लिपटाये हुये थीं। फूफी के अहज़ान से तब कितना कोहराम मचा गया था घर में, जैसे कोई जलजला आ गया हो। थोड़े दिन तक तो काफी शोर-शराबा रहा था। लोगों का आना-जाना भी रहा था। फूफाजान से अब्बू जान की कहा-सुनी भी सुनी थी उसने फोन पर।
उसके बाद घर का माहौल बिल्कुल बदल गया था। हमारा स्कूल का होमवर्क तक करने का दिल नही करता था। सारा दिन बड़ों की बातों में अमान और हमारे कान लगे रहते थे। हमारे लिये वो सब एक अजूबा था। अगर कोई हमें सब बता देता तो शायद हमें तसल्ली हो जाती और कुछ जानने की बेताबी नही होती। पर कौन बताता? कोई किसी से बात नही करता था सब चुपचाप पड़े रहते थे और फूफी जान , उनको तो कितनी बार छुप-छुप कर रोते हुये देखा था हमनें। न तो वह खाना खाती थीं और न ही किसी से बात करतीं थीं। बस सारा दिन एक कमरें में बंद रहती थी।
अम्मी उन्हे जबरदस्ती खिलाती थीं। कभी-कभी इस काम का जिम्मा हमें भी सौंपा जाता था। तब हमें उनसे डर लगने लगा था। पता नही क्यों सिर्फ उन दिनों ही, वरना तो वह हमें बहुत चाहती थीं। उन दिनों उनकी आँखें सुर्ख रहती थीं। हर वक्त भरी-भरी सी। आँखों के नीचे काले घेरे भी आने लगे थे और चेहरा एकदम मुर्झाया हुआ सा हो गया था।
शादी से पहले हम उन्ही के पलंग पर साथ- साथ सोते थे। ठंड के दिनों में वो अपना लिहाफ भी हमारे ऊपर ही डाल देती थीं और खुद जाडे़ं में उघड़ी रहती। रात में कितनी बार हम उनसे लिपट जाया करते थे और खिसक-खिसक के बिस्तर छोड़ देते थे तब वो पलंग के एक कोने में पड़ी रहतीं। उस वक्त हमें इस बात का जरा भी अहसास नही था कि उन्हें भी ठंड लगती होगी।
कितनी अच्छी थीं हमारी फूफी? फिर पता नही क्यों इतना रोने लगी थीं? बस हमें इतना पता है कि उनका रोना हमसे देखा नही जाता था। हम और अमान उनका चेहरा ही देखते रहते थे। हर रात उनके मुँह से जिन्न और परियों की कहानियां सुन कर ही नींद आती थी। उनकी मजेदार कहानियों के आगे हमनें कम्प्यूटर को हाथ भी नही लगाया था। खास तौर पर फूफी की नजदीकी के वक्त। तब अब्बूजान कहा करते थे- "फिज़ा आपको सी.ए. बनना है या कहानीकार।" उनकी इस बात पर हम और फूफी ठहाका लगा कर खूब हँसते थे।
क्रमश: