मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 8 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 8

भाग 8
कोतवाली से उन्हे शिनाख्त के लिये लाशघर भेजा दिया गया।
वह लाश नूरी फूफी की ही थी। वह इस सदमें को बर्दाश्त नही कर पाईं थीं, उन्होनें खुदकुशी कर ली थी। सुबह-सुबह फ़ज्र की नबाज से पहले ही वह चुपचाप बुर्का पहन कर निकल गई थीं। अम्मी-अब्बू को तब पता चला जब अब्बूजान बुजू के लिये पानी लेने गये तो उन्होनें देखा था घर के लोहे के जाल वाले मेन गेट की कुण्डी नही लगी थी। वह खुली हुई थी। उसको सिर्फ भेड़ा हुआ था। सबसे पहले तो वह डरे थे। रात में जरुर चोर घुस आये हैं और उनके घर चोरी हुई है। उसके बाद उनका माथा ठनका और उनके कदम सबसे पहले नूरी फूफी के कमरें की तरफ बढ़े। कमरें में झाँका वो वहाँ नही थीं। उनका पलंग बिल्कुल खाली था। बराबर वाले पलंग पर नुसरत फूफी सो रही थी।
उनका शक सही निकला। नूरी फूफी अपने कमरें में नही थीं। घर का चप्पा-चप्पा छाना गया था। पर वह कहीँ नही मिली थी तब सबको फोन पर इत्तला देकर बुलाया गया था। और तलाश शुरू कर दी गयी थी। सब उन्हें पागलों की माफिक ढ़ूढ़ँ रहे थे। मगर उनका कहीँ भी पता नही था। दर असल वो घर में थी ही नही।
कई बार उसने फूफी को रोते हुये दादी जान और दादू जान को याद करते हुये देखा था। उन्हे लगने लगा था वह अपने भाई जान पर बोझ हैं। उन्होनें अपने अम्मी- अब्बू को तो बचपन में ही खो दिया था। तब से लेकर अब तक अब्बूजान ने ही अपनी दोनों बहनों की परवरिश कर बड़ा किया था। बिल्कुल एक बाप के माफिक। कभी किसी चीज की कोई कमी नही होने दी। फिर भी फूफी जान कभी-कभी नमुतमईन हो जाया करती थीं। वैसे अम्मीजान और फूफी जान में बहुत पटती थी। इस बात की तकलीफ मोहल्ले में सबको होती थी। कई बार उन्होंने फूफी जान को बरगलाने की कोशिश भी की, तब फूफी ने उनके चेहरे का पानी उतार दिया था। हम भी फूफी जान के साथ ही रहते थे। हमें उस वक्त ये बातें समझ में नही आती थीं। हमें तो बस फूफी का साथ अच्छा लगता था। उनकी शादी में भी हमने खूब मजे किये थे। लेकिन तब हमें ये नही मालुम था कि निकाह के बाद तलाक होता है? सबका होता है या किसी-किसी का ? ये भी नही पता था। हमें तो बस फूफी का तलाक अच्छा लगा था।
बेशक वो हमारे पास लौट आईं थीं पर अब वो पहले जैसी नही रही थीं। न हँसती थी, न पहले की तरह हमारे साथ खेलती थीं, न क्रोशिया बुनती थीं और न ही पहले की तरह कहानियां सुनाती थीं। उन्हें देख कर हमारा दिल बहुत कटता था। हम जब भी अब्बू जान के साथ मस्जिद जाते तो फूफी के लिये दुआ करते थे- "या अल्लाह! हमारी पहले वाली फूफी हमें लौटा दो।" अब्बू जान भी दिल -ही-दिल में कुछ दुआ करते थे। वह भी फूफी जान की खुशियाँ ही माँगते होगें? वह भी फूफी जान को बहुत चाहते थे।
लेकिन उस वक्त वो जमाना नही था जैसा आज है। कोई भी औरत तलाक के खिलाफ आवाज नही उठा सकती थी। वह ऐसा सोचती भी नही थी। बस इसको अपनी बदकिस्मती मान कर चुपचाप जिन्दगी गुजार देती थी। यही सिखाया भी जाता था और औरतों को लगता था यही उनका नसीब है। यहाँ से उन्हें कोई नही निकाल सकता। अल्लाह ने उनके नसीब में यही लिखा है। कुछ औरतें तो ये भी कहती थीं कि 'औरत , मर्द के पैर की जूती होती है।' यही सोच कर वो जिन्दगी भर जिल्लत झेलती थी और जहन्नुम अपनी मर्जी से भुगतती थीं। लेकिन तब हमें एक बात समझ में नही आती थी कि एक औरत खुद को ही मर्द की जूती क्यों कहती है? क्या फर्क होता है मर्द और औरत में? बहुत सारे सवाल थे जिनके जवाब हमें समझ में नही आता था किससे पूछें?
लेकिन उस घटना के बाद हमनें फूफीजान का चेहरा कभी नही देखा था। किसी ने भी नही। क्यों कि उनकी लाश को सफेद कपड़े में सिल दिया गया था। उन्हे सीधे कब्रिस्तान ले जाकर दफना दिया गया था। शाम को अब्बू जान बहुत सारे रिश्तेदारों के संग खाली हाथ घर लौटे थे। घर आकर खूब रोये थे। साथ में अम्मीजान, नुसरत फूफी और खालाजान भी रोये थे। पूरा घर रिश्तेदारों, मोहल्ले वालों से भरा हुआ था इतना कि पैर रखने की जगह ही नही थी, आदमी लोग घर के बाहर चबूतरों पर बैठे थे। आज तो पड़ोस की वो औरतें भी आईं थीं जो फूफी और हमारे घर पर नज़र रखती थीं और हँसा करती थीं, लेकिन आज तो सब रो रहे थे। हम भी उन्हें देख कर रोने लगते थे। फूफी के कपड़े, बिस्तर और सामान घर के बाहर ले जाया गया था। फिर वो सामान कभी वापस नही आया। हमनें सामान जाते हुये देखा था तो उस वक्त अमान ने चुपके से उनका एक दुपट्टा छुपा लिया था और लाकर हमें दिया था- "आपा इसे रख लो, फूफी का है। ये लोग फूफी जान का सारा सामान कहीँ ले जा रहे हैं।" उस दुपट्टे को लेकर हम घर के पिछवाड़े जाकर बैठ गये थे और बार-बार देखते थे। फिर फूफी को याद करके रोते भी थे।
अमान हमसे बहुत सारे सवाल करता था। तरह-तरह के सवाल, जिसमें से एक का भी जवाब नही होता था हमारे पास। कई बार हम अपने कयास लगा कर झूठा जवाब दे दिया करते थे। हम इतने अदीब नही थे कि सारी बातें उसे सच बता सकते और उम्र में भी छोटे थे। उस वक्त हमारे झूठे जवाबों को वह सच मान लेता था।
कई बार हमें फूफीजान की इतनी याद आई कि हमनें उनके पास जाने का फैसला कर लिया था। मगर हम जाते-जाते रुक गये थे क्यों कि हमें और अमान दोनों को कब्रिस्तान का सही रास्ता नही पता था।
बेसाख्ता अमान उस दिन आकर कहने लगा- "आपा, हमें अभी पता लगा है, हमारी नूरी फूफी वापस आ सकती हैं।"
सुन कर हम दोनों ही खुशी से चहक गये थे। वो हमें हाथ पकड़ कर घर के पिछवाड़े की तरफ ले गया था। वहाँ हम दोनों अमरुद के पेड़ के नीचे की कच्ची जमीन को खोदने लगे। वो एक पत्थर उठा कर ले आया था। हमने जल्दी-जल्दी उस पत्थर को मिट्टी में दबा दिया था। जैसे फूफी जान को कब्र में दफनाया गया था। जब पूरा गढढ़ा पट गया तो उसने चुपके-चुपके हमें समझाया- "आपा अब ये पत्थर अल्लाह के पास पहुँच जायेगा और जैसे ही ये अल्लाह के पास पहुँचेगा, हमारी फूफी वापस आ जायेंगी।" आज नासिर बता रहा था। उसने भी अपनी अम्मी जान को ऐसे ही वापस बुला लिया था।"
"तू झूठ तो नही बोल रहा है न? क्या सचमुच वो आ सकती हैं? सच-सच बता अमान?" हमने अपनी पनप रही उम्मीद को छुपा कर शक करने वाले अंदाज़ में पूछा था।
"हाँ, तो क्या मैं झूठ बोलूँगा? चलो चल कर देख लो नासिर की अम्मी लौट आईं है। वह बता रहा था कि अम्मी जब से लौट कर आईं हैं उनका चेहरा थोड़ा बदल गया है। उसके अब्बू जान ने बताया था कि कब्र में लेटे रहने से चेहरा बदल जाता है।"
"हममम जरूर वहाँ जिन्नात रहते हैं और वही चेहरा बदलते होगें? हमनें एक बार 'जादुई शहजादी' में जिन्नात के बारे में पढ़ा था। बड़े ताकतवर होते हैं वो और कुछ भी कर सकते हैं।"
"हाँ शायद ऐसा ही होगा, पर मुझे सही से नही मालुम।"
"अच्छा, तो ठीक है। हम दुआ करतें हैं कि चाहे फूफी का चेहरा बदल जाये पर वो लौट के आ जायें बस।"
अमान और हम दोनों वहीँ बैठ कर खुदा की इवादत कर रहे थे। दुआओं में अपनी फूफी को माँग रहे थे। हम दोनों के हाथ और पैर ठंड में अकड़ गये थे। मिटटी की ठंडक और खुला आसमान दोनों ठिठुरते रहे।
हम दोनों खुश भी थे इसी खुशी में ठंड कुछ कम हो गयी थी, मगर दिल-ही-दिल में ये कोफ्त भी थी कि काश, ये तलाक न हुआ होता तो ये सब बखेड़ा ही न होता? जो भी हो, उस वक्त हम यकीन की ताकत से भरे हुये थे।
बस हम इतना जान गये थे कि ये सब तलाक लब्ज़ बहुत खराब होता है और इसी के अस्बाब से ये सब हुआ है। ये इतना खराब होता है। कि किसी भी अपनें को जुदा कर देता है। हमें नही पता था कि फूफा जान ने भी खुदकुशी की या नही? उनके घर में भी सब रोते होगें या नही? उनकी लाश को भी सफेद कपड़े में सिला गया होगा या नही? हमें कुछ नही पता था। क्यों कि उनके घर से कोई नही आया था। तमाम लोगों की भीड़ में हमने एक बार भी फूफा जान या उनके घर के किसी इन्सान को नही देखा था। हो सकता है उनके घर भी यही सब हो रहा हो?
फूफी जान की यादों से हमारी आँखें बार-बार डबडबा रही थीं।
फूफीजान का दर्द हम आज समझ पाये हैं। आज हम भी उसी दौर से गुजरें हैं। बेशक हम भी उसी दौर से गुजरे हों मगर हम फूफी जान की तरह कमजोर नही हैं। हम हारेगें नही। मरेंगे भी नही। बल्कि लड़ेगें, और जीतेगें। हम अपनी फूफी की तरफ से भी। ताकि उनकी रुह को भी सुकून मिल सके। अपने इस फैसलें से फिज़ा को सुकून सा महसूस हुआ था। आज वह गहरी नींद सोई थी।
चलिये, बाइस बरस पीछे चलते हैं।
क्रमश: