Mujahida - Hakk ki Jung - 23 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 23

भाग 23
आरिज़ चुपचाप सब सुन रहा था मगर बोल कुछ नही रहा था। बड़ी भाभी साहब अपने कमरें में थीं। वैसे भी वह घर में सबसे दूर ही रहती थीं। छोटी फरहा भाभी जान वही बैठी प्याज और लहसुन काट रही थीं। शायद उन्हे कुछ खास डिश बनानी होगी वरना तो सब काम नौकर चाकर ही करते हैं। बीच-बीच में बातें सुन कर अन्दर ही अन्दर फूल रही थीं। शायद वह इस झगड़े से खुश हो रही थी। पक्के तौर पर तो नही कहाँ जा सकता मगर उनके चेहरे से लग रहा था। घर में उनका ही सिक्का चलता है, इस बात का उन्हें बड़ा गुरूर था। वह थोड़ी चालाक किस्म की औरत थी। मौंके का फायदा उठाना आता था उन्हें।
फिज़ा के लिये आज का दिन बड़ा ही मनहूस था। उसे अपनी दुनिया लुटती सी नज़र आ रही थी। सारे के सारे ख्वाब ढ़हने लगे थे। वह खुद को मिटटी के कच्चे टीले पर खड़ा महसूस कर रही थी। न जाने कौन सा कहर आये और वह ढ़ह जाये। ऐसे में उसे यहाँ पर सब पराया सा लगने लगा था। उसका दिल चाह रहा था अपनी अम्मी जान से लिपट कर खूब रोये। उन्हे बताये कि उसका पेपर छुड़वा कर कितनी ज्यादती की है इन लोगों ने? उसके ख्वाब को माचिस की तीली लगा दी गयी है। अब कभी आपकी फिज़ा चार्टेट अकान्टेड नही बन पायेगी।
वह सोचने लगी- 'कितना फ़र्क थी आरिज़ की और उस की अम्मी में? एक उसकी अम्मी हैं जो उसके ख्वाबों के लिये मरती हैं और एक आरिज़ की अम्मी, जिन्हे जरा भी इल्म नही, किसी के दिल पर क्या बीतेगी? उन्हे ये भी इल्म नही कि पढ़ाई की क्या अहमियत है? अच्छी खासी रईसी होने के बावजूद भी पैसे की कितनी ख्बाइश है? और आरिज़ के भाई जान कितने गलीच किस्म के इन्सान हैं? उन्हे रिश्तों का जरा भी लिहाज नही। कितनी खूबसूरत हैं अफसाना भाभी साहब? और सलीकेदार भी, फिर भी इनकी निगाहें दूसरी औंरतों को तकती फिरती हैं। नुसरत फूफी जान ने पहले कुछ क्यों नही बताया? क्यों छुपाया उन्होने सब? ऐसा तो नही कि उन्हे पता नही होगा? या अल्लाह! ये कैसे घर में आ गये हम? निकाह को एक महीने से ज्यादा हो गया, आरिज़ कहीँ घुमाने भी नही लेकर गये। ना ही कभी चाहत ही पूछी है? कैसे हैं यहाँ सब? किसी को कोई शौक, कुछ करने की चाहत या क्रियेटीविटी है ही नही?
लेकिन इन सब बातों से ज्यादा चोटिल तो वह कालेज वाले हादसे से थी।
फिज़ा अकेले कमरें में घुट रही थी। तभी उसका मोबाइल बज उठा। स्क्रीन पर शबीना का नाम था जिसे देख कर वह खुश हो गयी। वह बुदबुदाईं- 'अम्मी जान का फोन?' उसने जल्दी से बह रहे आँसुओं को रगड़ा और फोन उठाया स्क्रीन पर आ रहे हरे रंग के बटन को जल्दी से स्वाइप अप किया।
शबीना ने जैसे ही पूछा- "मेरी लाडली कैसी है?" फिज़ा की रुलाई फूट पड़ी। सुनते ही शबीना घबरा गयी। वह बार-बार पूछ रही थी - "बता लाडो...क्या हुआ है? आप ठीक तो हैं न?" मगर फिज़ा बस रोये जा रही थी। जब शबीना ने कहा- "हम और तेरे अब्बू जान फौरन आते हैं वहाँ, ये सुनते ही फिज़ा ने एक-एक लब्ज़ उन्हे बता दिया जो भी आज यहाँ हुआ था और ये भी ताकीद दी कि- "अम्मी जान आप लोग यहाँ मत आइये अभी, हो सकता है बात और बिगड़ जाये? हमें अपने तरीके से देखने दीजिये। हमारा सी. ए. का ख्वाब तो अब टूट ही गया है। जाने दीजिये अम्मी जान, हम धीरे-धीरे सब भूल जायेंगे। आप बस अब्बू जान की फिक्र कीजिये। उन्हे अभी कुछ भी न बताइये।" कह कर सिसक पड़ी फिज़ा।
"या अल्लाह! ये क्या हो रहा है? ऐसा कैसे कर सकते है वो लोग? उन्होनें तो हमसे वायदा किया था कि 'फिज़ा की तालीम में कोई रूकावट नही आयेगी। बल्कि वो जितना चाहे पढ़ सकती है। वो पढ़ेगी तो हमारी ईज्जत भी बढेंगी।' अब बेसाख्ता क्या हो गया? हमारी लाडो का ख्याब अब कभी पूरा नही हो पायेगा क्या?"
शबीना ने उसके सामने तो कुछ नही कहा मगर अपनी बेटी के अहज़ान से परेशान हो गयी। उसने उसे तसल्ली दी- "अल्लाह के फ़ज्लोकरम से सब ठीक हो जायेगा। लाडो आप परेशान न हों।"
शबीना फोन तो रख दिया था, मगर वह बेचैन हो गयी थी। उसे समझ नही आ रहा था कि खान साहब को बताये या नही? कितने अरमानों से शादी की थी। अपनी हैसियत से बढ़ कर ज़हेज दिया था। और फिज़ा की आगे की तालीम का जिक्र भी पहले ही कर लिया था। उन्होनें तब तो कोई एतराज़ जाहिर नही किया था। अगर किया होता तो हम फिर वैसा ही सोचते।
शबीना का दिल किसी भी काम में नही लग रहा था। जब से फिज़ा से फोन पर बात हुई थी वह बस वही सोच रही थी। और ये भी कि कैसे सब ठीक होगा।
आरिज़ कमरें में दाखिल हुआ तो फिज़ा रो रही थी। वह उसे देखते ही डर गयी। आरिज़ पलंग की पुश्त पर सिर टिका कर लेट गया।
वह अधलेटा था यानि कि कुछ गुफ्तगूं करना चाह रहा था। इस बात से वह तर्सजद़ा हो गयी।
उसे सुबुकता देख कर भी आरिज़ का दिल पसीजा या नही ये तो नही कहा जा सकता मगर हाँ वह खामोश रहा। कई बार चुप्पी भी तशरीह की बजह होती है। या तूफान से पहले की खामोशी। बगैर कुछ कहे बहुत कुछ कह जाती है।
न जाने किस तरह के लोग थे वो? सब के सब एक जैसे। आरिज़ जब कमरें में दाखिल हुये थे तो उनके कदम लड़खड़ा रहे थे। ऐसा वह यकीन से नही कह सकती थी क्योंकि उसने एक ही नजर देखा था। "क्या आरिज़ शराब भी पीते हैं? वह घबरा गयी। पर पूछने की हिम्मत किसकी थी?
वह तो खाना खाकर आये थे। उसने फिज़ा से कहा- "आप बाहर जायें और खाना खा लें। हमनें भाई जान के साथ खा लिया है।"
ऐसे में किसे भूख होगी? जिसको इम्तहान के बीच से जबरदस्ती उठा कर लाया गया हो, वह भी विना किसी गुनाह के। फिज़ा ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। मौका पाकर आरिज़ ने उसे दोनों हाथों से कस कर पकड़ लिया और अपने आगोश में ले लिया। उसके मुँह से शराब की बू साफ आ रही थी। फिज़ा ने खुद को छुड़ाने की काफी जद्दोजहद की। ये सच है कि ज़हनी तौर पर कमजो़र औरत जिस्मानी तौर पर भी कमजोर हो जाती है। वह चाह कर भी खुद को आजाद नही कर पाई, बेशक अपने जानिब से उसने पूरी कोशिश की थी। मर्द सिर्फ मर्द होता है और कुछ नही, शायद इन्सान भी नही, ऐसा उसे अपने तजुर्बे से लगा था।
आरिज़ ने अपने बाहों के शिंकजे को कस लिया था और चेहरे को बिल्कुल करीब ले आया था। फिज़ा की बंद आँखों पर उसने अपने होंठों को रख लिया था, बिल्कुल उसी तरह से, जैसे कुछ देर पहले भूख लगने पर उसने खाना खाया था।
इस जिस्मानी भूख को भी वह उसी तरह पूरी कर ही लेगा। फिज़ा जानती थी कि अपना जिस्म न परोसने पर क्या सज़ा होगी। चूंकि ये एक शौहर का ह़क था, जहाँ उसे बीवी की चाहत, उसकी रजामंदी की कोई जरुरत नही होती। बेशक ये ह़क उसे उसकी बीवी ने ही दिया हो। मगर मर्द ये भूल जाता है, कि उसे ज़हेज में मिला हुआ ये कोई सामान नही है बल्कि एक जीते-जागते, साँस लेते हुये इन्सान की अपनी मर्जी से की हुई सुपुर्दगी है। उसका अपना वक्फ़ है।
उसने फिज़ा के बारें में एक बार भी नही सोचा था। दूर-दूर तक उसे इस बात की परवाह भी नही थी। अगर होती तो आज उसे वह एक असीर के माफिक न लाता और बिस्तर पर उसकी चाहत पूछता, कुछ सुनता, कुछ कहता।
जिस्म एक होने से पहले दिल का एक होना कितना जरुरी होता है? इस बात से वह बेखबर था। उसकी नज़र में ऐसा करना जफ़ा नही थी।
क्रमश:

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