मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 25 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 25

भाग 25
रात को डिनर के वक्त आरिज़ की अम्मी जान, बड़े भाई जान, अफसाना भाभी साहब और फरहा भाभी जान के दोनों बच्चे ही आये थे। वाकि लोग क्यों नही आये इसका कोई पुख्ता बहाना या अस्बाब नही था किसी के पास।
खाने में बिरयानी, शाही पनीर और कोरमा था। तंदूरी चपाती को खान साहब ने बाहर से स्पेशल आर्डर कर मँगवा लिया था। शबीना ने आज अपनी ओपल वियर की वही क्राकरी निकाली थी जो वह और फिज़ा साथ में जाकर खरीद कर लाये थे और ये सिर्फ किसी खास मौकों के लिये थी। शबीना और खान साहब के लिये इससे ज्यादा खास मौका और क्या होगा?
खाने की टेबुल पर बहुत सारी गुफ्तगू हुई। मगर उसमें हँसी-मज़ाक न के बराबर थी। आज उनका मकसद भी यही था कि दोनों खानदानों की दूरियाँ कम हो सकें।
आरिज़, उसके भाईजान और खान साहब का दस्तर-ख्बान मेहमान खाने में लगा था।
औरतों ने खाना अन्दर ही खाया।
माहौल को खुशनुमा बनाने के लिये शबीना ने कोई कसर नही छोड़ी थी। पूरे घर की अराईश बड़े ही खूबसूरती से की गयी थी। टेबुल पर ताजे फूलों का गुलदस्ता भी था और घर में सभी जगह नई बैडशीट बिछाई गयीं थी। इतना सब अकेले शबीना ने किया था। आज खाला की तबियत कुछ नासाज़ थी इसलिये वह नही आ पाईं। हलाकिं फिज़ा ने भी सुबह आने के बाद अपनी अम्मी जान की काफी मदद की थी। बावजूद इसके उन लोगों के मुँह से तारीफ़ का एक लब्ज़ भी न निकला। वो लोग मिलनसार नही थे। तारीफ तो दूर की बात है उनके तास्सुरात ही अजीबोगरीब से थे।
उल्टे आरिज़ की अम्मी ने कई बार बातों-बातों में जता दिया था कि- "आपका भेजा हुआ कोई भी सामान हमारे स्टैंडर्ड का नही था। गाड़ी भी आरिज़ की पसंद की नही है। उसे एक बड़ी एक्स यू वी गाड़ी चाहिये। चाहे तो आप अपनी पुरानी कार वापस मँगवा लें। हम भेजने को तैयार हैं।"
एकदम नयी गाड़ी देना उनके बस में नही था। सुन कर शबीना के पैरों तले जमीन निकल गयी। सारे अरमानों पर पानी फिर गया। कितने शौक से उसने आज डिनर का प्रोग्राम रखा था, सब बेकार हो गया। वास्तव में आज उसे अहसास हो रहा था कितने अख्ज़ किस्म के लोग हैं ये? इनके आगे तो जान भी लुटा दी जाये तो भी अहसान नही मानेंगे।
उसे इस रिश्ते पर पछतावा होने लगा। आखिर क्यों मानी उसने नुसरत की बात? फिज़ा के लिये तो और भी अच्छे रिश्ते थे? अगर इन लोगों के लालच के काँटें यूँ ही उगते रहे तो हमारी बेटी का क्या होगा? हम तो फिर भी इनसे दूर की आवाजाही कर लेगें। मगर फिज़ा को तो उसी घर में रहना है। ओखली में रह कर कब तक मूसल से बच पायेगी वो? या अल्लाह! ये हमारी बहुत बड़ी भूल हो गयी। उसकी आँख की कोर से दो आँसू ढ़ुलक आये। जिसे उसने बड़ी होशियारी से पोछ लिया। उसे फिज़ा पर बड़ा रहम आ रहा था- " हमारी बेटी के कितनी बदनसीब है जो उसे ऐसा ससुराल मिला। ये कहाँ फँस गये हम? नुसरत ने पहले क्यों नही बताया कुछ?" शबीना ने पनीर का डोंगा आगे बढ़ाते हुये कहा- "समधन जी हमनें अपने जानिब से पूरी कोशिश की थी कि कोई भी कमी न रह जाये, फिर भी आप लोगों को शिकायत रही तो ये हमारी बदनसीबी है। इसमें आपकी कोई गल्ती नही।"
शबीना के कहने के बावजूद भी आरिज़ की अम्मी जान टस से मस नही हुई। ना ही उन्हें अपने लब्ज़ों पर कोई अफ़सोस ही हुआ। उनकी पत्थर दिली और लालची नजरिया जाहिर हो गया था।
बीच में शबीना ने फिज़ा के पेपर छुड़वाने को लेकर बात करनी चाही थी तो फिज़ा ने इशारे से रोक दिया। वह किसी भी तरह का हँगामा या शोर शराबा नही चाहती थी। शादीशुदा जिन्दगी में तालमेल बैठाने के लिये उसने आगे की तालीम न लेने का फैसला कर लिया था। ये बात अलग है कि ये सुन कर शबीना के चेहरे पर मायूसी छा गयी थी।
अपने ख्वाबों को मारना इतना आसान नही होता। अक्सर लोग उसे मारने से पहले खुद मर जाते हैं। जो जीते हैं वो वास्तव में जीते नही हैं बल्कि समझौता करते हुये जिन्दगी काट देते हैं।
अफ़साना बेशक ससुराल पक्ष की थी मगर उसे अम्मी जान का इस तरह बात करना बहुत बुरा लग रहा था यहाँ बैठना बहुत भारी लग रहा था। वह शबीना के आँसुओं को महसूस कर सकती थी। वह अम्मी जान की इक़्तिजा को लेकर शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। लेकिन उसके हाथ में कुछ नही था। न ही उसका शौहर उसका था और न ही मायके की पीठ ही भारी थी। ये दो चीजें जिस औरत के पास न हों उसे गूँगा ही रहना चाहिये। वह निहायत ही छोटे घर से आई थी इसीलिए उसके मुँह में जुवान नही थी। वह हर वक्त अपने ही क़फ़स से लिपटी रहती। उसकी खुद की जिन्दगी कठपुतली के माफिक थी वह दूसरे के लिये क्या बोलती।
फरहा के बच्चें भी खाना खा चुके थे। उनका दिल यहाँ नही लग रहा था। चूंकि उनके साथ खेलने वाला यहाँ कोई नही था सो वह घर चलने की जिद करने लगे थे।
मेहमान खानें में उतनी गहमागहमी नही थी जितनी अन्दर थी। ऐसा नही था कि आरिज़ को गाड़ी की जरूरत नही थी बल्कि उनका आज यहाँ आने का मकसद ही यही था। उसने ही अम्मी से कह कर बात आगे बढ़वाई थी।
मर्द औरत की तरह बेवकूफ नही होता वह अपनी इक़्तिजा का इज़्हार खुद नही करता। हमेशा ऐसा करने के लिये वह एक औरत का सहारा लेता है फिर चाहे वह बीवी हो, अम्मी हो या बहन हो। सीधेतौर पर कहें तो वह बंदूक चलाने के लिये एक कंधा ढ़ूढ़ता है। जिसके सहारे से वो खुद को महफूस रखते हुये खेल, खेल सके।
चलते वक्त सभी को देने के लिये गिफ्ट लाई थी शबीना, मगर वो गिफ्ट उसने किसी को नही दिये। वह समझ गयी थी वह लोग इस लायक नही हैं जो उसकी कद्र कर सकें। उन्हे कुछ भी देना अबस है। उसने खान साहब से बात की- "गिफ्ट के अब्ज़ में कुछ लिफाफे बना लिये जायें तो कैसा रहेगा?" उन्होने फौरन रजामंदी दे दी।
घर में इतना कैश नही था। वह रात में ही जाकर ए.टी.एम. से कैश निकाल कर लाये तो शबीना ने फटाफट लिफाफे बनाये। फिज़ा बाहर उन लोगों के साथ थी। मेहमानों को अकेला छोड़ना भी तहजीब नही थी। हमेशा काम के वक्त चमन एक टाँग से खड़ी रहती थी इसलिये शबीना को उसकी कमी आज बहुत खल रही थी। उसने एक-आत बार फोन पर बात भी की थी- "आपा कैसे करोगी अकेले सब?" तब शबीना ने उसे तसल्ली दे दी थी- "सब हो जायेगा चमन आप अपनी सेहत का ख्याल रखो बस।" शबीना को चमन की भी फिक्र सता रही थी।
फिज़ा रौनक करके फिर से रूख्सत हो गई थी। घर सूना हो गया था। शबीना अकेली रह गयी थी हमेशा की तरह। अमान तो अब बाहर का ही हो गया था। उसका तो घर लौटना मुश्किल था। मुतालाह पूरा हो भी जाये उसके बाद नौकरी, न जाने कहाँ लगे? कम से कम इस बात की तसल्ली थी कि फिज़ा शहर में तो है। जब दिल चाहे देख लो। बस अब खुदा से इतनी गुजारिश है कि वह खुश रहे उसकी जिन्दगी में कभी कोई गम न आये। उसकी झोली अपनी नियामत से भर दे। या अल्लाह! खैर कर।
डिनर वाली बात को आठ दिन गुजर गये थे। घर में किसी ने इसका कोई जिक्र नही किया। आरिज़ के अब्बू जान तो अभी तक एक बार भी नही बोले थे उससे। बड़े भाई जान से तो वह दूर ही रहती थी। एक तो वैसे भी उनके अन्दर आदमियत नही थी ऊपर से अफसाना भाभी साहब ने भी उसे पहले ही आगाह कर दिया था। अम्मी जान तो पहले ही गुमान में रहती थी। हाँ फरहा भाभी जान से उनकी अच्छी जमती थी। अक्सर फिज़ा ने उन दोनों को साथ-साथ बातें करते देखा था। छोटे भाई जान कुछ शरीफ किस्म के लगते थे। वह फरहा भाभी को भी कभी-कभी घुमाने, फिल्म दिखाने ले जाते थे। मगर एक बार उसने फरहा भाभी के कमरें से भी झगड़े की आवाजे सुनी थीं। फरहा भाभी जान का कमरा ऊपर था। इसलिये आवाजें साफ तौर पर नही सुनी थी। जब तक जोर से न बोला जाये आवाज़ नीचे नही आती थी।
क्रमश: