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आश्वस्ति


शंकर प्रसाद अपना डेढ़ एकड़ खेत गोण्डा के रजिस्ट्री कार्यालय में रमेश प्रधान को लिखकर गांव नहीं लौटे। उनके चचेरे भाई सरजू उन्हें गांव चलने के लिए प्रेरित करते रहे पर उनका मन उदास था। खेत पांच लाख में बिका था। कोर बैंकिंग का लाभ लेते हुए उन्होंने पैसा अपने खाते में जमा करा दिया था। कचहरी में ही पांच बजगए। दिल्ली के लिए गोरखधाम या सत्याग्रह किसी में जगह मिल जाएगी।
सरजू के साथ शंकर स्टेशन की ओर चल पड़े। गाँव का कच्चाघर सरजू को दे दिया। सरजू कुछ पान फूल देना चाहते थे पर शंकर ने मना कर दिया। अब गांव आना भी लगभग छूट ही जाएगा, वे सोचते रहे।
दिसम्बर का महीना था। गोरखधाम में उन्हें ऊपर की एक बर्थ मिल गई। गाड़ी आई। सरजू ने उन्हें बिठाया। गाड़ी ने सीटी दी तो सरजू रोते हुए उतरे। शंकर अपनी बर्थ पर उदास लेट गए। उन्हें याद आने लगा १९६२ का गांव जब उनके माता-पिता जीवित थे। वे भी हाई स्कूल में पढ़ते हुए खेती में उनकी मदद करते। गर्मी की छुट्टियों में तालाब की मिट्टी खेत में डालते। बिरवाही खोदते। भैंस चराते। पुरवे में वही अकेले हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। माता-पिता इतने से ही खुश थे कि उनका बेटा हाई स्कूल में पढ़ रहा है। पास हो जाएगा तो नौकरी तो पक्की समझो।
लोकतंत्र की जड़े गहरा रही थीं। लोग उत्साहित थे। कांग्रेस अब भी सत्ता में आ गई थी पर विपक्षी दल भी जोर पकड़ रहे थे। पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे। राष्ट्रपति की कुर्सी पर राधाकृष्णन आसीन हो चुके थे। तब तक गोण्डा में बाहर के ही सांसद चुने जाते। 1962 में स्वतंत्र पार्टी से नारायण दाण्डेकर और कांग्रेस से राम रतन गुप्ता के बीच संसदीय चुनाव का घमासान । गुप्ता जीत गए थे पर अफवाहों का बाजार गर्म था। दाण्डेकर अदालत का दरवाजा खटखटा चुके थे। जून का महीना आते ही वह परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा। एक दिन पता चला कि हाई स्कूल का परिणाम आ गया है। माँ से एक रूपया माँगा। माँ एक रूपये रखे थी, लाकर दिया। पैदल चलकर वह भी शहर पहुँचा। एक कागज कापी की दूकान पर चार-चार आने में परिणाम बताया जा रहा था। चवन्नी दे और अपना अनुक्रमांक बताकर वह भी खड़ा हो गया। बहुत खोजने पर भी उसका अनुक्रमांक अखबार में नहीं मिला।
'भाई, तुम्हारा अनुक्रमांक नहीं है।' दूकानदार ने कहा। उस पर जैसे गाज गिरगई। वह थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा। लड़के आते अपना परिणाम पता करते। उत्तीर्ण होने पर खुशी खुशी लौटते वह थोड़ी दूर खड़ा यह सब देखता रहा। जिनका अनुक्रमांक नहीं मिलता वे उसी की तरह दुखी मन से धीरे धीरे लौटते। वह भी लौट पड़ा पर पैर उठते ही न थे। प्यास लगी। एक नल पर अंजुरी भर पानी पिया।
शहर से बाहर आ गया कच्ची सड़क पर। रास्ते में एक सूखे कुँए की जगत पर देर तक विचार मग्न बैठा रहा। कुछ देर में उसके गांव का अँगनू बाजार से लौटा।
'यहाँ क्यों बैठे हो भैया? आओ चलें।' उसने कहा। दोनो गांव की ओर चल पड़े। तीन किलोमीटर का कच्चा रास्ता। अँगनू के पैर में सवा रूपये वाली चप्पल। उसके पैर में वह भी नहीं। अँगनू के हाथ में खरीदे गए सामानों की एक झोली । अँगनू दिल्ली में रिक्शा चलाते है। परिवार गांव में रहता है। साल छह महीने में वे गांव का चक्कर लगाते। दस-पन्द्रह दिन रहते फिर दिल्ली चले जाते। गांव के लोग बताते थे कि आज़ादी के पहले गांव के कुछ लोग करांची में काम करते थे। उनका परिवार भी गांव में रहता। साल-दो साल बाद वे घर लौटते। गांव के लोग उन्हें 'किंराचिहा' कहते। देश के बटवारे में करांची पाकिस्तान में चला गया तो लोग भाग कर किसी तरह गांव आए। वे साबुत गांव पहुँच गए इसी पर बहुत खुश थे।
आज़ादी के बाद लोग दिल्ली बम्बई लुधियाना की ओर मुॅंह करने लगे। अँगनू भी गांव के एक आदमी के साथ दिल्ली गया था। वहाँ पुरानी दिल्ली में कुछ दिन पल्लेदारी की फिर रिक्शे को हाथ लगाया। पाँच वर्षों से रिक्शा ही चलाकर चार पैसा कमा परिवार का पेट पालते हैं। गांव पर एक पक्की कोठरी भी बनवा ली है। पत्नी भी अब दोहरा खाने लगी है।
'चाचा हमें भी दिल्ली में कुछ काम मिल सकता है?"
'क्यों बाबू? तुम तो पढ़े लिखे हो । चार आँख वाले को काम की क्या कमी है?"
'तुम्हें कब जाना है?"
'परसों पसीन्जर से।'
'तो हमको भी ले चलो।'
'चलो बाबू, लेकिन घर से बिना बताए न चलो।'
"क्यों?"
'चोरी से चलने पर बड़के भैया समझिहैं कि हमहीं फुसलाय लै गए।'
'तुम भी तो खांची जोखू के घरे रखि कै भाग गयो रहा।'
'हाँ भैया माई नहीं चाहती रही।'
'हमरौ माई न चाहे तब ?"
'बात ठीक कहत हो।'
दोनों कुछ देर मौन चलते रहे। इसी बीच गांव का ही एक आदमी तेज चलते हुए इनके साथ हो लिया। अब तीन हो गए। घर जवाँर की बातें करते तीनों गांव पहुँच गए।
उसके पिता ईश्वरदीन घर नहीं लौटे थे। वे पड़ोसी के साथ एक जोड़ी बैल की तलाश में गए थे। घर पहुँचा। माँ भैंस को नांद पर बांध कर बेटे को ही अगोर रही थी। माँ को पता नहीं था कि हाई स्कूल का परिणाम आ गया है। उसने भी कुछ नहीं बताया।
शाम को वह चौधराइन दाई से मिला। चौधराइन के पास भी खेत दो ही एकड़ था लेकिन वे दस रूपया भी बचा पातीं तो 'व्यवहर' में चला देतीं। आना महीना ब्याज जोड़तीं। इससे लोग ज़रूरत पड़ने पर दाई से उधार लेते और पाटते रहते। चौधराइन को जैसे ही उसने प्रणाम किया वे पूछ बैठी, 'कैसे आए हो बेटे?'
'दाई आपही से एक काम है।'
'कहो ?"
'दाई, कुछ रूपये की ज़रूरत है।'
'तुम्हें रूपए की ज़रूरत है तो बाप से नहीं कहा।'
'नहीं दाई। उनसे नहीं कहना चाहता।'
दाई हँस पड़ीं। उनके पास घर से भागने वाले बच्चे प्रायः आते ही रहते। वे उन्हें किराया भाड़ा के लिए पैसे देतीं। लेने वाले भी कमाकर पहले उन्हीं का रूपया लौटाते ।
'कहीं जाना चाहते हो ?"
'हाँ दाई ।'
'कहाँ ?'
'दिल्ली।'
'तुम तो पढ़े लिखे हो कितना रुपया चाहिए ?"
'तीस। लेकिन दाई, किसी को पता न चले।'
'नहीं चलेगा।' दाई उठीं। सन्दूक से निकालकर तीस रूपये लाईं। हाथ में पकड़ा दिया- दस के दो तथा पाँच के दो नोट बिल्कुल ताजे, कुरकुरे । उसने दाई को प्रणाम किया और घर लौट आया।
तीसरे दिन अँगनू को पैसेन्जर गाड़ी में बिठाने उनके भाई नन्दू भी गए थे। गठरी में अंचार, कडुवा तेल की शीशी, चूड़ा और सत्तू लिए वे गोण्डा स्टेशन पर पहुँचे। गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी तो उन्होंने अंगनू को बैठाया। जगह मिल गई तो उन्हें इत्मीनान हुआ।
वह पहले ही घर से निकल स्टेशन पहुँच गया था। अँगनू को गाड़ी में बैठते हुए देखा। अपनी गठरी लिए चुपके से एक डिब्बे में घुस गया। एक रूपये में चूड़ा और सत्तू बाजार से खरीद लिया था। गाड़ी ने सीटी दी तो नन्दू ने भाई का पैर छुआ और प्लेटफार्म पर उतर गए। गाड़ी ने गति पकड़ी। छोटी लाइन की गाड़ी, भाप से चलने वाला इंजन। चालक के कपड़ों पर कोयले की कालिख लग ही जाती। वह इस ताक में कि गाड़ी कहीं रुके तो अँगनू के डिब्बे में पहुँच जाएं। कर्नलगंज स्टेशन पर एक दूसरी गाड़ी की क्रासिंग होने से समय मिल गया। वह जल्दी से उतरा और अँगनू के डिब्बे में घुस गया। अँगनू ने अपने बगल बिठा पूछा, 'घर पर बतायो है?' वह केवल मुस्कराकर रह गया।
चन्दन ने बाद में बताया था कि शाम तक जब वह घर नहीं लौटा, माँ की चिन्ता बढ़ गई थी। भैंस को खिलाकर खूँटे पर बाँध रही थी कि कक्षा आठ में पढ़ने वाले चन्दन ने आकर बताया, 'माई, शंकर भैया दिल्ली गए।'
'तुम्हें बता गए हैं चन्दन ?' माई हकबका गई थी।
'हाँ माई मैं भी बाजार गया था तेल पेरवाने के लिए भैया वहीं मिले। बताया मैं दिल्ली जा रहा हूँ। घर जाना तो माई को बता देना। यह भी कह देना कि चिन्ता न करेंगी।'
माई की आँखों से आँसू झर झर गिरने लगे। चन्दन कुछ देर उन्हें देखता रहा ।
'माई अब चली?' उसने कहा और चल पड़ा। माई ने बताया था कि रोते हुए वह घर के अन्दर गई और सन्दूक खोलकर जेवरों के जो दो-चार नग थे उन्हें देखने लगी। जब उन्हें साबुत पाया तो और रोने लगी कि भैया आखिर कैसे गया होगा। एक रूपये में तो दिल्ली पहुँचा नहीं जा सकता।
गोण्डा अब बड़ी लाइन से जुड़ा है। देश के हर कोने यहाँ से गाड़ियां जाती है। शंकर सोच ही रहे थे कि गोरखधाम दनदनाती हुई लखनऊ स्टेशन पर आ गई। चाय वाले 'चाय, 'चाय' चिल्ला रहे थे। शंकर उतरे एक पावरोटी खरीदी। उसकी स्लाइसों को चाय में डुबोकर खाया। इसी में चाय खत्म हो गई। उन्होंने एक चाय और ली, धीरे- धीरे पीने लगे। इसी समय गाड़ी ने सीटी दी और वे जल्दी से डिब्बे में चढ़ गए। अपनी बर्थ पर लेटे ही थे कि मोबाइल बज उठा
"हलोऽ सुरेश ?"
"जी पापा जी ।"
'गोरखधाम से आ रहा हूँ। गाड़ी लखनऊ से चल पड़ी है। सुबह पहुँच जाऊँगा।'
इतनी सूचना देकर उन्होंने मोबाइल बन्द किया ।
1962 का जून फिर उनके मस्तिष्क में उभरने लगा। अँगनू के साथ वे दिल्ली पहुँचे। नया शहर आदमी और सवारियों की भीड़ । सब्जी मंडी स्टेशन के पास ही एक सरदार की कोयले की दूकान पर अँगनू रुके। इन्हीं की ठेलिया को अँगनू चलाते थे।
दूकान के पिछले भाग में एक तख्ता पड़ा था। उसी के किनारे टिन के डिब्बे में अँगनू का आटा, नमक, तेल एक लकड़ी के बक्स पर दरी लपेट कर रखी हुई। पहुँचते ही अपनी तथा उसकी गठरी रख कर अंगनू ने कहा-
'मालिक घर से भतीजा आया है। जब तक इसे कहीं काम न मिले इसे मेरे साथ रहने दीजिए।'
"ठीक है ठीक है, रहे। यह लड़का तो कुछ पढ़ा लगता है।' उसके हाथ में अखबार देखकर सरदार जी ने टिप्पणी की।
'हाँ, मालिक।'
'कितना पढ़े हो।' सरदार जी ने पूछा।
'आठ तक। उसने बताया था। हाई स्कूल फेल कहना उसे अटपटा लगा था।
"यह तो अच्छी बात है मैं तो सिर्फ पांच तक ही पढ़ा हूं।' कहकर सरदार जी मुस्कराए।
इसी बीच कोयले का ग्राहक आ गया। अँगनू ने कोयला तोल दिया। उसे ठेलिया पर लादा और पहुँचाने चला गया। सरदार जी ने दो गिलास चाय मँगाई। एक खुद पिया एक उसे दिया। वह चाय पीता रहा और दिल्ली की कारगुजारी देखता रहा। थोड़ी देर में अँगनू लौट आए। गठरी से चूड़ा निकालकर थाली में भिगो दिया। सरदार जी हँस पड़े, कहा, 'चूड़ा लाए हो न?"
'हाँ मालिक।' अँगनू ने कहा। दौड़कर एक पाव चीनी ले आए। चीनी को चूड़ा में मिला दिया।
एक प्लेट में सरदार जी को भी दिया। अँगनू और वह चूड़ा खाकर निश्चिन्त हो दूकान का काम देखने लगे।
सरदार जी ने भी चूड़ा-चीनी का स्वाद चखा। बहुत बढ़िया है भाई,' उनके मुख से निकला।
आठ बजे सायं सरदार जी ने अपना हिसाब समेटा दूकान बाहर से बन्द की । अन्दर एक दरवाजा और था उसकी चाभी अँगनू के पास रहती । बगल में रेलवे स्टेशन की चार दीवारी थी। सरदार जी जाने के बाद अँगनू ने अगीठी सुलगाई। अगीठी सुलगने लगी तो वे आटा गूंथने लगे। उसने आलू काटा। अँगनू ने चटपट रोटियां सेंकी और तवे परही आलू को छौंक दिया। बीच बीच में कहते जाते, 'भैया यह दिल्ली है। यहाँ चार पैसा बचाना है तभी घर को कुछ दे पाएँगे।'
रोटी सब्जी खाकर जब तख्ते पर अंगनू के साथ लेटा, उसे घर याद आने लगा। मां, बापू ही नहीं, भैंस, पंड़िया, बिस्तर, चारपाई, मड़ई सहित सब कुछ।
'क्या सोच रहे हो ?' अँगनू ने पूछा।
'कुछ नहीं। घर की याद आ रही है।'
'अब आए हो तो कुछ कमाने की सोचो। सो जाओ, चिन्ता न करो। हम हैं न। सबेरे जल्दी उठना है।'
सबेरे चार ही बजे अँगनू ने जगा दिया। दो डिब्बे में पानी भरा और कहा, 'चलो।' साथ जाते हुए उन्होंने रेल पटरी के निकट की झाड़ियों के बीच फारिग होने के लिए कहा और स्वयं थोड़ा आगे बढ़ गए।
'कहाँ गांव के तालाब का किनारा, कहां यह रेल पटरी की झंखाड।', वह सोचता रहा।
नहा धोकर अँगनू ने फिर अगीठी जला दी। आटा गूंथा, चटपट रोटियां सेकी। आलू उबाल लिया। आलू का भुर्ता और रोटी खाकर दोनों तैयार हो गए।
साढ़े आठ बजे सरदार जी आ गए। दूकान खुल गई। आते ही उन्होंने कहा 'अपने वही दही बड़े वाले भाई साहब हैं उनको एक आदमी की जरूरत है। अभी आएंगे वे।' अँगनू खुश हुए। थोड़ी देर में दही बड़े वाले सेठ जी आए देखा बात की। उसे उनके साथ भेज दिया गया। सेठ जी के यहाँ बड़े के लिए धोई पीसने का काम था। सिल बट्टे से यह पिसाई होती थी। उस समय मशीनों से पिसाई का चलन प्रायः नहीं था। वह सेठ के यहाँ आठ ही बजे पहुँच जाता। धोई पीसने का काम............कभी कभी मन बहुत उदास हो जाता पर वह सेठ जीके हर आदेश का पालन करता मेहनत से धोई पीसता । उनका हिसाब-किताब भी लिख देता। हाथ में घेठे पड़ गए थे।
एक दिन सेठ की दूकान पर महापालिका के एक बड़े बाबू आए। दही बड़ा खाया। सेठ जी ने उनसे कहा 'बाबू जी इस लड़के को अपने दफ्तर में कहीं लगा दो। बहुत सीधा, मेहनती लड़का है।'
'तुम्हारी धोई कौन पीसेगा?" उन्होंने कहा ।
'मुझे फिर कोई मिल जाएगा। यह पढ़ा लिक्खा है बाबू जी।’ सेठ जी ने कहा ।
'कितना पढ़े हो?' उन्होंने पूछा। 'आठ तक ।' उसके कहने से वे प्रसन्न हुए। एक पर्चे पर अपना तथा दफ्तर का नाम लिखकर दिया और कहा, 'कल दस बजे आ जाना।'
सायं अँगनू को जब बताया वे बड़े खुश हुए। सबेरे सरदार जी से छुट्टी ली। उसे लेकर महापालिका दफ्तर पहुँच गए पर्ची में कमरा नम्बर भी था। उस कमरे के सामने दोनों साढ़े नौ बजे ही खड़े हो गए। दफ्तर खुला बाबू जी ठीक दस बजे आ गए। देखते ही कहा, 'आ गए।'
'जी' मुख से निकला। अँगनू ने हाथ जोड़ लिया।
'आप?' बाबू जी ने पूछा ।
'चाचा हैं।' सुनकर वे खुश हुए। अँगनू चाचा से बताया, 'अभी इसे दैनिक मजदूरी पर रख देता हूँ। आगे फिर देखा जाएगा।'
इतने से ही चाचा खुश दफ्तर में बड़े बाबू के साथ लग गया और चाचा पूरे दिन गेट पर बैठे रहे कि कहीं भतीजा रास्ता न भूल जाय।
जब पांच बजे दफ्तर से बाहर आया चाचा ने गले लगा लिया। 'आना सुफल हो गया भैया' उन्होंने कहा। छह महीने बाद दैनिक मजदूर से चतुर्थ श्रेणी में मौका मिल गया। मन की उमंगें लहरा उठीं। माता-पिता गांव पर रहे। खेती से गुजर-बसर करते साल में एक दो-बार जाना होता। कुछ नकद कपड़ा लत्ता ले जाता। वे इतने से ही प्रसन्न हो जाते।
नियमित नौकरी पाने पर बापू किसी खूॅंटे में बाँधने के लिए व्यग्र हो उठे। गर्मियों में घर गया बापू ने शादी तय कर ली थी। जेठ के महीने में शादी हुई। लू के थपेड़ों से चेहरा झुलस जाता। पत्नी केवल ककहरा जानती थी। नाम था सरस्वती। घर का काम मेहनत से मन लगाकर करती। रात में माई का पैर दबाती । माई और बापू को और क्या चाहिए? बापू ने उसके पायल में घुंघरू लगवा दिया था। चलती तो छम छम की आवाज़ होती। पैरों के महावर की लाली अभी छूटी नहीं थी कि मेरे दिल्ली जाने का समय आ गया।
एक दिन पहले से ही सरस्वती उदास हो गई। आँखों में उदासी साफ दिखती पर उसने कुछ कहा नहीं। हम जैसे लोगों की नियति का उसे पता था। शाम को मैंने उससे कहा, 'ठीक मकान मिल जाएगा तो तुम्हें दिल्ली ले चलूँगा।'
उसकी आँखों में चमक तो आ गई पर तपाक से बोल पड़ी, 'माई और बापू को खाना-पानी कौन देगा?' 'अभी बापू और माई स्वस्थ हैं। जब जरूरत होगी आ जाना।' कहकर उसके अधरों को चूम लिया।
दिल्ली आने पर कमरे की तलाश करता रहा। अँगनू की ही मदद से एक कमरा किराए पर लिया। दूसरी बार दीवाली में घर गया तो पत्नी को ले आया। उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता। वह कुशलता से सब काम निबटाती और चार अक्षर पढ़ती भी। वज्र देहात से आई लड़की शहर के वातावरण में शीघ्रता से घुलमिल गई। गाजियाबाद के एक कालेज से मैंने भी हाई स्कूल पास कर लिया। बड़े बाबू बहुत प्रसन्न हुए। कुछ लिखने पढ़ने का काम भी करा लेते। मन में सपने उगे काश! इंटर कर लेता। गाजियाबाद के उसी कालेज से व्यक्तिगत इंटर किया। उसी वर्ष करुणेश का जन्म हुआ। सरस्वती ने बड़ी मेहनत से उसे पाला ।
माँ-बाप गांव पर ही रहे। साल में एक बार सरस्वती और करुणेश के साथ गांव हो आता। पिता जी से कई बार कहा कि वे गांव काखेत बटाई देकर दिल्ली आ जाएं पर पिता जी राजी नहीं हुए। गांव की मिट्टी ही उनके लिए सब कुछ थी। पीतमपुरा में मकान बनाया। गांव छूटता गया। करुणेश ने बी०काम के बाद एम०बी०ए० किया। बड़े बाबू ही नहीं प्रशासकीय अधिकारी बन सेवानिवृत्त हुआ। एक वर्ष बाद ही सरस्वती को दिल का दौरा पड़ा। उसके प्राण उड़ गए। करुणेश ने दिल्ली की ही एक लड़की मोना को पसन्द कर शादी की। एक कम्पनी में दोनों नौकरी करते हैं।
सरस्वती की याद आती तो मन उद्विग्न हो उठता। एक-दो बार गांव गया पर वहाँ भी बहुत दिन रह नहीं पाया। गांवों का भी कायापलट हो रहा है। जिस शान्ति के लिए गांव जाने जाते थे वह अब केवल स्वप्न रह गया है।
सब कुछ बेच देने के बाद भी गांव बहुत तल्खी से याद आता है। गांव में खेले हुए दिन। तालाब में तैरना, साथियों के साथ लच्ची डांड़ी, बैजल्ला खेलना, होली-दीवाली मनाना सब कुछ स्मृतिपटल पर उभर रहा है और गाड़ी सनसनाती हुई भाग रही है।
यात्री सभी सो रहे हैं। कुछ के नाक बज रहे हैं। विभिन्न तरह की आवाज़ें। कोई खर्रऽ.......खर्रऽ......कोई हूँऽऽ......हूँऽऽ......। शंकर प्रसाद ने मोबाइल में समय देखा-एक बजकर पाँच मिनट । वे सोने का प्रयास करने लगे पर प्रयास करने पर भी नींद तुरन्त कहाँ आती है? आँखें बन्द कर वे नींद की प्रतीक्षा में कम्बल को दबाकर ओढ़ लेते हैं। गाड़ी भाग रही है।
मोना और करुणेश देर तक टी.वी. देखते रहे। घड़ी ने एक बजा दिया। दोनों लेटे तो मोना ने कहा 'पापा से कहो मकान बदल लें।'
'कहूँगा लेकिन थोड़ा रुको।' करुणेश ने उत्तर दिया। 'पापा ने हम लोगों के कहने से ही गांव का खेत बेचा है। वे अभी कुछ दिन उस रूपये को खर्च नहीं करना चाहेंगे।'
'देखो करुणेश मुझे इस मुहल्ले में घुसने में ही एक हीनता बोध होता है।'
'वह तो तब भी हो सकता है जब एक बैंगले में रहोगी। तब तुम बड़े बड़े लोगों के बंगलों से तुलना करने लगोगी।'
'क्या मेरा अच्छे मकान के लिए प्रयास करना गलत है।'
"मैंने गलत कब कहा? लेकिन कहीं न कहीं, संतोष करना होगा।'
‘पर मैं तो इस मकान में नहीं रह सकती।'
'ठीक है देखा जाएगा।'
'देखा नहीं जाएगा।'
'अच्छा भाई पापा को आने तो दो।' कहकर उसने रजाई में अपना मुँह ढक लिया।
नींद तब खुली जब गाजियाबाद में आरक्षित डिब्बों में भी भीड़ का रेला आ गया। दैनिक यात्री बैग हाथ में या पीठ पर लटकाएं पानी के रेले की तरह डिब्बों में भर गए। नियमित यात्रियों की सुविधा को दर किनार कर वे बैठने लगे। बैठने की जगह नहीं मिली तो जहाँ तहाँ खड़े हो गए। गाड़ी रेंग चली। दैनिक यात्री अपने मित्रों को पुकारते, हँसी ठट्टा करते, फबतियाँ कसते । नियमित यात्री अपना सामान समेटने लगे। प्रसाधन कक्ष तक पहुँचना मुश्किल हो गया। बहुत आवश्यक होता तभी लोग उधर जाने का प्रयास करते। गाड़ी की गति बढ़ी। कुछ ही समय में नई दिल्ली का स्टेशन हाकरों की चिल्ल पों, लाल वर्दी में कुलियों की कतारें। लोग डिब्बों से उतरने लगे। शंकर प्रसाद भी अपने बैग के साथ उतरे। चलकर पीतमपुरा जाने वाली बस में बैठ गए।
घर पहुँचे तो करुणेश और मोना दोनों आफिस जा चुके थे। एक चाभी उनके पास रहती है। उन्होंने मकान का दरवाजा खोला। बैठक में सुबह झाड़ू नहीं लगा था। रसोई में गए। एक केसोरोल में पराठा सब्जी उनके लिए रखी थी। चाय बनाई। एक गिलास में लेकर पीते हुए बैठक में आ गए। सामने पत्नी सरस्वती का चित्र टॅगा था। उनकी नज़र चित्र पर रुक गई। इस घर को सरस्वती ने अपनी मेहनत से सँवारा था। वे सोचने लगे। वह दिल्ली और गांव के बीच संतुलन बनाती। बापू और माँ उसे देशकर खुश हो जाते। दस दिन भी गांव पर रहती तो लोग उसी के व्यवहार की चर्चा करते। गांव के हर बड़े बूढ़े का ध्यान रखती। लड्डू, बताशा, गट्टा लाई बांधकर ले जाती। गांव के बच्चों को प्रेम से खिलाती। कोई अहं नहीं, दर्प नहीं। उसे पूरा गांव अपना घर लगता। इस मुहल्ले में भी वह लोगों का सुख दुख बँटाती ।
चाय पीकर बैठक में झाडू लगाया, कुर्सियों को पोछ कर साफ किया ।
रात आठ बजे करुणेश और मोना लौटे। पिता से हाल चाल हुआ। दोनों ने मिलकर खाना बनाया। खाने की मेज पर करुणेश ने बात चलाई। 'पापा मोना चाहती है कि मकान बदल लिया जाए। मैंने एक फ्लैट देखा है तीन कमरे का पचास लाख पड़ेंगे। यह मकान बीस लाख में बिक जाएगा। पांच लाख खेत की बिक्री से शेष पच्चीस लाख बैंक से ले लिया जाएगा।'
शंकर प्रसाद सुनते रहे। धीरे से बोले,
'बेटा चादर के अनुसार ही पैर फैलाना चाहिए।' कहकर वे एक रोटी कम ही खाकर उठ गए थे ।
'पापा हमारे प्रस्ताव को खुशी मन से नहीं ले रहे हैं।' मोना ने बिस्तर पर रजाई खींचते हुए कहा, 'यदि वे न सहमत हुए तो ?”
'तब तो मुश्किल पड़ेगी। मकान भी उन्हीं के नाम है।' करुणेश ने उत्तर दिया।
'पापा को अब कितने दिन रहना है! यदि उनके शरीर छोड़ने के बाद हमने मकान बदला तो कितनी देर हो जाएगी। इस भागती दुनिया में समय की कीमत पहचानो करुणेश ।' टी०वी० खुला था लेकिन दोनों मकान बदलने की बातों में ही लगे रहे। समाचारों की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
शंकर प्रसाद सबेरे पाँच बजे ही उठ गए। बैठक को साफ किया। सामने की जमीन पर झाडू लगया। अखबार आ गया। उन्होंने उठाकर देखा । सत्यम् कम्प्यूटर्स के प्रबन्धक की स्वीकारोक्ति पहले ही पन्ने पर। करुणेश और मोना दोनों सत्यम की ही एक सहयोगी कम्पनी में काम कर रहे थे। छह बजे के एलार्म ने करुणेश को जगाया। वे उठे शंकर प्रसाद ने अखबार उन्हें दिया । अखबार की सुर्खी देखते ही उनका हृदय धक धक करने लगा। मोना को जगाया।
'मोना मोना' उन्होंने कहा, 'क्या हमारी कम्पनी..........?’
"क्या ? कम्पनी को क्या हो गया?"
मोना ने अँगड़ाई लेते हुए पूछा ।
तब तक करुणेश टी०वी खोल चुके थे। सत्यम कम्प्यूटर्स के क्रिया कलाप का रेशा रेशा उधड़ रहा था।
'यह क्या हो गया 'के' ?' मोना करुणेश को 'के' सम्बोधित करती है।
"यह क्या हो गया ?"
करुणेश चुप रहा।
'के' तुम चुप क्यों हो ?"
'उठो तैयार हो । कम्पनी में ठीक पता चलेगा।' कहकर करुणेश बाथरूम में घुस गया।
शंकर प्रसाद भी विचलित हो गए। यदि दोनों की नौकरी गई तो? वे सोचने लगे। करुणेश और मोना दोनों चटपट तैयार हुए। तब तक कुछ सहयोगियों के फोन भी आने लगे। सभी जल्दी से कम्पनी कार्यालय पहुँचना चाहते हैं। करुणेश ने चाय बनाई। मोना ने टोस्ट सेंका।
शंकर प्रसाद के साथ दोनों ने चाय- टोस्ट का जलपान किया। उठते हुए मोना ने कहा, 'पापा जल्दी है। आप कुछ बना लीजिएगा।' 'तुम लोग जाओ। बहुत चिन्ता न करो। अभी मैं हूँ।' कहकर शंकर प्रसाद ने आश्वस्त किया। संकट की इस घड़ी में शंकर प्रसाद की यह आश्वस्ति कितनी मूल्यवान थी ?

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