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धांधू

बैसाख की रात का पिछला प्रहर। गुलाबी ठंड । गांव में उषा के आगमन तक बिछी चांदनी। इमरती दाल दरने बैठ गई। दरेती की आवाज़ से सुर मिलाते हुए गा उठी................
कुहू कुहू बोलइ ई कारी कोयलिया,
पिउ पिउ रटैला पपिहरा हो राम ।
सर सर बहै ई गमकि पुरवइया,
अंग अंग ठुनकै ई देहिया हो राम ।
लुहुर लुहुर लहकै तो करम कै फलवा,
जिनगी उठइ निछरोरी हो राम ।
कब ए माई तू दिन बहुरइबौ
हुलसै मना हर पौरी हो राम ।

दिन निकलने के पूर्व ही धांधू भी उठ पड़ा। उसका यह नाम किसने रखा पता नहीं। आल्हा गाते हुए लोग धांधू का नाम लेते तो उसका भी शरीर फनफना उठता। उसने पांच तक पढ़ा है। अखबार मिल जाए तो बांच लेता है। एक समय था जब वह कुश्ती में बड़े-बड़ों को आसमान दिखा देता पर आज जब वह अपनी भैंस को सानी चला रहा था, दो मोटर साइकिल सवार उसके दरवाजे पर पहुँचे। उसे घर के अन्दर भी नहीं जाने दिया। मोटर साइकिल पर बैठने के लिए कहा, 'प्रार्थना, अनुरोध, गिला, शिकवा जो कुछ करना होगा, मालिक से करना । हमको जो हुक्म हुआ, तामील कर रहे हैं। चुपचाप बैठ जाओ।' धांधू चुपचाप बैठ गया यह सोचकर कि ना-नुकुर करने पर विवाद पैदा हो जाएगा। दुखी भी उठ गए थे। उन्होंने धांधू को मोटर साइकिल पर बैठकर जाते देखा।
मालिक अपने बरामदे में नाती को खिला रहे थे। जैसे ही उनकी नज़र घूमी, दोनों सवारों ने धांधू को पेश किया।
‘मालिक कुछ मोहलत.........।’ निकलते ही धांधू के गाल पर एक झन्नाटेदार चांटा पड़ा।
'इसे बैठा दो एक किनारे ज्यादा चूं चपड़ करे तो हाथ पाँव बाँध दो।' मालिक कहकर नाती के साथ अन्दर चले गए।
धांधू चुपचाप बैठा रहा। किसी तरह का प्रतिरोध न होने से दोनों सवार संतुष्ट दिखे, उसे बांधा नहीं। बरामदे में एक कोने मोटे रस्से रखे थे। कभी कभी लोगों को बांधना पड़ता। बरामदे के खम्भे में अक्सर कोई न कोई बांध ही दिया जाता। मालिक का घर गांव के किनारे सड़क पर ही था। अक्सर लोग किसी न किसी को उनके बरामदे के खम्भे से बंधा हुआ देखते पर सीधे चले जाते। मालिक से पंगा लेना आसान न था।
जय बहादुर बहुत ही होशियार जीव थे। पढ़े तो वे भी कक्षा आठ ही तक थे पर पुलिस और समर्थों को कैसे पटाया जाय यह वह अच्छी तरह जानते थे। वे ब्याज पर रूपया बांटते थे और मुस्तैदी से उसे वसूल भी कराते थे। रूपये का लेन-देन करने वाले वही अकेले नहीं थे। छोटे-मोटे स्तर पर बहुत से लोग यह धन्धा करते पर उनमें से कई वसूली न कर पाते और घाटा भी उठाते। जय बहादुर उन सबमें एक चमकते सितारे थे जिनके बारे में कही गई अनेक दंत कथाएँ समाज में चलती रहतीं। वे कथा पुरुष बने समाज में अपनी हनक कायम रखते।
किसानों को मरनी-करनी, गौना ब्याह ही नहीं खेती के लिए भी पूँजी की ज़रूरत पड़ती। सेठ साहूकार के यहाँ अक्सर जाना पड़ता। अगर एक बार भी उधार ले लिया तो उऋण होना मुश्किल हो जाता। खेती पर ही निर्भर किसानों की स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। खेती में लागत बढ़ रही है। उत्पादन यदि उस अनुपात में हो भी जाए तो भाव इतना गिर जाता है कि लाभ की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। प्रकृति, कीट किसी का भी प्रकोप किसान की रीढ़ तोड़ देने के लिए काफी है। लघु और सीमान्त कृषकों की ही संख्या सबसे अधिक है। ऐसे किसान जो निरन्तर लाभ उठाते हैं उनकी संख्या तो पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं है। अधिकांश अपनी खेती का लेखा-जोखा भी नहीं रखते।
दो चार बीघा वाले किसान खाने भर को अन्न पा जाते उसी में संतुष्ट हो जाते । अन्य खर्चों के लिए मजदूरी करने शहर भागते या और कोई धन्धा करते। धांधू के पास कुल दो एकड़ खेत है। वह मेहनत करके किसी प्रकार अपना गुज़र-बसर कर रहा है। उसके दो बच्चे एक आठ और एक पांच में पढ़ रहे हैं। पत्नी घर का काम करती ही है, खेती के काम में भी थोड़ी मदद कर देती है। आज धांधू के आत्मसम्मान को ठेस लगी है। उसकी आँख में आँसू नहीं एक शून्यता ने घर कर रखा है। चार बजे सायं तक वह मालिक के बरामदे में एक चौकी पर बैठाया रहा। पेशाब करने के लिए भी उसे साइकिल सवारों से अनुमति लेनी पड़ती। प्यास लगती तो वहां सामने लगे नल पर पानी पी लेता। किसी ने खाना पानी के लिए पूछा नहीं। बैठा बैठा सोचता रहा- मालिक के दरवाजे पर बैठाया गया हूँ यह बात तो चारों ओर फैल ही गई है। कहीं भी अब वह सिर उठाकर चल नहीं सकेगा। सभी कहेंगे यह देखो धांधू जा रहा है जो उस दिन मालिक के दरवाजे पर ........। एक बार मन में आया कि प्राण निकल जाते तो ठीक होता पर दूसरे ही क्षण उसके सामने पत्नी, बच्चों के बिम्ब घूम गए। क्या होगा उनका ?..........
साढ़े चार बजे मालिक अपनी कुर्सी पर बैठे। थांधू उनके सामने लाये गए।
"कहो क्या विचार है ? रूपया समय से अदा नहीं हुआ। ब्याज पर ब्याज चढ़ता जा रहा है। पन्द्रह दिन का मौका दे रहा हूँ। आज तो छोड़ रहा हूँ पर सोलहवें दिन क्या होगा यह तुम खुद सोच लो ।'
वह कुछ कहना चाहता था पर मालिक ने डपट दिया। वह चुपचाप गांव की डगर पर चल पड़ा पर मन अत्यन्त क्षुब्ध था । दुखी ने यद्यपि इमरती को ही बताया था, पर गाँव में खबर फैल गई थी कि धांधू को मालिक ने पकड़वा लिया है। कुछ लोग ठिठोली करते- धांधू की पहलवानी का नशा काफूर हो गया । धांधू से जिनकी निकटता थी, वे दुखी थे। सहानुभूति के दो शब्द ही उनकी पूँजी हुआ करते।
धांधू पगडंडी से होकर अपने घर पहुँच गया। वह किसी ग्रामवासी के सामने पड़ना नहीं चाहता था। बच्चे स्कूल से लौट एक मुट्टी घास छीलने चले गए थे। पत्नी भैंस के लिए सानी-पानी कर उसे नांद पर लगा उदास आंगन में बैठी थी। घटना का विवरण उसे मिल गया था। धांधू अपने दरवाजे पर पहुँचा तो भैंस नांद से हुंकारने लगी जैसे पूछ रही हो कहाँ चले गए थे। उसने भैंस की ओर आत्मीयता भरी दृष्टि डाली और धीरे से घर के अन्दर । प्रायः वह दरवाजे पर ओसारे में ही बैठता था पर आज बाहर बैठने का जैसे साहस खो चुका था। पत्नी सामने पति को देखकर लिपट गई। दोनों निःशब्द । जैसे सब कुछ अनुभव कर रहे हों दोनों। कुछ क्षण बीत गया। पत्नी को याद आया- वह तो बिना दातून किए ही चला गया था। एक दातून लाकर देती हुई बोली, 'दातून कर लो। मैंने भी पानी नहीं पिया है।'
धांधू ने दातून ले ली। हाथ-मुँह धोया। पत्नी ने एक पीढ़ा रख दिया। 'अपना भी पीढ़ा रखो। हम दोनों साथ ही खाएँगे।' धांधू ने कहा । पत्नी ने अपने लिए भी एक पीढ़ा रखा। दो थाली में रोटी, आलू बैगन की सब्जी ले आई। दोनों बैठ कर खाने लगे।
'क्या हुआ मालिक के दरवाजे पर ? पत्नी ने धीरे से पूछा ।
'होता क्या ? साढ़े चार बजे तक बैठाए रहे। पन्द्रह दिन की मोहलत दी है।'
'पन्द्रह दिन में भैया क्या इन्तजाम कर पाएँगे ?"
'कल जाकर बातचीत करता हूँ। शायद कोई इन्तजाम हो ही जाए।'
दोनों खाकर उठे । इसी बीच दरवाजे पर दुखी ने आवाज़ लगाई, 'धांधू भाई ?"
'आता हूँ' थांधू ने अन्दर से ही उत्तर दिया। दुखी थांधू के अधिक निकट हैं पर ऐसे मामले में कुछ भी कर पाने में असमर्थ ।
'दोनों सवार जब आए थे तभी मैं समझ गया था कि...... ।' कहते हुए दुखी ने दो बीड़ी निकाली। उसे सुलगाया। एक धांधू को दिया एक स्वयं पीने लगे।
धांधू मालिक का कर्ज़दार नहीं था। आज से तीन साल पहले धांधू ने अपनी जमानत पर अपने साले सालिगराम को बीस हजार रूपया कर्ज दिला दिया था। उन्हें अपनी लड़की की शादी करनी थी। धांधू सालिगराम को मालिक से कर्ज दिलाने में हिचक रहा था पर पत्नी का आग्रह वह टाल न सका। मालिक ने रूपया देते हुए स्पष्ट कहा 'थांधू मैं तुम्हें जानता हूँ सालिगराम को नहीं। यदि सालिगराम रूपया नहीं दे पाते तो तुम्हें देना होगा ।'
धांधू को 'हाँ' कहने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। पिछले तीन साल में सालिगराम मालिक को पचास हजार रूपये दे चुके हैं पर अभी मूल और ब्याज मिलाकर इतना ही बाकी था। मालिक कई बार ताकीद कर चुके थे। उन्हें मूल की उतनी चिन्ता न थी पर ब्याज तो हर हाल में वसूल होना ही चाहिए।
सालिगराम का घर थांधू के घर से बीस किलोमीटर की दूरी पर था । वे दुखी की साइकिल लेकर ससुराल के लिए चल पड़े। ससुराल से पांच किलोमीटर पहले ही साले का लड़का आता हुआ दिखा। निकट आकर उसने प्रणाम करते हुए कहा, 'फूफा मैं आपके ही यहाँ जा रहा था। बाबा का देहान्त हो गया है।'
"कब ?"
'आज तड़के चार बजे ।'
दोनों साथ ही चल पड़े। सालिगराम ने पिता के दाह संस्कार की तैयारी कर रखी थी। धांधू के पहुँचने पर अर्थी उठी । कुवानो के तट पर सालिगराम ने दाह संस्कार किया। गांव के लोग उसमें शामिल हुए ज्ञान की बातें करते हुए।
सायंकाल सालिगराम और धांधू को जब एकान्त मिला तो मालिक जयबहादुर द्वारा पन्द्रह दिन की मोहलत दिए जाने की चर्चा की। सालिगराम इस कर्ज से पिंड छुड़ाना चाहते थे पर इस समय पिता का क्रियाकर्म सामने था। धांधू भी कुछ कह न सके। सुबह चलते चलते सालिगराम ने कहा,'पहुना, सोच रहा हूँ थोड़ी ज़मीन निकाल कर कर्ज़ अदा कर दूँ।'
'पर तुम्हारे नाम ज़मीन आएगी तब तो ? अभी तो दाखिल खारिज में ही पापड़ बेलना पड़ेगा। पन्द्रह दिन में तो यह होने से रहा।'
'हाँ ठीक कहते हो, पर मालिक तंग करेंगे तब ?"
'देखता हूँ।' धांधू ने बीड़ी निकाली, जलाया और चलने को हुए तो सालिगराम की पत्नी ने कहा, 'ननदोई, आप ही का सहारा है।'
घर आकर धांधू को मालिक के कर्ज की चिन्ता सता रही थी । पत्नी भी चाहती थी कि कुछ देकर पिण्ड छुड़ाया जाय। पर कोई चारा दिख नहीं रहा था। अन्न केवल खाने भर को था। भैंस भी बकेन हो रही है। अगर उसे बेच देते हैं तो बच्चों के मुँह में दूध की एक बूँद भी कहाँ जा सकेगी ?
भैंस और खेत यही दो चीजें थीं जिन्हें बेचने पर कुछ रूपया मिल सकता था। भैंस यद्यपि गाभिन हो गई थी पर उसे ही बेचने का निर्णय हुआ । एक बार धांधू की पत्नी रो पड़ी, 'बच्चों के लिए दूध सपना हो जाएगा।' पिता के खोने का दर्द कर्ज के दर्द के नीचे दब गया।
“ले दही' वाली स्थिति थी। बड़ी मुश्किल से भैंस चार हजार में बिकी।
शाम को धांधू और उनकी पत्नी विचार करने लगे। भैंस दो लीटर दूध देती थी। एक लीटर बिक जाता था जिससे बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल जाता था, पर अब ? बच्चों का दूध गया ही, पढ़ाई भी.......। चार बजे के बाद दोनों बच्चे स्कूल से लौटे तो देखा भैंस न खूंटे पर है न नांद पर।
बड़े बच्चे ने मां से पूछा, 'भैंस कहाँ गई माँ ?"
'बिक गई बेटा।'
'क्यों माँ ? क्यों बेच दिया माँ ?"
माँ अपने आँसू छिपाकर बच्चों के लिए एक-एक रोटी और आलू की सूखी सब्जी ले आई।
'मैं नहीं खाऊँगा। बता न माँ, क्यों बेच दिया ?"
इतनी सीधी भैंस........अब हरहट भैंस लाओगी तो मैं नहीं खिलाऊँगा ।'
बड़ा टुनुक गया, छोटा भी रुआंसा हो गया।
माँ को जैसे काठ मार गया हो, वाणी नहीं फूट सकी।
धांधू भैंस को थोड़ी दूर पहुँचा कर लौटे तो बच्चों को दुखी देखकर तिलमिला उठे। दोनों चौखट पर बैठे थे। माँ ने बताया- बच्चे रोटी नहीं खा रहे। धांधू ने सुना। बच्चों को समझाने के लिए स्वयं भी निकट ही बैठ गए।
भैंस धांधू के यहाँ से चली तो गई पर उसे धांधू की पत्नी और बच्चे भूले नहीं। रात में उसने अंडेर मचा दी। नए मालिक ने समझा-नई जगह है एकाध दिन तो अंडेर मचाएगी ही। जब सब लोग सो गए भैंस ने अपना पगहा तोड़ लिया और धांधू के घर की ओर भाग चली। कूदती फांदती सुबह सुबह धांधू के दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। उसकी बोली सुनकर धांधू और उसकी पत्नी उठे। भैंस को नांद पर बांध दिया। भूसा और पानी डालकर थोड़ा आटा मिलाकर साना भैंस खाने लगी।
बच्चे उठे। भैंस को नांद पर देखकर बड़े प्रसन्न हुए। धांधू ने भैंस को लगाया। बच्चे दूध की बाल्टी लेकर घर गए। माँ ने एक एक गिलास दूध दोनों को दिया, यह सोचकर कि बच्चे आज तो दूध पी लें।
'अब बेचना नहीं,' दोनों बच्चों ने आग्रह किया।
सुबह बच्चे स्कूल की तैयारी कर रहे थे उसी समय खरीदार दो लोगों के साथ भैंस को लेने आ गए। धांधू ने उन्हें थोड़ी दूर ले जाकर समझाया। थोड़ी प्रतीक्षा कर लें। बच्चे स्कूल चले जायं तब भैंस को ले जाएँ। वे तीनों दुखी के दरवाज़े पर बीड़ी तम्बाकू पीने लगे।
भैंस बेचने से मिले चार हजार रूपये में से धांधू ने एक हजार रूपये बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए रख लिया। शेष तीन हजार रूपये लेकर वे मालिक के यहाँ पहुँचे । सालिगराम की कठिनाई बताई और तीन हजार रूपये मालिक के पावों पर रख दिया। मालिक भड़क उठे ।
गालियों की बौछार रूपये को उनके मुंशी ने उठा लिया, पर मालिक का पारा आसमान से नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। 'इस शैतान की औलाद को खम्भे में बांध दो। देखते क्या हो ?" वसूली करने वाले को मालिक ने झिड़की दी। वह उठा एक रस्सा ले आया।
गालियां सुनकर धांधू अन्दर ही अन्दर तप रहा था। बांधे जाने पर उसने कोई विरोध नहीं किया। उसके मन में शायद कोई आंधी उठ रही थी पर बाहर सब कुछ शान्त था ।
जहाँ धांधू बँधा था वहाँ से थाने की दूरी मात्र एक किलोमीटर थी । उससे ही सटी बाजार थी। दुखी बाज़ार गया था। उसे पता चला कि धांधू को बांध दिया गया है। उसने दूर से ही धांधू को मालिक के बरामदे में बँधा देखा । चुपचाप गांव लौट गया । धांधू की पत्नी इमरती को बताया ।
'मेरे साथ चल सकोगे' ? इमरती ने पूछा
"कहाँ ?"
'थाने तक ।'
'थानेदार तो मालिक का ही खाते हैं। वे क्या करेंगे ?"
'आखिर कुछ तो...........।’
'कुछ नहीं करेंगे। थानेदार के अफसर हैं सी०ओ०। उनके घर का सारा खर्च मालिक ही चलाते हैं-गोश्त, मछली से लेकर चावल दाल तक। दूध दही भी वही भेजते हैं। सिपाही लोग भी जिसका खाते हैं उसका गाते हैं। मालिक के लोग ही यह सब बताते हैं।
'तो इस जुल्म की सुनवाई नहीं होगी।'
'यहाँ तो नहीं होगी, आगे की मैं नहीं जानता।'
'फरियाद तो करनी है चाहे कोई सुने या न सुने ।
मेरे साथ थाने चल सकोगे ?" इमरती ने दुहराया।
'भाभी, मैं थाने नहीं जा सकता। तुम्हारे साथ थाने जाते ही मालिक मुझे भी तंग करेगा।'
'तो तुम थाने तक भी नहीं चल सकते।'
'नहीं भाभी', कहकर दुखी वहाँ से उठ पड़े ।
इमरती सोच में पड़ गई। क्या थाने अकेले जाए ? थाना तो उसका देखा हुआ है, मालिक का मकान भी। तब तक दोनों बेटे हीरा और मंगल स्कूल से आ गए। उसने दोनों को एक एक रोटी और मिर्चा का अंचार दिया। दोनों ने खाकर पानी पिया। मां का चेहरा देखकर दोनों भैंस के बारे में कुछ पूछना भूल गए।
छोटे बेटे मंगल से कहा, 'बेटा घर पर रहना, कहीं जाना नहीं। अकेले मन न लगे तो दुखी चाचा के लड़कों के संग खेलना। मैं बाजार जा रही हूँ ।"
बड़े लड़के हीरा से कहा, 'चल बेटे, मेरे साथ चल ।'
घर से कभी कभी एक रोटी पा जाने वाला कुत्ता भी साथ-साथ चल पड़ा।
'माई, बाजार से क्या खरीदोगी ?"
'कुछ खरीदना नहीं है बेटा । तू तो बड़ा हो गया है। थाने तक चलना है।'
'क्यों मां, थाने में क्या काम है ?"
'तेरे बापू को मालिक जयबहादुर तंग करते हैं, उसी की शिकायत करने।
'माँ, आज जयराम बता रहा था कि बापू को मालिक जयबहादुर ने बांध रखा‌ है। ऐसा क्यों मां ?
'लम्बी बात है, फिर बताऊंगी, अभी मेरे साथ चल ।'
कुत्ता भी आगे आगे चलता रहा। जब ये दोनों कहीं ठिटकते तो वह भी ठिठक जाता। मालिक के मकान के बगल से ही थाने को रास्ता जाता है। इमरती बच्चे के साथ जब मालिक के मकान के निकट पहुँची तो देखा कि हीरा के बापू एक नल से पानी निकाल कर हाथ-मुहँ धो रहे थे। मालिक ने सात दिन का समय दिया था। यदि सात दिन में रूपया नहीं मिला तो खेत लिखना पड़ेगा। धांधू भी पत्नी और बच्चे को देखकर चौंक पड़े। पूछा, 'क्या कोई और अनर्थ हो गया ?"
'क्या यह कम है हीरा के बापू ?" इमरती रोने को हो आई हीरा तो रोने लगा।
'चुप रहो बेटा,' इमरती ने कहा। आंचल में बंधा हुआ गुड़ धांधू को देकर बोली, 'पानी पी लो, चलो थाने ।' धांधू ने गुड़ का एक टुकड़ा बच्चे को दिया। शेष स्वयं खाकर पानी पिया। पगहे में बंधे ढोर की तरह वे इमरती के साथ थाने की ओर चल पड़े।
थानेदार क्षेत्र में गए हुए थे। थानाध्यक्ष शहर में थे। दीवान जी के सामने जैसे ही तीनों खड़े हुए, उन्होंने पूछा, 'कैसे आए हो ?'
'रिपोर्ट लिखानी है साहब' धांधू ने कहा ।
'कैसी रिपोर्ट ?' दीवान जी ने कुछ डपटते हुए पूछा।
'मालिक जयबहादुर हमें तंग कर रहे हैं साहब।' इमरती ने हाथ जोड़ते हुए कहा। धांधू ने पूरी बात बताई।
'रूपया लिया है तो देना है ही। सख्ती न करने पर कोई देता भी तो नहीं।' दीवान जी ने समझाया।
'रूपये का जुगाड़ करके पिण्ड छुड़ा लो। रिपोर्ट लिखाने से क्या होगा ?
तुम एक कदम चलोगे वे दस कदम चलेंगे। कैसे पार पाओगे तुम ? मेरी राय है तुम घर लौट जाओ। वैसे एस० ओ० साहब शहर गए हैं। यदि तुम्हारी इच्छा रिपोर्ट लिखाने की ही हो तो उनसे मिलकर अपनी तकलीफ बताओ।'
‘आज कुछ न होइ पाई साहब ?' इमरती ने कांपती आवाज़ में पूछा ।
'जब तक एस० ओ० साहब का हुक्म न होगा रिपोर्ट कैसे लिखी जाएगी ?"
दीवान जी ने बताया।
धांधू उठ पड़े। उनके साथ इमरती और बेटा हीरा भी चल पड़ा।
घर पहुँचे ही थे कि मालिक के आदमी आकर धमका गए- 'अब फिर कभी थाने गए तो हड्डी पसली एक नहीं बचेगी।' धांधू ने सुना, इमरती तथा दोनों बच्चों ने भी ।
रात में धांधू और इमरती ने सलाह की। शहर जाकर किसी वकील से मिला जाय।
'पर रूपया ?' इमरती ने प्रश्न किया।
"कुछ लोग बिना पैसे के भी मदद करते हैं।' उसे याद आया एक वकील साहब का नाम जो अक्सर कहा करते थे कि तंग किए गए लोग यदि खड़े हो सकें तो हम मदद करेंगे।
दूसरे दिन धांधू, दुखी और रेख उठान हरी शहर जाकर वकील साहब से मिले। दिन में वे मुकदमें के सिलसिले में अधिक व्यस्त थे। चार बजे उन्हें छुट्टी मिली। घर आए, उन्हीं के साथ धांधू और उनके साथी भी। वकील साहब ने दो अपने सहयोगियों को भी बुलवा लिया। पहले धांधू की पूरी कथा सुनी। पर जैसे ही जयबहादुर के खिलाफ खड़े होने की बात आती, तीनों कांप उठते। वकील साहब और उनके सहयोगियों ने अनेक तरह से समझाया कि तुम लोग खड़े होगे तभी हम कोई मदद कर पाएँगे पर धांधू और उनके दोनों सहयोगियों को जयबहादुर का नाम आते ही जैसे दौरा पड़ जाता। लगभग तीन घंटे तक विचार विमर्श चलता रहा पर धांधू और उनके साथी जयबहादुर के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार न हुए। चाय आई। सबने चाय पी दुखी ने अलग उठकर बीड़ी सुलगा दो-चार कश लिया। वकील साहब ने फिर पूछा, 'आप लोग जयबहादुर के खिलाफ खड़े होंगे या नहीं।' कोई उत्तर नहीं आया। कुछ क्षण प्रतीक्षा करने के बाद वकील साहब झुंझला उठे, 'तुम सब केंचुए हो। हम तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकते। अपने अपने घर जाओ।' वकील सहाब उठ गए पर अन्य कोई नहीं उठा।
एक क्षण सन्नाटा रहा। फिर खुसुर-फुसुर शुरू हुई। चर्चा होने लगी । नव जवान हरी ने कुछ अँगड़ाई ली। वकील सहाब का सात्विक आक्रोश कुछ काम करने लगा। 'आखिर खड़ा तो होहिन का परी, उसने कहा । 'बिना कुछ किए तो गांव में रह पाना ही मुश्किल है,' धांधू ने जोड़ा। दुखी ने भी हुंकारी भरी ।
'हम लोग खड़े होंगे, वकील साहब को बुलाया जाय,'
हरी ने कहा। वकील साहब आए। सभी से फिर पूछा, 'आप लोग खड़े होंगे ?"
'हाँ बाबू' धांधू ने कहा। 'तो ठीक है। थाने का हाल में अच्छी तरह जानता हूँ। बिना प्रदर्शन और घेराव के जयबहादुर के खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकेगी। रिपोर्ट लिखाने का एक अदालती तरीका और है पर वह जयबहादुर के लिए बहुत कारगर नहीं होगा। क्या गांव जंवार के सौ पचास लोग तुम्हारे समर्थन में आ सकते हैं ?' एक क्षण फिर सन्नाटा 'देखो धांधू, तुम अपने गांव में एक बैठक रखो इतवार की शाम को हम लोग आएँगे और लोगों को खड़ा करने की कोशिश करेंगे। आज शुक्रवार है परसों शाम को हम आएँगे।' विचार विमर्श खत्म हुआ क्रियान्वयन के डग आगे बढ़े। धांधू, दुखी और हरी गांव के लिए चल पड़े।
हरी गाँव के लोगों को इकट्टा करने में लग गया। इतवार की शाम को सवा सौ स्त्री पुरुष इकट्टा हुए। वकील साहब और उनके साथियों ने अन्याय के खिलाफ खड़े होने का पाठ पढ़ाया। अन्त में सभी जुल्म के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार हुए। वकील साहब ने कहा, 'सोच समझ लो। 'सब सोचा समझा है साहब,' समवेत स्वर उभरा।
"तो ठीक है बुधवार को ग्यारह बजे हम लोग जनपद मुख्यालय पर प्रदर्शन कर धांधू की एफ०आई०आर० दर्ज कराने का प्रयास करेंगे।'
हरी, धांधू और दुखी प्रदर्शन के लिए लोगों को जुटाने में लग गए। गांव से एक सौ पांच लोग प्रदर्शन के लिए चले जिसमें पैंतालीस महिलाएँ थीं । दो ट्रालियों में महिलाएँ तथा पुरुष बैठे। कुछ लोग साइकिल से थोड़ा पहले ही चल पडे। जयबहादुर को भी पल पल की सूचना थी। उनके दबाव में कुछ लोग रास्ते से कन्नी काट गए। पैंतालीस महिलाएँ और तीस पुरुष आखिरकार कचहरी प्रांगण में पहुँच ही गए। वकील साहब अपने कुछ साथियों के साथ वहाँ उपस्थित थे। कचहरी थी ही, इन लोगों की भीड़ में कुछ तमाशबीन भी शामिल हो गए।
इमरती के नेतृत्व में जैसे महिलाओं ने नारा लगाया, 'ना हम कसाई की गाय, ना हम सहेंगे अन्याय । जुल्मियों को सजा दो।' कचहरी में इकट्टा लोग उधर ही देखने लगे। जुलूस पुलिस अधीक्षक कार्यालय की ओर बढ़ा। पुलिस सतर्क हुई उसने घेरा बना लिया। वकील साहब ने प्रदर्शन सम्बन्धी वैधानिक कार्यवाही सम्पन्न कर ली थी। ज्ञापन भी तैयार कर लिया था। जयबहादुर के कुछ आदमियों ने भी प्रदर्शन को देखा। वे किटकिटाते, मन मसोसते रहे। पुलिस आफिस परिसर प्रदर्शनकारियों से भर गया। सभी धरने पर बैठ गए। उनकी आवाज पुलिस अधीक्षक तक पहुँची। पुलिस के लोग दौड़ भाग करते रहे। कुछ देर बाद पांच लोग पुलिस अधीक्षक से वार्ता करने के लिए बुलाए गए। वकील साहब उनके एक सहयोगी, धांधू, इमरती और हरी वार्ता के लिए गए। वकील साहब ने ज्ञापन दिया। धांधू ने आप बीती सुनाई। पुलिस अधीक्षक ने कहा, 'हम जाँच करा लेते हैं।' पर वार्ताकार इस बात पर अड़े रहे कि धांधू की रिपोर्ट लिखी जाए। अंततः पुलिस अधीक्षक सहमत हुए। वार्ताकार यह चाहते थे कि रिपोर्ट की तफ्तीश क्षेत्रीय सी०ओ० के बदले किसी दूसरे सी०ओ० को दे दी जाय। इसके लिए पुलिस अधीक्षक तैयार नहीं हो रहे थे पर जब धरना खत्म नहीं हुआ उन्हें एक दूसरे सी०ओ० को जाँच सौंपनी पड़ी। पहली बार इमरती और उनके साथियों को समूह की ताकत का एहसास हुआ। आत्म सम्मान से भरे हुए वे गांव लौटे।
थाने पर सूचना गई। रिपोर्ट लिखी तो गई पर क्षेत्रीय सी०ओ० ने तत्काल जयबहादुर को फोन पर सूचना दी। उन्हें परामर्श दिया कि वे हाईकोर्ट चले जाएँ। रिपोर्ट को निरस्त कराने या गिरफ्तारी पर रोक का आदेश लेकर आएँ अन्यथा। इस सेवा के लिए जयबहादुर ने रात में पाँच सौ के नोटों की एक गड्डी सी०ओ० के घर पहुँचाई।
हाईकोर्ट ने रिपोर्ट को निरस्त तो नहीं किया पर गिरफ्तारी पर तात्कालिक रोक लगा दी। चार्जशीट लगने पर रोक स्वतः समाप्त हो जाएगी। जय बहादुर ने हाई कोर्ट में शपथ पत्र दिया कि धांधू ने न तो कभी हमसे कोई लेन देन किया और न हमने कभी उन्हें तंग किया। उन्हें फर्जी मामले में फंसाया जा रहा है। वकील साहब ने जो धांधू के मामले में अगुवाई कर रहे थे जयबहादुर के शपथ पत्र की प्रति मंगवा ली। शपथ पत्र की बात धांधू के गांव वालों को ज्ञात हुई तो वे आतंक के बीच भी मुस्करा उठे। छोटे-छोटे सुख कितने महत्वपूर्ण होते हैं। ।
इसी बीच जय बहादुर के आदमियों ने एक दूसरे कर्जदार को पकड़ा। उसने कहा, 'क्या हमको भी धांधू बनना पड़ेगा।' जय बहादुर के आदमी चुपचाप लौट आए।
कहा जाता है कि धांधू द्वारा लिखाई रिपोर्ट की जाँच सम्बन्धित सी०ओ० ने पूरी कर ली है। चार्जशीट भी बन गई है पर.....।
धांधू और इमरती को दौड़ते हुए तीन वर्ष हो गए हैं। चार्जशीट का पता नहीं चल रहा है। वकील साहब भी प्रयास कर रहे हैं पर उस पंजी का मिलना ही स्वर्ग से तरोई तोड़ने जैसा है। जय बहादुर का धन्धा थोड़ा ढीला ज़रूर पड़ा है पर वे सुरक्षित अपने आवास पर बैठे कंचन की हनक का बखान करते हैं ? छोटी छोटी बातों के लिए भी प्रदर्शन और घेराव ही क्या विकल्प है ? इस बीच धांधू और इमरती दौड़ते रहे। उनके दोनों बेटों की पढ़ाई छूट गई। काम की तलाश में हीरा मुंबई और मंगल लुधियाना चला गया है। हीरा की मुंबई से चिट्टी आई है। लिखा है, 'बापू यहाँ नव निर्माण वाले बहुत तंग कर रहे हैं। तीन दिन पहले मुझे मार दिया था। दो दिन पड़ा रहा। यह कहो कहीं फूटा नहीं था। वे कहते हैं तुम्हारा यहाँ क्या है ? मुंबई तो मराठों की है। बापू, क्या मुम्बई अपने देश में नहीं है ? यहाँ रहने की बड़ी तंगी है। सड़क किनारे रात में थोड़ी देर सो लेता हूँ। क्या करूँ बापू ? माई को प्रणाम । चिट्ठी जरूर देना।' चिट्ठी बाँचकर धांधू और इमरती का सारा शरीर सुन्न हो गया।
आज धांधू और इमरती दोनों चार्जशीट के बारे में पता करने शहर आए हैं। उनके चेहरे पर थकान के चिह्न स्पष्ट दिखते हैं पर जयबहादुर के आदमियों के चेहरों पर मुस्कान लौट आई है। इमरती और धांधू वकील साहब से मिलकर चार्ज शीट के लिए अगले कदम की तैयारी पर विचार विमर्श कर रहे हैं। जय बहादुर के लोग छाया की तरह विचार विमर्श का जायजा लेते फिलहाल गदौरी में तम्बाकू ठोंक रहे हैं।

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