सलमा का स्वप्न Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सलमा का स्वप्न

रामधीरज को जो भी मिल जाता उसका हाल चाल पूछते। खुश रहते पर बात करते समय कुछ ज्यादा ही बोल जाते। किसी ने उन्हें 'गप्पू' कह दिया। अब यह नाम चल पड़ा। गांव जवांर ही नहीं नाते-रिश्ते के लोग भी उन्हें गप्पू कहते। गप्पू छह दिन रिक्शा चलाकर सातवें दिन आराम करते। आराम भी वे चारपाई पर लेटकर नहीं करते। कुछ खा पी कर तिराहे पर आ जाएँगे। तिराहे से सटी पुलिया पर अड्डा जमा लेंगे। लोगों से हाल चाल लेते समय बिताएंगे। रिजवान से उनकी खूब पटती है। रिजवान भी रिक्शा चलाते हैं। पर गप्पू की तरह हफ्ते में एक दिन की छुट्टी नहीं ले पाते। आज जैसे ही वे घर से निकल कर तिराहे तक आए गप्पू मिल गए।
'आज आराम करो', गप्पू ने डाटा। 'यह देह भी आराम चाहती है। तीसो दिन जुते रहते हो। मशीन भी चौबीस घंटे नहीं चल पाती। उसे आराम देना पड़ता है। तुम आदमी हो कि घनचक्कर।' घनचक्कर सुनकर रिजवान हँस पड़े। गप्पू ने रिजवान को भी पुलिया पर बिठा लिया।
'घर में आटा तो है पर सब्जी नहीं। रिक्शा नहीं निकालूँगा तो शाम को नमक रोटी खाना पड़ेगा।'
'खा लेना। नमक तो है न ।
'हाँ।'
'मेरी बात मानो रिजवान। दस रूपये रोज बचाकर रखो। छह दिन में साठ रूपये हो जाएँगे।
सातवें दिन आराम करो। बचाए हुए साठ रूपये से उस दिन का काम चलाओ।'
'तो तुम्हारी जेब में साठ रुपये हैं न?"
'क्यों नहीं ?"
'तब ठीक है। आज साग सब्जी का काम चलाओ। आगे से ऐसा ही करेंगे।
पूरे रमजान भर रिजवान रिक्शा चलाकर ईद की खुशियों का जुगाड़ करते रहे। पत्नी सलमा मेहनती और खुश रहने वाली है। यह ऐसा परिवार है जिसे रोज कुँआ खोदकर पानी पीना होता। बचत करना कठिन हो जाता। तीन बच्चों की परवरिश भी करनी होती। सलमा खुद तो अक्षर चीन्ह लेती थी पर चाहती थी बच्चे कुछ पढ़ लिख जाएँ।
गप्पू की पत्नी ने दो बच्चों के बाद जब नलबन्दी कराने का फैसला लिया तो उसने सलमा से चर्चा की। यह भी कहाकि आपरेशन के समय उसके साथ चले। सलमा तैयार हो गई। दोनों अस्पताल तक साथ गईं। हँसी-खुशी के बीच वह आपरेशन कराकर लौटी तो उसने स्वयं भी अपने बारे में सोचना शुरू किया। गप्पू की पत्नी का निरीक्षण करती रही। जब उसे किसी काम में कोई दिक्कत नहीं हुई तो सलमा का उत्साह बढ़ा। उसने रिजवान से बात की। वे चौके जरूर पर बच्चों की परवरिश के प्रश्न पर सहमत हो गए। गप्पू की पत्नी को साथ लेकर सलमा गई और नलबन्दी करा ली। पता लगने पर एक मौलवी साहब जो पहले भी आया करते थे, आए कहने लगे, 'तुमने यह ? खुदा के काम में दखल।' सलमा ने सीधे जवाब दिया था, 'तीन ही बच्चों की परवरिश में दिक्कत आ रही है मौलवी साहब, आप भी।'
मौलवी साहब चुप हो गए थे पर बराबर कुढ़ते रहे। सलमा को, जो ठीक जँचता, बेहिचक करती। स्वयं खुश रहती और छोटी सी गृहस्थी में बच्चों को भी खुश रखती। ईद चार दिन बाकी रह गया तो बड़के ने पूछा, 'अम्मी कपड़ा नहीं बनवाओगी। 'बनेगा बेटे' उसने स्नेह से उत्तर दिया।
अपनी सन्दूक में से पैसों की पोटली निकाली। नोट सभी कड़े पर गिनती में कम थे। पचास के सात और दस के बीस नोट यही उसकी जमा पूँजी थी। वह चाहती थी बच्चों के कपड़े भी ढंग के बन जाएँ। अब सिले सिलाए कपड़े खूब बिकते। सिलाई के झंझट से बचने के लिए लोग इन पर टूट पड़ते। बड़कू को लेकर वह बाजार चली गई। जो ही सूट बड़कू पसन्द करता उसी का दाम अम्मी की पहुँच से बाहर। बड़कू कपड़े की ओर देखता फिर अम्मी की और उसने अम्मी से कहा, 'अम्मी जितना पैसा है उसी में जो ठीक समझो खरीद लो । दाम तुम पसन्द कर लो रंग में पसन्द कर लूँगा। सलमा को राहत मिली। उसने तीनों बच्चों के लिए कुर्ता पायजामा खरीदा। मझले के लिए चप्पल भी खरीदनी थी। कुल पचास रूपये बचे थे। उसने मझले के लिए हवाई चप्पल ली और घर लौट पड़ी। लौटते समय बड़कू को पांच रूपये दिया कि केला ले आए। तीन केले मिले। 'बाजार में आग लगी है', सलमा ने अनुभव किया। बड़कू के हाथ में केला और सलमा के हाथ में तीनों बच्चों के कपड़े। सलमा ने छह रूपये में एक किलो आलू खरीदा। घर पहुँचते मझले और छोटे अपने अपने कपड़े देखकर बड़े खुश।
'बड़कू भैया, कपड़ा बहुत अच्छा लाए हो।' छोटे ने कहा।
'बड़कू भैया की होशियारी का जवाब नही।' मझले ने जड़ दिया।
कपड़े देखकर तीनों बैठ गए। बड़कू ने केले निकाले। इफ्तारी के समय एक एक ले लिया जाएगा' छोटे ने कहा।
'नहीं छोटे घर में पांच लोग हैं। अम्मी और अब्बू को नहीं दोगे।' 'अम्मी नहीं लेगी। देकर देख लेना।' छोटे ने गाल खुजाते हुए कहा। 'अम्मी कहेगी कि तुम लोग खा लो। पर हम लोगों का भी कोई फर्ज़ है छोटे ।' बड़कू ने समझाया।
'बात तो तुम ठीक कहते हो बड़कू भैया।' छोटे ने भी हामी भरी।
मझला दोनों की बात सुनता रहा। बोल पड़ा 'बड़कू भैया हम लोग अब्बू और अम्मी को एक एक केला खिलाएँ। हम लोग एक केले के तीन हिस्से कर एक एक टुकड़े ले लें।'
'बहुत ठीक मझले तेरी सूझ को दाद देनी पड़ती है। यही किया जाए।' बड़कू भी खुश हुए। केले को पन्नी में रखकर छिपा दिया गया। एक केले में तीन का विभाजन तीनों खुश होते रहे।
शाम को रिजवान लौटे। सलमा ने बच्चों को बताया कि कल रमजान का आखिरी जुमा है। बच्चे खुश हुए। 'अब्बू रिक्शा चलाने जाएँगे?' बड़कू ने पूछ लिया। 'जाऊँगा बेटे', रिजवान बोल पड़े। 'त्योहार के लिए कुछ सामान कैसे आएगा?"
'तो यह बच्चों के हिस्से का केला हम लोग खा रहे हैं। सलमा बोल पड़ी। 'नहीं अम्मी, यह आप लोगों का हिस्सा है। हम लोग अपना हिस्सा खा रहे हैं। घर में मिल बाँट कर खाना चाहिए, यह तो तुम्हीं बताती हो अम्मी ।' छोटे के कहते ही रिजवान और सलमा की आँखें भर आईं। पर तीनों बच्चें चहक उठे थे। घर में बिजली थी नहीं। वैसे भी गाँव में रहती ही कहाँ है? तीनो लालटेन जला पढ़ने बैठ गए। सलमा ने रिजवान को बताया कि पैसे बच्चों के कपड़े खरीदने में ही खर्च हो गए। मैं अपना कपड़ा साफ कर लूँगी। तुम्हारा एक धराऊँ कुरता है साफ कर दूँगी। चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।' कहकर सलमा आटा गूंथने लगी।
रिजवान का अन्तर्मन हाहाकार करने लगा। ईद में भी वह सलमा के लिए कपड़ा नहीं ला सका। नहीं, नहीं वह और मेहनत करेगा। जुमे के दिन रिजवान रिक्शा चलाने के लिए जाने लगे तो सलमा से कहा, 'हो सकता है शाम को न आ पाऊँ। तुम लोग इफ्तारी कर लेना। हम शहर में ही कर लेंगे।' 'क्यों,' सलमा ने पूछा।
'आखिरी जुमा है । बरकत भाई ने शाम को दावत पर बुलाया है।'
शहर पहुँच कर रिजवान ने रिक्शा निकाला। सड़क पर आए ही थे कि स्टेशन की सवारी मिल गई। स्टेशन पहुँचने पर जैसे ही उन्हें दस का नोट मिला उन्होंने माथे लगाते हुए खुदा को धन्यवाद दिया।
सायं पांच बजे रिक्शा जमाकरते गप्पू को रिजवान ने देखा गप्पू रिजवान के दोस्त ही नहीं पड़ोसी भी हैं। सुख-दुख के साथी।
'गप्पू भैया यह दो किलो आलू और सौ ग्राम खजूर घर दे देना। आज जरा दावत में रहूँगा।'
'अपने दावत उड़ाओगे और घर के लोग आलू खाएँगे?' गप्पू ने कुछ डाटते हुए कहा। रिजवान हँसता रहा। उसे सवारी मिल गई, लेकर चला गया।

गप्पू ने सोचा मुझे इफ्तारी के पहले घर पहुँच जाना चाहिए। दो दर्जन केला खरीदा। एक अपने परिवार के लिए दूसरा रिजवान के परिवार के लिए। घरमुँहा जल्दी जल्दी चल पड़ा। घर पहुंचते ही रिजवान का दिया सामान तथा एक दर्जन केला सलमा को सौंप दिया। 'खुद आज दावत उड़ा रहे हैं यह तुम्हारे लिए है।' गप्पू ने हँसते हुए कहा। 'कोई और जरूरत हो तो बताना।' 'नहीं भैया काम भर के हैं.............।' रिजवान ने जुमे के दिन और रात में रिक्शा चलाया। आँख कडुवा रही थी लेकिन रूपये कुल तीन सौ हो रहे थे। उसने शनिवार दिन को भी रिक्शा चलाने का निर्णय किया। सलमा के कपड़े भर के रूपये तो हो ही जाएँ। पैडिल घुमाते वह बराबर सोचता रहा। शाम तक आखिर वह चार सौ पच्चीस रूपये जोड़ पाया। पैंतालीस रूपये रिक्शा किराया दिया उसके हाथ तीन सौ अस्सी रूपये बचे। हरी सब्जी लेने के लिए सोचने लगा पर दाम सुनकर हिम्मत न पड़ी। दो किलो आलू और बच्चों के लिए सौ ग्राम खजूर लेकर वह घर चल पड़ा। वह जल्दी से जल्दी सलमा के हाथों में रूपया देना चाहता है। ज्यों ज्यों घर नजदीक आता गया उसकी चाल तेज़ होती गई। गति देखकर दिवाकर भी क्षितिज पर मुस्करा उठे ।
शाम को सलमा भी रिजवान का इन्तजार करती रही। जैसे रिजवान दिखा बच्चे खुश होकर दौड़ पड़े। छोटे ने आलू खजूर ले लिया। सलमा रिजवान को देखती रही। आज बहुत थके लग रहे हैं उसने अनुभव किया। रिजवान घर के अन्दर चला गया। पुकारा, 'बड़कू की अम्मा'। 'आई' कहकर सलमा अन्दर आई। तब तक रिजवान तख्ते पर बैठ रूपये जेब से निकाल चुके थे। सलमा के आते ही उसने हाथ में देकर कहा, 'अपने लिए कपड़े ले आना। ईद अभी दो दिन बाद है तब तक कुछ और कमा लूँगा।'
'तुम्हारी आँखें बता रही हैं कि तुम रात में भी रिक्शा चलाते रहे। इतनी तकलीफ उठाने की ज़रूरत क्या थी? कहते हुए सदा खुश रहने वाली सलमा की आँखें छलछला आईं।
"अभी हाथ-पाँव साबुत हैं सलमा। थोड़ा काम कर लेने से........।’
तीनों बच्चे चटाई उठा लाए। हाथ पैर थोकर नमाज के लिए तैयार हुए। रिजवान ने भी वजू किया। नमाज पढ़ी। नमाज खत्म होते ही 'बड़कू बेटे' सलमा ने पुकारा। 'चूल्हे पर पानी गरम करने के लिए रख दो बेटे अब्बू के पैरों को गरम पानी से हलके हलके सेंकते हुए दबा दो ।'
‘मैं भी दबाऊँगा अम्मी', छोटे बोल पड़ा। बड़कू भगोने में पानी रख उपले की आंच में गरम करने लगा। छोटे भी आस पास लगा रहा। मझला लालटेन साफ कर जला लाया।
पानी जैसे नीम गर्म हो गया तीनों अब्बू के पैरों को सेंकने और दबाने लगे। रिजवान के मना करने पर भी तीनों अब्बू के पैरों को दबाते रहे।
'अब बन्द करो बेटे तुम्हारे अब्बू कोई बूढ़े नहीं हो गए हैं।' रिजवान ने बच्चों से कहा।
सलमा ने सब्जी बना कर रख ली थी। आटा भी गुंथा रखा था। रोटियाँ सेंकने लगी। मोटी रोटियाँ उपले की आग में फूल कर महकती हुई। रोटियाँ सिंक गईं तो सभी ने बैठकर खाया। घर में सिंकी रोटियों की मिठास कुछ और ही होती है।
खाना खाकर तीनो बच्चे लालटेन के पास बैठकर पढ़ने लगे। रिजवान को नींद घेरने लगी। वे लेट गए। सुबह रिजवान चलने लगे तो कहते गए 'अपने लिए कपड़े ले आना।'
बच्चे स्कूल से आ गए तो सलमा ने बड़कू से कहा, 'बेटे छोटे को सँभालना। मैं मझले के साथ बाजार जा रही हूँ।'
'ठीक है अम्मी' बड़कू ने कहा।
सलमा मझले के साथ बाजार जाते सोचती रही मेरे कपड़े के लिए दिन रात रिक्शा चलाया। मेरा भी फर्ज बनता है। दूकान पर पहुँचते उसने कुर्ता पायजामा दिखाने के लिए कहा 'कितने रूपये तक? दूकानदार ने पूछा। 'कपड़ा जरा ठीक हो, किफायती भी।' सलमा ने कहा। 'ठीक है दिखाता हूँ।' कहते हुए दूकानदार ने कुर्ते पायजामे की एक गड्ड़ी सामने खोल दी। कपड़ों को देखकर मझला बहुत खुश हुआ। सलमा ने कपड़े को जाँचा । दाम सुनकर वह घबड़ा गई। दूकानदार ने दूसरी गड्डी दिखाई। अब दाम उसकी पहुँच के अन्दर रंग तय करने में मदद की मझले ने कुर्ता पायजामा लेने के बाद कुछ पैसे बच रहे थे। एक दुपट्टा अपने लिए ले लूँ । उसने सोचा । दुपट्टे भी कई रंग के अलग अलग दामों के थे। अपनी पहुँच के अन्दर उसने एक दुपट्टा लिया। कपड़े की दूकान से बाहर निकली। दो किलो आलू, आधा दर्जन केला और चार अण्डे लेकर वह लौट पड़ीं। रोजा इफ्तारी के लिए तैयारी भी करनी होगी।
सीमित साधनों में हँसी-खुशी का परिवेश निर्मित करना कठिन होता है। सलमा और रिजवान की यह जोड़ी घर को अपने स्नेह से सींचती रही, बच्चों को कुछ बनाने का सपना पालते हुए।
शाम को रिजवान घर लौटा। अस्सी रूपये कमा पाया था। लाकर सलमा के हाथ में रखते हुए पूछा, 'अपने लिए कपड़ा ले आई ?” 'बाजार गई थी।'
'क्या कपड़ा नहीं लाई?"
'लाई' कहते हुए सलमा उसी के बगल में तख्ते पर बैठ गई। स्नेह से भीगे शब्दों में कहना शुरू किया, 'देखो तुम्हें ईद की नमाज पढ़ने जाना होगा।
मैं तो घर में ही रहूँगी। तुम्हारे लिए कुर्ता पायजामा और अपने लिए दुपट्टा ले आई हूँ। मेरी एक कमीस साफ है। काम चल जाएगा, चिन्ता न करो। इफ्तारी का समय हो रहा है। हाथ मुँह धोओ। मैं इन्तजाम करती हूँ।' कहकर वह उठी। पानी लाकर रख दिया।
'सलमा' रिज़वान के मुँह से निकला।
'कहो ?',
'मैं बेपढ़ आदमी और तुम............।'
सलमा ने रिज़वान के मुँह पर हाथ रख दिया, कह पड़ी, 'घर ऐसे ही चलता है बड़के के अब्बू ।'