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जिन्दगी यहीं खत्म नहीं होती


कल केन्द्र सरकार ने शासकीय कर्मचारियों, शिक्षकों के लिए छठे वेतन आयोग की संस्तुतियों को मंजूरी दे दी। आज के अखबार वेतन आयोग की रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणियाँ देने में एक दूसरे से धक्कामुक्की करते दिखाई पड़ रहे हैं। समाचार चैनल इसे रात से ही मुख्य खबर के रूप में प्रसारित कर रहे हैं। इसी वर्ष संसद का चुनाव होना है। सरकार कर्मचारियों शिक्षकों को नाराज कर जोखिम नहीं लेना चाहती। इसी लिए नए वेतन को चट स्वीकृति मिली और चालीस प्रतिशत अवशेष के साथ पट भुगतान हुआ। छुट्टियों आदि की कटौती को सरकार ने टाल दिया। प्रायः ऐसा होता रहा है। कार्यात्मक गुणवत्ता का प्रश्न पीछे छूट जाता है।
आज नेहा और स्वाती कक्षा ग्यारह में गणित संवर्ग में पढ़ने वाली दो लड़कियाँ अपनी पुरानी साइकिल से स्कूल के लिए चलीं। दोनों के पिता किसान हैं चार अक्षर पढ़े भी। इसीलिए चाहते हैं कि बच्चियाँ पढ़ लिख जाएँ । दोनों शुरू में पढ़ने में अच्छी थीं। जब तक विद्यालय में अध्यापिकाएं पढ़ाती रहीं पाठ्यक्रम भी बहुत विस्तृत नहीं था, वे आगे बढ़ती रहीं । कक्षा ग्यारह में उन्हें कुछ विशेष कठिनाई दिखाई दी। गांव से थोड़ी दूर निकलने पर स्वाती ने नेहा से कहा, 'कैसे हम लोग पास होंगे नेहा ?"
'क्या बताएँ स्वाती ? बहिन जी कुछ सुनती नहीं। बड़ी बहिन जी भी कुछ नहीं करतीं।'
'आज बहिन जी से कहा जाय कि हम लोग टयूशन नहीं कर सकते। कोचिंग में भी नहीं जा सकते। हमारे लिए क्लास ही का सहारा है। बहिन जी क्लास लीजिए।'
'बहिन जी नाराज़ हो जाएँगी।'
' कहकर देखा तो जाय श्वेता।'
'चलो आज कहा जाय।’
दोनों ने साइकिल की रफ़्तार बढ़ाई। नौ बजकर पचास पर ही स्कूल पहुँच गईं। नौ पचपन पर प्रार्थना की घण्टी बजी। आई हुई बच्चियाँ यंत्रवत उसमें शामिल हो गईं। दो अध्यापिकाएँ भी पहुँच गई थीं। बड़ी बहिन जी का कमरा बन्द था। प्रार्थना समाप्त हुई। बच्चियाँ अपनी-अपनी कक्षाओं में जाने लगीं।
सत्ताइस अध्यापिकाओं में से बारह ही पहले घण्टे तक पहुँच पाई थीं। जिन कक्षाओं में अध्यापिकाएँ नहीं पहुँची लड़कियाँ बाहर आकर इक्कल दुक्कल खेलने लगीं।
श्वेता और नेहा का पहला घण्टा भौतिक विज्ञान का था। भौतिक विज्ञान के अध्यापक नीरेश गुप्ता समय से आ जाते थे। कक्षा में पढ़ाते भी थे पर ऐसा कुछ छोड़ जाते थे जिससे बच्चियाँ उनसे टयूशन पढ़ने के लिए बाध्य हो जाएँ। श्वेता और नेहा को छोड़कर सभी बच्चियाँ उनसे टयूशन पढ़ती थीं। इसीलिए कक्षा में कम ही बच्चियाँ आतीं। दूसरा घण्टा हिन्दी का था । हिन्दी प्रवक्ता सुधारानी आ गई थीं पर वे कक्षा में नहीं गईं। लड़कियाँ कुछ देर तक बैठी रहीं फिर कक्षा के बाहर आ गईं। कुल तेरह बच्चियाँ ही थीं। कभी कभी मैडम कहतीं भी साठ बच्चियों में से तेरह को क्या पढ़ाऊँ? पर आज स्थिति दूसरी थी। रसायन विज्ञान की प्रवक्ता सुरेखा केन्द्रीय छठे वेतन मान की प्रति इन्टरनेट से निकलवा लाई थीं। उसे देखकर सब अपनी अपनी बढ़ोत्तरी का हिसाब लगाने लगीं। यद्यपि अभी राज्य सरकार को निर्णय लेना बाकी था पर अध्यापकाओं को चैन कहाँ? तीसरे घण्टे में तीन अध्यापिकाओं को छोड़कर कोई कक्षा में नहीं गया। स्टाफ रूम में गुणा-भाग ही होता रहा। बालिकाएँ भी धीरे धीरे कक्षा के बाहर होने लगीं। कुछ गपशप करने कुछ खेलने का जुगाड़ करने में व्यस्त हो गईं।
श्वेता और नेहा रसायन विज्ञान की प्रवक्ता से मिलकर अपनी कठिनाई बताना चाहती थीं पर उन्हें गुणा भाग में व्यस्त देखकर बात करने का साहस न जुटा सकीं।
वे दोनों भी आकर मैदान में बैठ गईं। कुछ बच्चियाँ और भी आकर बात करने लगीं। टयूशन या कोचिंग में पढ़ने वाली बच्चियाँ सप्ताह में एक-आध दिन आ जाती। श्वेता और नेहा रोज आतीं। उन्हें कक्षा अध्यापन का ही सहारा था। गणित और अंग्रेजी की प्रवक्ता नियमित कक्षाएँ लेतीं। कम बच्चियाँ होने पर भी वे कक्षा न छोड़तीं। श्वेता और नेहा उनकी पढ़ाई से लाभ उठातीं।
कठिनाई रसायन विज्ञान की प्रवक्ता सुरेखा के साथ थी। उन्होंने कक्षा में पहले ही कह दिया था- 'तुम लोग टयूशन या कोचिंग में पढ़ते हो कक्षा में आने की जरूरत नहीं है। कभी-कभी हाल-चाल लेने आ जाया करो। वह प्रायः कक्षा में नहीं जातीं। कभी जातीं भी तो किस्से कहानी बताकर चली आतीं। रसायन विषय से लगता था उन्हें एलर्जी है। ऐसे ही एक दिन उन्होंने कक्षा में पूछ लिया, 'क्या कोई ऐसी भी लड़की है जो टयूशन में
श्वेता और नेहा खड़ी हो गईं। उन्हें बहुत अटपटा लगा। कहा, 'केवल दो के लिए कक्षाएँ तो नहीं चल सकतीं। ‘तुम लोग भी टयूशन पढ़ो। पढ़ने तुम चली हो विज्ञान और वह भी मुफ्त।’ अन्य बच्चियाँ हँस पड़ीं। श्वेता और नेहा कट कर रह गईं। श्वेता कहना चाहती थी, बहन जी आप भी मुफ्त में वेतन लेती हैं पर कह न सकी। ओठ थरथराए ज़रूर पर जबान नहीं निकली।
उसी दिन से श्वेता और नेहा उन्हें प्रतिपक्षी की तरह दिखाई पड़तीं। जब भी ये बच्चियाँ उनके सामने पड़तीं, उनका चेहरा लाल हो जाता। इसके विपरीत अंग्रेजी और गणित की प्रवक्ता इन बच्चियों की प्रशंसा कर प्रोत्साहित करतीं। दोपहर तक विद्यालय बच्चियों से खाली होने लगा। गणित पढ़कर श्वेता और नेहा ने भी साईकिल निकाली और घर की ओर चल पड़ीं। टयूशन कराना उनके पिता की सामर्थ्य के बाहर था। थोड़ी खेती से घर का खर्च ही मुश्किल से निकलता था। कभी कभी अरहर की फसल नहीं हो पाती तो खरीद कर दाल खा पाना संभव न हो पाता।
पैंडिल पर जोर देते हुए नेहा ने कहा, श्वेता रसायन में कैसे काम चलेगा।' 'एक पेपर की कुँजी तुम खरीद लो एक पेपर की मैं खरीद लूँगी। दोनों मिलकर पढ़ लेंगे। बहिन जी हम दोनों के लिए क्लास क्यों लेंगी?' 'ठीक कहती हो श्वेता । बहिन जी के ही हाथ में प्रायोगात्मक के अंक हैं। अगर रुष्ट हो जाएँगी तो हम लोग अच्छे अंक नहीं पा सकेंगे।
'प्रयोगात्मक कार्य भी तो नहीं कराया जाता। भूगोल की बहन जी रोज लड़कियों को लेकर मैदान में जुटी रहती हैं पर हमारी सुरेखा बहन जी जैसे कुछ न करने के लिए ही आई हैं।'
दूसरे दिन दोनों दस दस किलो गेहूँ की मुटरी अपने घरों से बांधकर लाई। बाजार में बेचा। उसी से जाकर रसायन विज्ञान के दोनों पर्चों की कुंजियां खरीदी एक की श्वेता ने एक की नेहा ने। कुंजियों के सहारे पढ़ने लगीं।
नेहा और श्वेता ने सभी किताबें मिलकर ही खरीदी थी। आपस में अदल-बदल कर दोनों पढ़ती रहतीं। श्वेता और नेहा के यहाँ गेहूँ ही खाने से कुछ अधिक पैदा हो पाता। उसी को बेच कर कपड़ा लत्ता, घरेलू सामान आता। लड़कियाँ अपनी पढ़ाई का खर्च भी गेहूं बेचकर ही पूरा करतीं।
फरवरी में प्रयोगात्मक परीक्षा की तिथियाँ तय हुई। भौतिकी के प्रवक्ता नीरेश जी ने बताया कि हर लड़की को पचास रूपया जमा करना होगा प्रयोगात्मक परीक्षा के खर्चे के लिए। सभी लड़कियों ने जमा किया। श्वेता और नेहा भी पाँच पाँच किलो गेहूँ घर से लाई बाजार में बेचा और पचास-पचास रूपया जमा कर दिया।
दो दिन बाद रसायन विज्ञान की सुरेखा जी ने हर बच्ची से प्रयोगात्मक परीक्षा के सौ रूपये जमा करने को कहा। सभी बच्चियाँ लाकर जमा करने लगीं। श्वेता और नेहा ने भी दस दस किलो गेहूँ कैरियर में बाँधा। लाकर बाजार में बेचा पर आज दूकानदार ने नौ रूपये किलो ही गेहूँ खरीदा। दोनो को नब्बे नब्बे रूपये ही मिले। लड़कियों ने दूकानदार से अनुरोध किया कि आज सौ सौ रूपये दे दें। कल वे शेष गेहूँ घर से लाकर दे देंगी। पर दूकानदार तैयार नहीं हुआ। आज दोनों जब विद्यालय पहुँचीं तो बहुत चिन्तित थीं। सभी लड़कियाँ रूपया जमा कर चुकी थीं। सुरेखा जी ने श्वेता और नेहा को बुलवाया।
'क्या तुम्हें रूपया नहीं जमा करना है?"
सुरेखा जी ने डाटते हुए कहा 'नहीं, बहिन जी जमा करना है। आज थोड़ा कम है इतना ले लीजिए कल पूरा कर दूंगी।' कह कर दोनो ने हाथ के नब्बे रूपये उन्हें पकड़ा दिए। नब्बे रूपये देखते ही बहिन जी का पारा चढ़ गया। 'परखनली तो पकड़ना आता नहीं और सौ रूपये देने में भी सौ बहाने ।' कहते हुए रूपया फेंक दिया। दोनों ने दुखी मन से रूपया उठाया।
'बहन जी कल पूरा कर दूँगी। आज इतना ले लीजिए।'
'तुम दोनों शरारती हो जानबूझकर कम लाई हो ।'
'नहीं बहिन जी गेहूं बेचकर लाए हैं। भाव गिर गया तो दूकानदार ने कम दिया। कल ले आएँगे।'
'सब बकवास है।' कहकर बहिन जी उठ पड़ीं।
श्वेता और नेहा को रूपया देते दो लड़कियों ने देखा था। वे आकर बहिन जी से कहने लगीं, 'मैडम, हम दोनों के पास दस दस रूपये हैं। उन्हें मिलाकर आप ले लीजिए।' 'चलो हटो। बड़ी आई हैं दयावन्ती बनने ।
कल लाकर जमा कर दो नहीं तो तुम जानो।' कहते हुए वे आगे निकल गईं।
जून के अन्तिम सप्ताह में नेहा और श्वेता अपना अंकपत्र लेने के लिए विद्यालय पहुँची। दोनो को रसायन विज्ञान प्रयोगात्मक में तीस में दस अंक मिले थे जबकि बीस लड़कियों को तीस, दस को उन्तीस, पन्द्रह को अट्ठाईस और तेरह को सत्ताईस अंक मिले थे। भौतिक विज्ञान प्रयोगात्मक में भी श्वेता और नेहा को चौदह अंक ही मिल पाए। सिद्धान्त में साठ प्रतिशत अंक पाकर भी प्रयोगात्मक को जोड़कर अट्ठावन प्रतिशत अंक ही पा सकीं। श्वेता कुछ दुखी हुई पर नेहा ने डपटते हुए कहा, 'इतने से ही अवसाद से घिर गई। हँसते हुए आगे बढ़ो जिन्दगी यहीं खत्म नहीं होती।'

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