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दीवार की आंख


अमन कुमार त्यागी


‘‘कौन मानेगा इस बात को कि दीवार की भी आंख होती है?’’ कमल सवाल करता है और फिर स्वयं ही जवाब भी देता है -‘‘जब दीवार के कान हो सकते हैं तो आंख क्यों नहीं हो सकती।’’
मगर हम कमल की बात मानने को तैयार नहीं थे। उसे अपनी बात समझाने का तरीका नहीं आ रहा था। वह तो बस जिद्द पर अड़ा था कि ‘दीवार की भी आंख होती हैं’।
कमल बता रहा था- ‘‘मैं जिन दीवरों में आंखें होने की बात कर रहा हूं, उन्हें मैंने बेबसी के साथ निहारते हुए देखा है। मैं गवाह हूं इस बात का कि दीवारें मुझे अपनी आंखों से देख रही थीं। कुछ कहने का प्रयास कर रही थीं, अपनी कोई व्यथा मुझे बताने का प्रयास कर रही थीं।’’
कमल का इस प्रकार बताना लग रहा था कि वह कोई कहानी सुनाना चाहता है। या फिर वह अपनी दबी हुई ऐसी किसी पीड़ा की बात करना चाहता है जो सालों से टीस पैदा कर रही थी।
अभी मैं कुछ सोच पाता कि तभी मेरे पास बैठे प्रमोद ने कमल की ओर देखते हुए कहा- ‘दीवारों के कान होना’ एक मुहावरा है। जिसका मतलब है किसी गुप्त बात के प्रकट हो जाने का ख़तरा।
कमल ने बेबसी से पहले तो प्रमोद की ओर देखा और फिर मुझसे मुख़ातिब हो बोला- ‘‘अब मैं कैसे अपनी बात कहूं? कृतुम तो पढ़े-लिखे समझदार आदमी हो, कृबना लो मेरे इस सच का भी कोई मुहावराकृ और फिर उसका अर्थ मुझे भी बता देना।’’
मैंने कमल को गम्भीरता के साथ देखा, और फिर उसकी आंखों में झांकते हुए कहा- ‘क्या इतना सरल है, मुहावरा गढ़ना और फिर उसका अर्थ निकालना?’
कमल कुछ देर के लिए शांत रहा। मगर फिर कुछ याद करते हुए बोला- ‘वे आंखें मुझे निहार रही थीं। पता नहीं उन्हें मुझसे कोई आशा थी, स्नेह था या फिर दया आ रही थी। कुछ तो था उन दीवारों में। मैं बहुत अधिक देर तक उन दीवारों को देख न सका।’
प्रमोद ने कमल से जिज्ञासावश पूछा -‘कौन सी दीवारें?’
कमल ने दोनों हथेलियां अपनी आंखों पर रखीं, फिर नीचे की ओर सरकाते हुए पौरवों से आंखें मसलने लगा। प्रमोद और मैं दोनों ही हत्प्रभ थे। उसकी हरकतें बड़ी अजीब सी लग रही थीं। प्रमोद ने उसकी हथेलियां और पौरवे उसकी आंखों से हटाने का प्रयास किया। जब तक वह हथेलियां हटा पाता उससे पहले ही कमल की आंखों ने ढेर सारा पानी उगल दिया।
-‘इसमें रोने वाली क्या बात है?’ मैंने कमल से पूछा।
-‘कोई परेशानी हो तो हमें बता भाई, हम तुम्हारे साथ हैं।’ प्रमोद ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।
-‘कुछ नहीं।’ कमल ने जवाब दिया और फिर जेब से रुमाल निकालकर अपनी गीली हो चुकी आंखों को साफ करते हुए कुछ स्मरण करने लगा।
हम दोनों मित्र उसे देख रहे थे।
रुमाल जेब में रखने के बाद उसने पूछा- ‘अच्छा यह बताओ कि आंख दीवार हो जाना किसे कहते हैं?’
-‘यह भी एक मुहावरा ही है।’ मैंने कमल को गम्भीरता के साथ देखते हुए बताया। ‘जिसका अर्थ है कुछ भी दिखाई न देना।’
-‘अच्छाकृ!’ कमल ने गहरी और लम्बी सांस ली।
-‘इस मुहावरे का अर्थ व्यक्ति के साथ बदल भी जाता है, मसलन यदि मुझे दिखाई देना बन्द हो जाए तो मेरे लिए मेरी आंखें दीवार हो गई। और यदि मैं जानबूझकर किसी को अनदेखा कर दूं तो समझो कि मैंने अपनी आंखों को किसी के लिए दीवार बना लिया।’ मैंने उसे समझाने का प्रयास किया।
अब कमल किसी दार्शनिक अन्दाज में बोला-‘इसका मतलब आंख और दीवार का कोई तो संबंध है?’
उसकी इस बात का जवाब मैंने दिया-‘ऐसी तो कोई रिश्तेदारी नहीं है मगर हां, कुछ समझने और कुछ समझाने के लिए इस प्रकार के मुहावरों का प्रयोग कर लिया जाता है। जैसेे कह दिया जाता हैै-‘आंखें पथरा गईं।’
कृकृसच बात तो यह है कि मेरा मन मजाक करने का हुआ। सोचा कि और कुछ मुहावरे गिना दूं जैसे- आंख मारना, आंख सेंकना, आंखें चार होना, आंखों-आंखों में बातें होना आदि न जाने कितने ही मुहावरे मस्तिष्क में कुलांचे मार रहे थे, मगर किसी तरह होंटों को सीना पड़ा। कमल की गम्भीरता को देखकर कतई उचित नहीं था कि उससे मजाक की जाए।
प्रमोद के होटों पर भी शरारती मुस्कान तैर जाना चाहती थी, मगर वह भी दबाए हुए था। और कमल था कि वह पहले से अधिक गम्भीर नजर आ रहा था।
कमल पुनः बोला- ‘अब कैसे समझाऊं? मुझे भी तो अपनी बात कहते नहीं बन पा रही है।’ कमल ने बेचैनी के साथ कहा और फिर एक लम्बी सांस लेते हुए बोला-‘छोड़ो यार, अब तुमसे ही क्या बात करूं, जिनसे करनी चाहिए थी उन्होंने तो कभी की आंखें मेरे लिए दीवार बना ली हैं।’
कमल की आवाज़ ही क्या उसके पूरे जिस्म में तड़पन थी। उसका यह वाक्य हमें भी अन्दर तक कंपा गया था। जिसे हम चट्टान की तरह मजबूत समझते थे, वह अन्दर तक टूटा हुआ निकल रहा था। उससे उसके अन्दर को बाहर लाने का मन था और डर भी था कि उसके अन्दर का लावा कहीं उसे जला ही न डाले। अब मजाक का मन उसके प्रति चिंतित हो उठा था।
मैंने कमल से साहस जुटाकर पूछा- ‘बात क्या है? खुलकर बताओ, पहेलियां बुझाने से काम नहीं चलेगा। आज अन्दर का दर्द बयां कर ही दो। हमने तुम्हें कभी इतना मायूस नहीं देखा, जितना आज देख रहे हैं।’
कमल ने मेरी ओर देखा और फिर प्रमोद की ओर देखते हुए बोला- ‘अपनी-अपनी किस्मत होती है यार, जरूरी नहीं कि खुशी बांटने वाला भी खुश हो।’
तभी प्रमोद झट से बोल पड़ा- ‘वही तोकृकृकृवही तो कृहम भी सुनना चाहते हैं।’
-‘छोड़ो, कृमत सुनो यार, इस दुनिया में अजीब से हालात हैं, सबकुछ बदल रहा है। लोग खुद दीवार बन रहे हैं या अपनी आंख ही में दीवार बना रहे हैं, और दोष दीवार को दे रहे हैं। अजीब हाल तो ये है कि सबक देने वाले लोग ख़ुद सबक नहीं ले पा रहे हैं।’ कमल ने अजीब अन्दाज़ में कहा।
कमल हम दोनों मित्रों के लिए रहस्यमयी होता जा रहा था। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि इस रहस्य को कैसे जाना जाए? मैंने ही उसे पुनः छेड़ा- ‘छोड़ यार, कृरहस्य तो तेरी पुरानी आदत है। बात होती कुछ है और निकलती कुछ है।’
कमल घूरकर देखते हुए बोला-‘मैं कुछ अलग ही बात कर रहा हूं इस समय भी। मैं सच को इसलिए दबाकर नहीं रखना चाहता हूं कि सच से डरता हूं बल्कि सच को इसलिए दबाना चाहता हूं कि समाज बिखर न जाए।’
अनायास ही प्रमोद के होठों से निकला -‘मतलब।’
-‘मतलब का तो मुझे पता नहीं लेकिन छद्मवेशधारियों से बचना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। विश्वास उठ रहा है रिश्तों पर से।’ कमल की आवाज में दष्ढ़ता थी। कभी बाप ख़राब तो उसी के लिए कभी बेटा ख़राब। पत्नी आ गई तो मां ख़राब और बेटे की बहू आ गई तो बहू ख़राब। बस इतनी सी चालाकी काफी है घर को दीवारों में बदलने के लिए।
-‘अब तो बता ही दे भाई हुआ क्या है? वरना हम पागल हो जाएंगे।’ मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा।
-‘कुछ भी नहीं हुआ। मैंने तो बस यूं ही बताने की कोशिश की थी कि उस घर की दिवारें मुझे कुछ अजीब से भाव के साथ देख रही थीं। वो निहार रही थीं, घूर रही थीं या मुझ पर दया दिखा रही थीं, कृकृमेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। सो तुमसे पूछना चाहा मगर कृकृ।’ बताते बताते वह चुप हो गया।
-‘लेकिन किस घर में गया था। भाई!’ हम दोनों ने एकसाथ पूछा।
-‘करीब बाईस साल में गया था। भीड़ लगी थी, कृवहां हर कोई मुझे रहस्यमयी तरह से देखता हुआ लगा। कृबस उस घर की दीवारें थीं, जिसमें कोई रहस्य नहीं था। उनके देखने में कुछ तो अपनापन था किंतु उन बेजान हो चुकी दीवारों की भाषा को मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा हूं।’ बताते हुए अभी भी कमल के चेहरे पर बेबसी थी।
हम चुपचाप उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को देख और समझने का प्रयास कर रहे थे।
वह फिर बोला, मगर उसे इस बार अधिक साहस जुटाते हुए अनुभव किया जा सकता था। उसने बताया- ‘मैं जिसे देखने गया था, अब उसने मेरी ही क्या पूरी दुनिया के लिए अपनी आंखों में दीवार बना ली थी। बड़ा कष्टप्रद था उन आंखों के परे देखना। जिन दीवारों से बाहर मुझे बाईस साल पहले निकाला गया था तब उन आंखों में क्रूरता देखी थी, अपनेपन को उसी दिन मरते हुए देख लिया था। उस दिन उस घर की दीवारों ने मुझे विदा किया था परन्तु बाईस साल बाद उन दीवारों ने मेरा कोई स्वागत नहीं किया, उन दीवारी आंखों में कुछ तो था जो मैं पढ़ नहीं पाया। अब हो सकता है कि शायद कभी भी न पढ़ पाऊं।’
कमल अब लगातार बोले जा रहा था और हम खामोशी से उसकी बात सुनकर समझने का प्रयास कर रहे थे। कुछ तो हमारी समझ में आने लगा था। यह बात भी हम जानते हैं कि कमल यूं ही निराश और हताश नहीं हो रहा है। चोट गहरी है।
उसने कहना जारी रखा- ‘कष्टकारी था उन्हें इस तरह उन दीवारों से विदा होते देखना। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे कहूं, तुम्हारे जीते जी मैं उस घर में प्रवेश नहीं कर पाया जिसकी एक-एक ईंट मैंने अपने हाथों से सजाई थीं और तुमने जननी होने के बावजूद मुझे उसी घर से निकलने पर मजबूर कर दिया था। अब जब तुम उस घर में पहुंच गई हो जिसके निर्माण में मेरा कोई योगदान ही नहीं है, वहां कैसे प्रवेश कर पाऊंगा? जब मैं इस घर की दीवारों की आंखों की भाषा नहीं समझ पा रहा हूं तो उस घर की दीवारों की आंखों का सामना कैसे कर पाऊंगा।’
बताते-बताते कमल की आंखें पथरा गई थीं, उनके लाल हो जाने का अनुभव किया जा सकता था और साथ में एक अजीब सी दष्ढ़ता भी। अभी कुछ समझ में आता कि वो एकसाथ हम दोनों की आंखों में झांकता हुआ बोला-‘कलयुग है यार, अब राम को कैकेयी नहीं कौशल्या ही वनवास देती है। चैदह साल का नहीं बल्कि जीवन भर के लिए। अब दशरथ को भी कोई सदमा नहीं लगता। समय बदल रहा है।’
वह कहते हुए कुर्सी से उठता है और पीठ पीछे दीवार पर हाथ रखते हुए कहता है- ‘कृकृअब आदमी अपनी आंख में दीवार लिए घूमता है और दीवार अपनी आंखों से यह सबकुछ होते हुए मूक नहीं रहना चाहती। दीवार की आंख सबकुछ बता देना चाहती है मगर उसकी बातें कौन समझेगा?
कमल की बातें सुनकर हम हत्प्रभ थे। अब हमारी समझ में आ रहा था कि ‘बड़ी-बड़ी इमारतों के खण्डहर भी कुछ इसी तरह की गवाही देते हैं। खण्डहरों की टूटी-फूटी दीवारों की आंखों से उनके इतिहास को देखा जा सकता है।’

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