ताश का आशियाना - भाग 26 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 26

सिद्धार्थ का उस दिन जंगी स्वागत हुआ। घर आते ही नारायण जी ने सिद्धार्थ के गाल पर बिना कुछ खरी खोटी सुनाएं तमाचा लगा दिया।

सिद्धार्थ की आंखों में कुछ देर के लिए आंसू की बूंदे भर गई क्योंकि सिद्धार्थ और उसके पिता में चाहे कितना भी घमासान युद्ध छिड़े लेकिन कभी सिद्धार्थ को तमाचा मारने की बात उन्हें सूची नहीं।

लेकिन किसी पराए के कारण उनके मान सम्मान को ठेस पहुंचने वाली बात उनके मन को कठोर कर चुकी थी, जिसका छाप सिद्धार्थ की गालों पर छपा था।


सिद्धार्थ ने अपना गला गटका अपने आंसू बहने से रोक लिए और सीधा अपने कमरे में चला गया अंदर घुसते ही उसने दरवाजा धड़ाम से बंद कर दिया।


गंगा भी इतने वक्त के लिए कुछ नहीं बोली वह तो बस अपने बेटे और पति के बीच कितने सालों से सिर्फ पिसती ही आ रही थी।

किस आवाज से वो अपने पति को रोकती वह अपनी जगह सही थे और सिद्धार्थ अपनी जगह। उसके सही या गलत होने से किसको फर्क पड़ा था आजतक।

श्याम हो गई सिद्धार्थ अभी भी बाहर नहीं आया गंगाजी बेचैन हो रही थी। अपने बेटे के लिए दुखी भी पर सिद्धार्थ के पिता सिर्फ सोफे पर बैठ घर खर्च का अकाउंट बना रहे थे।

"सिद्धार्थ के पापा, चलिए खाना लग गया है।"

नारायण जी ने अपनी आंखों से चश्मा निकाल टेबल पर रखा।

गंगा सिद्धार्थ को खाने के लिए बुलाने जानी ही वाली थी कि…

"रुक जाओ, आज खाना बंद यही उसकी सजा है।"

नारायण जी निष्ठुरर्था से बोल उठे।

गंगा की आंखों में आंसू भर चुके थे। नारायण जी ने आंखें दूसरी तरफ मोड़ ली वरना वह जरूर आंखों में पानी देख पिघल जाते और सिद्धार्थ को अंत में माफ कर देते। वो सिर्फ बिना कुछ कहे टेबल पर बैठ गए। गंगा ने टेबल पर भारी मन से खाना लगाया।

"तुम नहीं खाओगी?" नारायण जी ने भौंहें उचकाते हुए पूछा।

"वो.. वो.. गंगा नारायण जी के आंखों के भाव देख विमुख थी। उन्हें पता था गंगा जी जब तक सिद्धार्थ का यह नाटक खत्म नहीं हो जाता वह खाना नहीं खाएगी।


माता पिता दोनो ने पेट भरने जितना खाना खत्म किया। मां जी भर बच्चे को प्यार दिखा सकती है, पिता वो दिखा नही पाते बस यही एक कारण है की काफी खाना बच गया था।

रात के 10:00 बज चुके थे।

नारायणजी अपनी बीपी की गोली लेकर सो रहे थे। गंगाजी आवाज न करते हुए दरवाजा बंद कर सीढ़ियों से नीचे उतरी।

टीवी टेबल के नीचे से चाबी निकाल वो सिद्धार्थ कमरे के तरफ बढ़ी।

हर रोज की तरह अंदर से दरवाजा लॉक था। चाबी से दरवाजा खोला तो कमरे में अंधेरा था टेबल पर सिर्फ नाइट लैंप चालू था साथ लैपटॉप भी।

सिद्धार्थ कुछ टाइप कर रहा था। गंगा जी वहां पहुंचते ही वह पीछे मुड़ा। "मां आप यहां!" वह झट से खड़ा हुआ। थोड़ा और आगे जाते ही गंगाजी का नाक सिकुड़ गया। सिगारेट का धुआं कमरे के हर एक कोने में फैल चुका था। सिद्धार्थ को उस वक्त के लिए; सही खुद पर शर्म महसूस हो रही थी।

मिजाज गरम होते देख उसने कमरे की लाइट जलाई। "बैठिए ना मां, आप खड़ी क्यों है?" सिद्धार्थ ने अपने बेड पर जगह बनाते हुए उन्हें बिनती की।

मां बेड पर बैठ गई, और अपने हाथों में अपना सिर गड़ा रोने लगी। सिद्धार्थ ने झट से उन्हें जाकर गले लगा लिया।

"प्लीज मां रोईये मत, आई एम सॉरी!"

"क्यों करता है ऐसा तू हमेशा?"

"पहले बिना बताए, बिना पता ठिकाना दिए भाग जाना और अब यह!"

मां की आंखें रो-रोकर लाल हो चुकी थी यह यही दर्शाता था कि वह इससे भी पहले कितना रोई होंगी।

सिद्धार्थ मां के आंसू पोछे और उन्हें अपनी छाती से लगा लिया।

"क्या करूं मैं मां, मैं मजबूर था मैंने आप दोनों से पहले भी कितनी बार कहा था मुझे शादी नहीं करनी फिर भी आप दोनों को मेरी शादी किसी भी दम पर करनी है।" सिद्धार्थ अपनी बात उत्तेजना से कहने लगा।

मां ने सिर उठाया।

"हम दोनों तुम्हारी भलाई चाहते हैं, हम लोग हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहेंगे। तब क्या करोगे? तो कौन रखेंगा तुम्हारा ख्याल?"

"मां मैं अपनी देखरेख करने के लिए निर्भर हूं।"

सिद्धार्था ठाम मत के साथ बोल उठा।

"लेकिन जिंदगी के आगे जाकर कहीं ऐसे पड़ाव आते हैं जहां जीवन साथी की जरूरत होती है तू समझता क्यों नहीं है!" गंगा जी ने थोड़ा डांटते हुए स्वर में कहा।

सिद्धार्थ पहली बार, शायद दूसरी बार इतना जोर से रो रहा था।

पहली बार वह चित्रा को छोड़ जाने के बाद रोया था, लेकिन आज आज कुछ ज्यादा ही रो रहा था।

क्रोध, निराशा, पीड़ा, द्वेष ऐसे कितने तो भी भाव बिना कहे झर झर बह रहे थे। मां के सामने उन्हें रोकने की बेकार कोशिश तक उसने नहीं की।

"मैं आपका बेटा बनने के लायक नहीं मां।"

मां कुछ नहीं बोल रही थी, बिल्कुल निशब्द क्या बोले कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था।

वह सिर्फ बेटे के सिर के ऊपर हाथ फेरने लगी।

"क्या करूं मैं, अपनी सेल्फिशनेस के कारण एक लड़की की जिंदगी तो बर्बाद नही कर सकता?"

सोता हूं तो डर लगता है कल सुबह उठूंगा कि नहीं, जो भी महसूस कर रहा हूं, वह मेरी परिकल्पना (imagination) तो नहीं। कहीं अच्छी यादें तक मैं संभाल कर नहीं रख पाता अपने बॉडी पर तक कंट्रोल नहीं है मुझे।

गोलियां, इंजेक्शन, साइकैटरिस्ट यह मेरी जिंदगी ना की पत्नी, बच्चे, परिवार सिद्धार्थ के आंसुओं से गंगा जी का कंधा गीला हो गया था।

मां कुछ नहीं बोली, पिताजी भी कुछ नहीं बोले वह भी तो दरवाजे के पीछे से सब सुन रहे थे।

सिद्धार्थ कितने तो भी देर सिर्फ रो रहा था, सिसकियां तक मां के कंधे पर लपेटी जा रही थी। मां बस बिना थके अपने 31 साल के बेटे के सिर पर हाथ फेर रही थी। उनका यह धैर्य (patient) था वह कुछ नही बोली बस पर जब बोली तब यकीन नहीं होने वाला बोली–

"चल सुबह से खाना नहीं खाया है, थोड़ा खाना खा ले।"

मां ने कुछ नहीं बोलते देख सिद्धार्थ आश्र्चर्यचकित हो उठा।

"क्या देख रहा है? तेरे वजह से मैंने तक खाना नहीं खाया, बैगन का भरता बना है उठ जल्दी।"

मां अपने मां के अधिकार से ही डाटने लगी।

"पर मां.." फिलहाल मां की easy-going व्यवहार से सिद्धार्थ नीशब्द (स्पीचलेस) था।

"तू चाहे किसी भी जगह रहे, कुछ भी करें, शादी कर या ना कर तू पैदा होते वक्त से ही हमारा बेटा है।

हम जब तक जिएंगे हमारी यही कोशिश करेंगे कि तू खुश रहे; और रही बात तेरे अकेले मरने की मरने के बाद तेरी अंतिम संस्कार की सारी जिम्मेदारी हम पर होगी। अगर नहीं तो तेरे पिताजी और मेरे काफी रिश्तेदार है।"

सिद्धार्थ जोर-जोर से हस दिया। नारायण जी मुस्कुरा दिए और वहा से अपने कमरे की तरफ चल दिए।

"Sensitive at strong women, his mother."

सिद्धार्थ के जो शायद "चलो जाने दो।" वाले गुण गंगा से ही तो आए थे।

गंगा को कभी मौका नहीं मिला खिलने का, बढ़ने का…

पर जब सिद्धार्थ को इस मुकाम पर वह देखती है तो हर मां की तरह वह अपना प्रतिबिंब खोजना शुरू कर देती है।

जब देखती है तो दुख होता है कि वह इस मुकाम पर नहीं है पर खुशी होती है कि उसका बेटा उस सपने को जी रहा है।

मां–बेटे ने मिलकर हंसी खुशी के साथ खाना खाया चार-पांच दिन वातावरण में आद्रता फैली हुई थी पर कोई कदम उठाने के लिए तैयार नहीं था।

पर एक दूसरे से कोई नाराज नहीं था।

"फिर आगे क्या हुआ? इसमें रागिनी का क्या हाथ कैसे? उससे ही क्यों शादी करनी है भाई की?"

"तू कितना, सवाल पूछता है? पहले पूरी कहानी सुन तो ले।" गंगाजी तुषार को डाटते हुए बोली।



"उसके बाद फिर मैंने फिर से एक बार पंडित जी को फोन लगाया लेकिन पंडित जी ने मुझे खरी खोटी सुना‌ दी।"

"हिम्मत कैसे हुई आपकी यह बात करने की?"

"क्या हुआ पंडित जी?" गंगा ने घबराते हुए सवाल पेश किया

क्या हुआ पूछ रही हैं! आपके बेटे के कारण मेरे पूरे खानदान का उद्धार कर दिया है श्रीकांतजी ने।

मैंने आपके लिए कोयले की खदान से हीरा चुनकर लाया था और आपके बेटे ने क्या किया अपने ही किस्मत पर पानी फेर दिया।

रागिनी मांगलिक होने के साथ उसके योग आपके बेटे के योग से पूरे तरीके से मिल रहे थे अगर रागिनी की शादी सिद्धार्थ के साथ होती तो दोनों दोषमुक्त हो जाते।

पहले चाहे कितनी भी कठिनाइयां आए लेकिन आने वाले समय में सिद्धार्थ के कुंडली में राजयोग और दो पुत्रों का सुख लिखा था।

लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि, अभी ऐसा कुछ भी नहीं हो पाएगा। उसके ऐसे बर्ताव के कारण वह किसी स्त्री से वैवाहिक सुख की अपेक्षा नहीं कर पाएगा।

बस बड़े बूढ़ों में परिहास (जोक) का विषय है आपका बेटा!



इसलिए मैंने रागिनी से बात करने की कोशिश की।

नवरात्रि के दिन थे तब…

वो मुझे मिलने आई यह माता रानी का शुक्र था।

मैने रागिनी को सिद्धार्थ के बारे में सब बताया। रागिनी को बीमारी का वास्ता देकर उसे मदद मांगी की वो मेरे बेटे के बीमारी को दूर करदे।

यह मेरा ही प्लान था की अगर वो उसके साथ समय बिताएगी तो शायद उन दोनो में बात आगे बढ़ जाए।

"वो दिमाग की डॉक्टर है दिमाग के बीमारी की नही। तुषार ने सवाल दागा।"

मुझे पता था, फिर भी मेरे पास और कोई रास्ता नही था।अगर वो इलाज के बहाने ही सही सिद्धार्थ के साथ समय बिताएगी और वो दोनो एक दुसरे को पसंद करने लगे तो श्रीकांतजी को मनाना आसान हो जायेगा।


"आपको इलाज के बहाने नही इमोशनल ब्लैकमेलिंग के बहाने कहना है।"


गंगा ने सिर पर एक रैपट लगा दी।

"आह… मैंने क्या झूठ बोला।"

"चल मैं चलती हु, तुझे कोई बाते नही जाननी।"

"नही आंटी रुकिए..."

गंगा नही रुकी।

बस पीछे मुड़ बोली, "याद से खाना फ्रीज में रख देना।"


गंगा को कहानी आगे ना बढ़ाने का कोई मुड़ न देख वो थोड़ा गुस्से में आ गया। लेकिन फिर गुस्सा झटक टेबल साफ करने लगा

खाना फ्रीज में रखते समय उसको बार बार यही ख्याल आ रहा था की रागिनी को सब पता है।

तो क्या रागिनी भाई से सच में प्यार करने लगी है?

और भाई क्या सच में रागिनी से प्यार नही करते?

इन सब सवालों का जवाब जानना होंगा।

पर कैसे?

वो सोच में डूब गया।

"वॉटर इस बेस्ट ड्रिंक इन द वर्ल्ड।"क्योंकि वो गटकते हुए ही उसे आइडिया चमक उठा।

कोलड्रिंक की 1 लीटर के बॉटल में जो पानी भरा था उसे ही जो घूरे जा रहा था।

अनुमान लगाना मुश्किल था की कोनसा खुरापाती आइडिया गंगाजी के चेले में जन्म ले रहा था।