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उज्ज्वला


अमन कुमार त्यागी

 

समीर आज पचास साल बाद गाँव आ रहा था। जब से वह शहर गया था उसे गाँव का जीवन नीरस और निरर्थक लगने लगा था। उसने शहर में कड़ी मेहनत कर एक घर बना लिया और वहीं पर बस गया था। बच्चे बड़े हो गए और रोज़गार से लग गए तो राहत की सांस ली।
अब से लगभग पचास साल पहले वह गाँव छोड़कर शहर जा चुका था। तब न तो गाँव में रोज़गार था और न ही मान-सम्मान। छोटे से छोटा बच्चा भी उसे सम्मी कहकर पुकारता था। सम्मी गाँव में दिन भर मजदूरी करता और रात को अपने माँ-बाप की सेवा करता। एक दिन सम्मी की माँ बीमार हो गई। बरसात का मौसम था और गाँव में कोई चिकित्सक भी नहीं था। इलाज के लिए गाँव से पाँच किलोमीटर दूर एक कसबे में जाना होता था। सम्मी के पास कोई ऐसा साधन नहीं था, जिससे वह अपनी माँ को लेकर समीपस्थ कसबे में इलाज के लिए चला जाए। कई घरों में उसने रात को कुंडी खटखटाई, उनसे बैलगाड़ी मांगी तब जाकर एक किसान ने हामी भरी और वह उसकी माँ को लेकर अस्पताल के लिए चला लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? लाख प्रयास के बावजूद सम्मी अपनी माँ को बचा नहीं पाया।
समीर की आँखों से आँसू टपक पड़े थे। रुमाल से अपनी आँखों को साफ़ करते हुए उसने पास आते एक व्यक्ति से पूछा- ‘भाई साहब, पुर गाँव को कौन सा रास्ता जाता है?
उस व्यक्ति ने समीर की ओर देखते हुए बताया- ‘कुछ ही आगे से पक्की सड़क गई है, ई-रिक्शा वाले खड़े होंगे, गाँव तक जाते हैं।’
समीर को आश्चर्य हुआ। वह तो आज भी वही पचास साल पहले वाला ही गाँव समझ रहा था। सोच-सोच कर डर रहा था कि इतनी दूर पैदल चलकर जाएगा। रास्ते में झाड़-झंकाड़ खड़े होंगे और बरसात होने के कारण जगह-जगह पानी भरा होगा। सोचता हुआ वह वहाँ पहुच गया जहाँ एक लिंक मार्ग पर ई-रिक्शा खड़ी थीं और पुर गाँव जाने के लिए उसका चालक आवाज़ लगा रहा था।
-‘भैया कितनी देर में चलोगो?’ समीर ने पूछा।
-‘बस सवारी पूरी हो जाएं चल देंगे।’ ई-रिक्शा चालक ने लापरवाही से जवाब दिया और फिर आवाज़ लगाने लगा।
समीर ई-रिक्शा में बैठ गया। उसे अभी तक विश्वास नहीं हो पा रहा था। वह खामखा परेशान था, गाँव पहुँचने के लिए। हो भी क्यों नहीं, पूरे पचास साल हो गए थे गाँव देखे हुए। उसे तो कल्पना ही नहीं थी कि गाँव जाने वाला रास्ता पक्का हो गया होगा और उस पर शहर की ही तरह सवारी भी चलने लगी थी। इसी डर से वह कम सामान लेकर चला था, उसे पता होता तो वह और भी कुछ ला सकता था। उसके चचेरे भाई की लड़की का विवाह था। कितने ही विवाह समारोह में वह टाल गया था। गाँव के नाम पर ही उसे उबकाई आने लगती थी। गाँव में बिताए गए दिनों को वह पुनः याद नहीं करना चाहता था, इसीलिए वह अकेला हो गया था और उसने अपना जीवन अपनी ही तरह से प्रारंभ किया। शहर में मकान बनाया और विवाह कर अपना घर-संसार बनाया लेकिन इस बार वह टाल नहीं सका। उसने बेमन से ही गाँव पहुँचने के लिए अपने भाई को हामी भर दी। भाई भी तो बूढ़ा हो गया था। समीर से पूरे दस साल छोटा मगर लग रहा था कि उससे दस साल बड़ा है। इस भाई ने बार-बार आग्रह किया तो वह टाल न सका। वैसे भी इतने दिनों में उसके मन में भी अपना गाँव देखने की इच्छा प्रबल हो चुकी थी। कुछ ही देर में सवारियों को लेकर ई-रिक्शा चल दी। समीर जानपूछकर आगे की सीट पर बैठा था। वह अपने गाँव का वह पुराना रास्ता देखना चाहता था जिससे होकर वह आता जाता था। वह उन पेड़ पौधों को देखना चाहता था, जिनकी छाँव में वह तपती धूप में राहत महसूस करता था और वह उन गड्ढों को भी देखना चाहता था जिनसे बचने के लिए अक्सर वह अपना पाजामा गंदा कर बैठता था। वह उन झाड़ झंकाड़ को भी देखना चाहता था, जिनके बीच से गुजरते हुए दिन में भी डर लगता था। वह देखना चाहता था शाम होते ही अपने गाँव के छप्परों से निकलता हुआ धुआँ और रास्ते पर गाय-बैलों के पैरों से उड़ने वाली धूल को। वह देखना चाहता था हुक्का गुड़गुड़ाते चैधरी को और उसकी सेवा करते अपने ही जैसे किसी मजदूर को।
सहसा ई-रिक्शा में ब्रेक लगे और उसने कहा -‘पुर आ गया है साहब।’
समीर चैंका -‘अ... अ इतनी जल्दी।’ उसने चालक की ओर देखते हुए पूछा-‘यह पुर ही है, लगता तो नहीं।’
ई-रिक्शा चालक ने उसे अजीब सी निगाह से देखा। कुछ घूरने के बाद पूछा -‘पहली बार आए हो क्या?’
समीर ने सकुचाते हुए जवाब दिया -‘पहली बार तो नहीं, मगर पूरे पचास साल बाद आ रहा हूँ।’
-‘पचास साल बाद।’ ई-रिक्शा चालक ने दोहराया। तो समीर ने कहा -‘हाँ भाई, अपने ही गाँव में पचास साल बाद आया हूँ। अब तो सबकुछ बदल गया है।’ कहते हुए उसने ठंडी सांस ली।
चालक ने इस बीच दूसरी सवारियों से किराया वसूल किया और फिर समीर के पास आते हुए पूछा -‘आप समीर काका हैं क्या?’
समीर ने उस युवा चालक को एक बार फिर ध्यान किंतु सवालिया निगाहों से देखा तो उसने बताया -‘मैं नरेश का बेटा हूँ। मेरे पिता जी के बड़े भाई का नाम समीर है, मैं समझा कि आप वही हैं, आज वह भी पूरे पचास साल बाद यहाँ आ रहे हैं।’
चालक की बात पूरी होते-होते समीर ने उसे अपनी बाहों में भींचते हुए कहा -‘मैं ही समीर हूँ बेटा।’
सुनते ही चालक ने समीर के पाँव छुए और उसके हाथ में थमा बैग पुनः रिक्शा में रखकर जैसे ही समीर से मुख़ातिब हुआ चैंक पड़ा। समीर की आँखों से आँसू बह रहे थे।
-‘आप रो रहे हैं काका।’
-‘नहीं, यह आँसू तो अपनी मिट्टी का स्वागत कर रहे हैं।’ समीर ने अपनी आँखों को पौंछते हुए जवाब दिया।
-‘एक बात पूछूँ काका।’ चालक ने अपनी चालक सीट पर बैठते हुए कहा।
-‘पूछो बेटा।’
-‘आपको अपने गाँव से इतना ही प्यार है तो आप पहले कभी क्यों नहीं आए?’
-‘बेटा प्यार होना अलग बात है और परिस्थितियों का प्रतिकूल होना अलग बात। मैंने ख़ुशी में गाँव नहीं छोड़ा था, मैंने अपनी माँ को अपनी बेबसी के कारण मरते हुए देखा है।’
-‘काका हुआ क्या था दादी को?’ उसने पूछा।
-‘समझ में नहीं आया आज तक। कई दिन से चूल्हा जलाने के कारण आँखें दुःख रही थीं, बुखार भी आया था, मुझे लगता है कि वह बस मेरे लिए ही जैसे-तैसे रोटी बनाती थी और ख़ुद भूखी रहती थी। एक दिन रात को उसके पेट में ज़ोर का दर्द उठा और अस्पताल भी नहीं पहुँच सके कि रास्ते में ही उसने दम तोड़ दिया। भला हो रघु का जो रात में वह मेरे साथ था।’ समीर ने दुःखते दिल से बात पूरी की।
- ‘अब वही रघु गाँव का प्रधान है, आपको तो बहुत याद करता है और आपके परिवार से होने के कारण हमारा ध्यान भी रखता है।’ उस युवा चालक ने बताया।
बात करते-करते कब घर आ गया पता ही नहीं चला। समीर को एकाएक विश्वास ही नहीं आया कि वह उसी गाँव में आया है जिसमें उसका जन्म हुआ और बचपन बीता था। सभी घर पक्के हो गए थे, रास्तों में भी अब कीचड़ और पानी नहीं भरा था। उसे दूर-दूर तक कच्चे घर और छप्पर नजर नहीं आ रहे थे।
जैसे ही घर में प्रवेश किया तो नरेश उसके गले लग गया। वह ख़ुश होकर बोला- ‘बहुत अच्छा किया भैया आपने गाँव में आकर।’
समीर गाँव की सूरत देखकर असमंजस में था। अब उसे लग रहा था कि उसके हिस्से की ज़मीन भी परिवार के लोगों ने कब्ज़ा ली होगी। उस पर भी पक्का मकान बन गया होगा। किस पर होगी मेरी ज़मीन? अनायास ही यह सवाल उसके जेहन में कौंधा तो उसने पूछ ही लिया -‘नरेश! हमारा वाला घर किसके पास है?’
नरेश ने समीर का हाथ पकड़ा -‘आओ भैया, पहले मैं आपकी ज़मीन दिखाता हूँ।’
दोनों घर से बाहर आए और एक खाली पड़े प्लाट की तरफ़ बढ़ गए जहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे। वहाँ पहुँचकर नरेश ने बताया- ‘भैया इतने दिनों तक हम तुम्हारा घर तो नहीं बचा सके मगर ज़मीन एक इंच भी किसी ने नहीं कब्ज़ाई है।’
समीर को अपनी ज़मीन देखकर बहुत ख़ुशी हुई। उसने अपने भाई से पूछा -‘ये सड़के पक्की कैसे बनी हैं?’
नरेश ने बताया-‘प्रधानमंत्री सड़क योजना से गाँव की सभी सड़कें पक्की हो गई हैं और पूरे गाँव में बिजली किसी शहर की ही तरह जगमगाती है।’
-‘अच्छा एक बात और बता, मुझे आज भी लगता है कि मेरी माँ की जान चूल्हे पर रोटी बनाते हुए आँखें दुःखने से गई है, क्या गाँव में आज भी चूल्हे पर रोटी बनती है और माँए बीमार पड़ती हैं?’ समीर ने चिंतावश पूछा।
-‘अब ऐसा नहीं है भैया, पहले धुएँ और धूल से परेशान औरतों की सुनता ही कौन था, लेकिन अब तो सभी घरों में गैस पर खाना बनता है।’ नरेश ने बताया।
-‘तो क्या सभी घरों में गैस चूल्हे हैं?’ समीर ने आश्चर्यचकित हो पूछा।
-‘हाँ, सभी घरों में।’ नरेश ने जवाब दिया।
-‘मगर कैसे आए ये चूल्हे सभी घरों में?’ समीर ने जानना चाहा।
-‘प्रधानमंत्री की उज्ज्वला योजना से।’ नरेश ने बताया।
-ओह, तो ये है उज्ज्वला योजना, जिससे ग़रीब के घर भी गैस चूल्हे पहुँच रहे हैं। धत्ततेरे की टीवी पर विज्ञापन देखकर भी मैं नहीं समझ पाया था कि यह उज्ज्वला’ है क्या?
नरेश ने ख़ुश होते हुए समीर को बताया -‘मेरी जिस बेटी का विवाह है उसका नाम भी तो उज्ज्वला ही है।’
समीर के होठों ने भी बुदबुदाया -‘वाह उज्ज्वला!’

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