अमन कुमार त्यगी
अचानक मैंने एक बच्चे को ठोकर खाकर गिरते हुए देखा। मैं उसे संभालने के लिए तेजी से आगे बढ़ा किंतु मेरे संभालने से पहले ही वह सड़क पर धड़ाम से गिरा और उसके हाथ में मौजूद पॉलीथीन भी सड़क से टकराई। पॉलीथीन के सड़क से टकराने के बाद जो आवाज आई उससे प्रतीत हुआ कि उसमें रखा सामान टूट गया है। जब तक बच्चे को संभालता तब तक एक औरत भी वहां पहुंच गई। बच्चे को खड़ा कर मैंने पूछा- बेटा चोट तो नहीं लगी है?
बच्चा सहम चुका था। बड़ी मुश्किल से वह जवाब दे पाया-नहीं अंकल, पर ये टूट गए। उसने हाथ में थमी पॉलीथीन की ओर इशारा करते हुए जवाब दिया।
अभी मैं कुछ समझ पाता कि उससे पहले ही एक तमाचे की आवाज वातावरण झन्नाती हुई ऐसे सुनाई दी कि वह तमाचा मेरे ही गाल पर पड़ा हो। मैं हत्प्रभ था। जो महिला उस बच्चे के पास पहुंची थी उस पर रौद्र रूपधारी था और बच्चा ऐसे कांप रहा था मानों जब छुरी लिए कसाई के सामने हलाल हो जाने के भय से कोई बकरा कांपता है। उस बच्चे ने अपना एक हाथ गाल पर रखा और उस महिला के आगे गिड़गिड़ाते हुए बोला-ठोकर लग गई।
-‘ठोकर तो लगेगी ही, जब देखकर नहीं चला जाएगा।’ महिला ने लाल-पीली होते हुए कहा।
अब तक मैं समझ चुका था, यह महिला बच्चे की अभिभावक है। मैंने उसे शांत करने की गरज से कहा- ‘बहन जी! बच्चा है। लग गई ठोकर, गिर गया बेचारा। शुक्र मनाओ कि इसे चोट नहीं लगी है।’
उस महिला ने मुझे खा जाने वाले अंदाज से देखा तो मैं भी सहम गया। वह अपने क्रोध को और ऊँचाई देते हुए बोली- ‘आप खामोश रहिए।’
मैं खामोश हो गया। कर भी क्या सकता था खामोशी की चादर ओढ़कर अपनी इज्जत बचाने के सिवा। यह खामोशी कोई पहली बार नहीं ओढ़ी थी। जीवन में अनेक बार अपना मान रखने के लिए खामोश रह जाना पड़ा था। सोचा समझाने का कोई लाभ नहीं है, वैसे भी कौन सी रिश्तेदारी निभानी थी। बस बच्चे पर मलाल आ रहा था। एक तो बेचारा छोटा सा था कोई चार या पांच साल का रहा होगा। दूसरे उसे ठोकर लगी। भले ही उसने चोट लगना स्वीकार नहीं किया हो मगर अब लगता है कि उसे चोट भी जरूर लगी होगी। और फिर उसका सहमकर यह कहना ‘पर ये टूट गए’ मेरे मन को विचलित कर रहा था। मैं अपने आप ही से सवाल कर बैठा- ‘आखिर उस पॉलीथीन में ऐसा क्या था? जिसके टूटने से बच्चा सहम गया था और उस औरत ने नन्हे मासूम के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया। जिसकी चोट का अनुभव मैं भी अपने गाल पर अभी तक कर रहा हूँ। जानने की उत्सुकता बढ़ी तो मैं अपने आपको रोक नहीं पाया। उस बच्चे और उसका हाथ पकड़कर झल्लाती हुई उस क्रूर महिला के पीछे हो लिया। जिसने महंगा हरे रंग का सूट पहन रखा था। उसी से मैच करते चप्पल और कलाई घड़ी का फीता भी उसी रंग का था। जो ऐनक लगा रखी थी उसका फ्रेम का रंग भी उसके कपड़ों से मेल खा रहा था। यहां तक कि उसके चौड़े माथे पर लगी गोल और फिर ऊपर की तरफ को लंबी होती बिंदी का रंग भी हरा ही था। चूड़ियों का कलर बताने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकांश महिलाएं चूड़ी तो मैचिंग की पहनती ही हैं मगर बताने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि उसने हरी चूड़ियों के मध्य सफेद रंग की चूड़ियां भी पहन रखी थीं। इसके बावजूद यह महिला मुझे प्रभावित नहीं कर रही थी बल्कि रहस्यमय लग रही थी। ऐसी हालत में इस महान महिला को उस मासूम बच्चे की मां होने का अहसास कम से कम मैं तो नहीं कर सकता था।
कुछ नजदीक हुआ तो महिला के भुनभुनाने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ने लगी थी।
- ‘आज तेरा ही इलाज करूंगी। देखकर तो चला नहीं जा सकता, कितना नुकसान करता है, तुझे अंदाजा भी है।’ इस महिला ने कुछ इस अंदाज में बात कही थी कि मैं भी कांप कर रह गया था। जबकि वह मासूम लगातार सुबकता हुआ चल रहा था। वह न रो पा रहा था और न ही शांत हो पा रहा था।
मुझे लगा कि कोई तो युक्ति निकालनी चाहिए, इस महिला से बात करने की ताकि इसे समझाया जा सके और बच्चा घर जाकर पिटाई से बच सके। न जाने क्यों इस बच्चे पर मुझे अतिरिक्त दया आ रही थी। या यह भी कहा जा सकता है कि बच्चे के साथ क्रूरता करने वाली महिला का रहस्य मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था।
एकाएक मुझे सड़क पर गिरा हुआ रुमाल नजर आया। देखते ही एक युक्ति मेरे दिमाग में बनी और अगले ही पल मैं सक्रिय हो गया। मैंने वह रूमाल उठाया और उस महिला के एकदम नजदीक पहुंचते हुए बोला- ‘बहन जी! शायद आपका यह रूमाल वहीं गिर गया था जहां आपका बच्चा गिरा था।’
उस महिला ने रुमाल की ओर देखते हुए जवाब दिया- ‘नहीं भाईसाहब! यह रुमाल मेरा नहीं है। वैसे भी किसी महिला से बात करने का यह आइडिया पुराना हो गया है।’
मैं उसकी बात सुनकर अवाक् रह गया। मुझे उससे कतई ऐसी उम्मीद नहीं थी। फिर भी मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया -‘क्या आप इस बच्चे की माँ हैं?’
-‘जी हाँ, मैं ही इस बच्चे की माँ हूँ। और यह मेरा इकलौता बेटा है।’ उसने बताया।
उसके बताने के अंदाज और प्राप्त जानकारी से भी मैं हत्प्रभ था। मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था।
-‘फिर आपने अपने ही बच्चे के गाल पर इतनी तेजी से चपत क्यों लगाया?’ मैंने उस महिला से पूछ ही लिया।
-‘ये एक तो नुकसान बहुत करता है, दूसरे बित्ताभर होने के बावजूद दिनभर मोबाईल पर लगा रहता है। मोबाईल में पता नहीं कौन कौन से गेम खेलता है कि वैसी ही हरकतें भी इसकी आदत में आती जा रही हैं।’ उसने शिकायती लहजे में बताया।
-‘मगर फिर भी आपको ऐसे तो नहीं मारना चाहिए, कितना डरा हुआ लग रहा है?’ मैंने बात आगे बढाने की नियत से पूछा।
-‘भाई साहब! अभी यह इतना छोटा होने के बावजूद मेरी बात नहीं मान रहा है, बड़ा होने पर पता नहीं क्या करेगा?’ उसने अपना भविष्य बताकर बच्चे की तरफ देखा।
अब एकाएक उसका हाथ बच्चे के सिर पर चला गया था। वह उसके बालों में उंगलियां घुमाती हुई बोली-‘एक यही सहारा है भाई साहब!’
उसने इतनी मायूसी से यह बात कही थी कि मैं फिर चौंक गया। अब उसका व्यवहार एकदम बदल चुका था। मगर उसने अपनी बात जारी रखी-‘अभी तो कोई बात नहीं है, मगर बड़ा होकर यह बाप जैसा निकला या फिर पढ़ नहीं पाया तो मेरा संघर्ष बेकार जाएगा। मैं इसका भविष्य बनाना चाहती हूँ।’
उसकी बात सुनकर अब मैं नहीं समझ पा रहा था क्या पूछूं, क्या बात करूं? वह अभी जवान थी। यही कोई पच्चीस-छब्बीस साल की रही होगी। उसकी भाषा और उसका हाव-भाव अब जो बयान कर रहा था वह पहले वाली से बहुत अलग था। साहस बटोरकर मैंने पूछा- ‘क्या करते हैं इसके पापा? और आप क्या करती हैं?’
जानकारी देनेे से पहले वह कुछ झिझकी मगर फिर उसने जो बताया उस पर भी मेरे कान यकीन नहीं कर पा रहे थे। उसने बताया-‘इसके पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं, बहुत नशा करते थे, एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई।’
जानकर वास्तव में दुख हो रहा था। उसके बारे में न जाने कैसे-कैसे खयाल मेरे मन में आए थे मगर तस्वीर एकदम उलटी थी। मैंने पुनः पूछा-‘अब आप क्या करती हैं?’
-‘चार घरों में बर्तन मांजती हूं, उसी से जो मिलता है घर चला लेती हूं।’ उसने बता दिया।
अब चूंकि उससे कहने के लिए मेरे पास न तो शब्द बचे थे और न ही मेरे होंठों में जान रह गई थी। बस इतना ही कहा-‘फिर भी बच्चे को ऐसे नहीं मारना चाहिए।’
जवाब में वह मुस्कराते हुए बोली- ‘मैं भी जानती हूँ, मगर बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें अगर आप कुछ अच्छा बनाना चाहते हैं तो चोट तो मारनी ही होती है, इसके बावजूद भविष्य का कुछ भी पता नहीं, ....क्या हो?’
यह क्या हो उसने बड़ी ही मासूमियत के साथ कहा था। बात करने के बाद मैं भी व्यथित था और वह भी परंतु जाने से पहले मैं उस पॉलीथीन का रहस्य भी जानना चाहता था जिसकी वजह से वह बच्चा अधिक डर गया था। मैंने पूछा- ‘इस थैली में क्या है?’
उसने एकदम बता दिया-‘बच्चों के खेलने वाले मिट्टी के बर्तन। मोबाईल से बचने के लिए इस पुराने खेल में लगाना चाहती हूं।’
-‘मिट्टी के बर्तनों के टूटने पर इतना गुस्सा तो नहीं आना चाहिए।’ मैंने उससे कहा तो वह बोली-‘गुस्सा मिट्टी के बर्तनों की वजह से नहीं आया है, गुस्सा तो मुझे इस बात पर आया है कि पांच साल की उम्र में मोबाइल के फंकशन समझ लेने वाला यह कैसे भूल जाता है कि वह जमीन पर है और मिट्टी के बर्तन उसके हाथ में हैं।