अमन कुमार त्यागी
बूढ़ा मोहन अब स्वयं को परेशान अनुभव कर रहा था। अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाना अब उसके लिए भारी पड़ रहा था। परिवार के अन्य कमाऊ सदस्य अपने मुखिया मोहन की अव्हेलना करने लगे थे। मोहन की विधवा भाभी परिवार के सदस्यों की लगाम अपने हाथों में थामे थी। वह बड़ी चालाक थी। वह नहीं चाहती थी कि मोहन अथवा परिवार का कोई भी सदस्य उसकी अव्हेलना करे। यूँ भी कहा जा सकता है कि मोहन घर का मुखिया था, परंतु घर के मामलों में सभी महत्वपूर्ण निर्णय सोनी देवी ही लेती थीं। मोहन को अपने लिए मौन के सिवा दूसरा कोई रास्ता नजर ही नहीं आता था।
दरअसल मोहन का बड़ा भाई रोहन सिंह बड़ा ही बलशाली और दबंग था। एक दुर्घटना में उसकी व माँ इन्द्रो की मृत्यु हो गयी थी। तभी से घर-परिवार की जिम्मेदारी, मोहन और उसकी विधवा भाभी सोनी देवी दोनों ने संयुक्तरूप से सम्हाली थी। मोहन को अपना वह वचन आज भी याद है, जिसमें उसने अपनी भाभी सोनी देवी से कहा था- आप बड़ी हैं, जैसा चाहेंगी हम करते जाएंगे।’ बस इसी एक बात का भरपूर लाभ सोनी देवी उठाना चाहती थीं। सोनी देवी ने अपने पुत्र रोलू को राजकुमार बनाने का सपना देख लिया था।
मोहन की माँ इन्द्रो का रुतबा भी मोहन की भाभी सोमती ने देखा था। उसे याद है एक बार उसकी सास इन्द्रो ने किस तरह पड़ोसी को पिटवाया था। पड़ोसी राज को लगता था कि इन्द्रो उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा करना चाहती है। बस फिर क्या था, राज ने एक दिन अपने कुछ आदमी बुलाए और सोमती की सास के घेर पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। सोमती की सास का घेर बहुत बड़ा था। उसकी चारदीवारी भी नहीं थी। सोमती की सास ने अपने परिवार के लड़ाकों के साथ मिलकर पड़ोसी राज पर हमला कर दिया और उसे खदेड़ दिया, मगर इसी बीच एक और घटना घटी। उसके दूसरे पड़ोसी नची ने भी उसके घेर की कुछ ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया। नची उससे अधिक ताक़तवर था। उसके पास पैसे और आदमियों की कोई कमी नहीं थी। यही कारण था कि सोमती की सास उसके अधिक मुँह नहीं लगी। अब सोनी का भी यही हाल है। वह नची को तो अनदेखा करती है मगर राज को धूल चटाने का भरपूर प्रयास करती है।
सोनी की ख़ूब चलती थी। क्या मजाल कि उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसके आगे सिर उठाकर बात कर सके। एक बार सोनी ने जो निर्णय ले लिया सो ले लिया। वह कहती थी- मुझे अच्छा नहीं लगता कोई मेरे सामने बोले, मैं जैसे कहती रहूँ बस वैसे ही करते रहो।
सोनी किसी भी तरह अपने अकेले पुत्र रोलू को जिम्मेदार बनाना चाहती है। वह कहती- ‘देख लेना देवर जी! एक दिन हमारा रोलू ही हमारे परिवार की बागडोर संभालेगा।’ सोनी की इस मंशा को परिवार के सभी लोग जानते थे, मगर बोले कौन? वो सब मोहन की ओर देख रहे थे, जबकि मोहन भीगी बिल्ली बन सोनी के आगे दुम हिलाने के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं था।
बाहर वालों को लगता था कि मोहन का परिवार एकजुट है, और मजबूत है। परंतु सच तो यह है कि उसके परिवार में अधिकारों और कत्र्तव्यों को लेकर फूट पड़ चुकी है। परिवार के लोग अब मोहन को महाभारत का भीष्म और सोनी को धृतराष्ट्र की संज्ञा देने लगे। दें भी क्यों न? सोनी भी तो अपने पुत्र रोलू को घर का मुखिया बनाने के लिए कोई भी उचित व अनुचित तरीक़ा छोड़ नहीं रही थी।
हालांकि परिवार के लोग अभी उग्र नहीं हुए थे। लगता भी नहीं कि वे कभी उग्र होंगे। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई भी पारिवारिक सदस्य अपने आपको दाँव पर नहीं लगाना चाहता था। किंतु सभी कमाऊ सदस्यों ने अपनी-अपनी जेबें गर्म करना शुरू कर दी थीं। चूंकि सभी जानते थे कि सोनी देवी अपने पुत्र रोलू को ही घर का मुखिया बना देंगी। ऐसे में उन सबको रोलू की ओर देखना पड़ेगा। सो सभी ने अपनी-अपनी तिजोरियां भरनी शुरू कर दीं। परिणामस्वरूप अब आय के स्रोत वही रहने के बावजूद आय घटने लगी।
सोनी देवी निराश हैं। वह कभी-कभी खीझ उठती हैं। कहती हैं- ‘सब निकम्मे होते जा रहे हैं, कोई भी अपनी जिम्मेदारी नहीं संभाल रहा है। लगता है अब रोलू को ही कुछ करना पड़ेगा।’ उन्हें लगता है कि कहीं रोलू के हाथों से सबकुछ निकल न जाए। वह रोलू को धनवान देखना चाहती हैं। वह समझती हैं कि विरासत पर सिर्फ़ और सिर्फ़ रोलू का ही हक़ है। परिवार के शेष लोग तो सिर्फ़ काम करने के लिए ही पैदा हुए हैं।
एक बार मोहन ने कहा भी था- ‘भाभी जी! आजकल आप परिवार के दूसरे बच्चों को अनदेखा कर रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाक़ी सभी रोलू से दूर होते चले जाएँ।’
तभी सोनी देवी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा था- ‘रोलू सा कोई नहीं है, उसे अपने ख़ानदान की जिम्मेदारी संभालनी है, उससे किसी दूसरे बच्चे की तुलना नहीं की जा सकती।’
एक-दो बार और भी मोहन ने अपनी विधवा भाभी को समझाना चाहा, मगर सोनी की आँखों पर तो जैसे पट्टी बंधी थी। वह किसी की कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं होती। मोहन भी मौन हो जाता।
इन परिस्थितियों का मूल कारण भी छोटे भाई, मोहन को ही मानने लगे थे। यही कारण है कि परिवार के दूसरे लोग गाहे-बगाहे सोनी देवी को मोहन के ख़िलाफ़़ चढ़ाते और बदले में हमदर्दी बटोरते। या फिर कभी-कभी मोहन से भी भाभी की शिक़ायत करते, और मोहन के मौन से अपने सवालों का जवाब जानने का असफल प्रयास करते।
एक बार सबसे छोटे भाई ने मोहन से कहा था- ‘देख लेना भाई! हम भी मौन ही रहेंगे, किंतु हमारे ख़ानदान के लिए यह मौन ठीक नहीं रहेगा।’
इसका परिणाम यह हुआ कि अब गाँव के वो लोग भी मोहन और उसके परिवार के ख़िलाफ़ बोलने लगे, जो उनके आगे खड़े होने में भी हिचकिचाते थे। मोहन के खेतों में भी अब नुकसान होने लगा था। दोनों पड़ोसी राज और नची भी मिल गए थे। उसने अपने भाइयों और नौकरों से कहा, तो सबने सामने हां-हाँ कर दी मगर ध्यान देने को कोई तैयार नहीं था।
अब तक सोनी देवी भी नुकसान से बिलबिला उठी थीं। उन्होंने परिवार के सदस्यों को एकत्रित किया और उन्हें उनकी जिम्मेदारी में लापरवाही के लिए डाँटने लगीं- ‘तुम सब निकम्मे हो गए हो, कोई भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहा है।’
सुनकर सभी मौन थे, कोई कुछ नहीं बोला था। सोनी देवी को उनका यह मौन कभी बहुत अच्छा लगता था, ख़ुश होती थीं, कि उनके सामने कोई नहीं बोलता है, मगर आज यही मौन उन्हें काटने को दौड़ रहा है, वह बेचैन हैं कि कोई बोलता क्यों नहीं।