अमन कुुमार त्यागी
ठगों की सभा प्रारंभ हो चुकी थी। ठगों के राजा सिंहासन पर बैठे हुए प्रत्येक ठग की बात सुन रहे थे। ठगों के विभिन्न जातियों से होने के बावजूद उनमें एकता थी। इन ठगों में परिवारवाद अथवा जातिवाद को लेकर कोई विवाद नहीं होता था। सभी ठग अपनी-अपनी ठगी के किस्से सुना रहे थे।
-‘मित्रों! मैंने अपने भाई को ठगकर रिकार्ड बनाया है। मेरा वह भाई जो एक-एक रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है, कड़ी मेहनत के बाद परिवार के साथ खा-पीकर सुख की नींद लेता है, उसे मैं एक दो बार नहीं बल्कि अनेक बार ठग चुका हूँ, मगर कमाल की बात यह है कि वह फिर भी मुस्कुराता रहता है और कोई शिक़ायत नहीं करता। उसने कभी मुझसे ठगे गए अपने पैसे नहीं माँगे। यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आया तो मैंने दो-तीन लोगों को यह रहस्य जानने के लिए लगाया।’
-‘मित्रों! उन लोगों ने जो जानकारी दी वह रोचक थी और हमारे ठगी के धंधे के लिए भी लाभकारी थी। अर्थात् भविष्य में हमारे ठगी के धंधे में कोई ख़तरा उत्पन्न होने वाला नहीं है।’
-‘मित्रों! जानकारी करने पर ज्ञात हुआ है कि मेरा भाई अपने ठगे जाने के बारे में अच्छी तरह जानता है। वह दुःखी भी होता है मगर शिक़ायत नहीं करता। उसका मानना है कि शिक़ायत करने अथवा दुःखी होने से कोई लाभ नहीं होगा, बेहतर यही है कि सब कुछ भुलाकर अपने काम में लगा जाए ताकि अगले दिन की रोटी की व्यवस्था हो सके।’
-‘हे ठगराज! जब तक इस समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं, हमारे ठगी के धंधे पर कैसे आँच आ सकती है।’ कहकर वह ठग अपनी सीट पर बैठ गया। तभी दूसरा ठग उठा और ठगराज को अभिवादन करने के बाद बोला-
-‘महाराज! मेरे ठग मित्र ने जिसे अपना भाई बताया है और उसकी शराफ़त का गुणगान किया है, उसका दूसरा पहलू मेरे ठग मित्र को दिखाई ही नहीं दिया।’
-‘आप बताएँ।’ ठगराज ने पूछा।
-‘महाराज! मेरे ठग मित्र के इसी भाई ने अभी दो दिन पहले ही हमारे एक अन्य साथी ठग को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। उसकी पिटाई भी कराई और ठगे गए सारे पैसे भी वापिस ले लिए।’
-‘क्यों? क्या यह बात सही है?’ महाराज ने पहले ठग की और इशारा करते हुए पूछा।
-‘जी महाराज!’ वह ठग खड़ा होते हुए बोला-‘मेरे ठग मित्र ने जो बात बताई है, वह बिल्कुल सही है।’
-‘अभी तो तुम बता रहे थे कि तुम्हारा भाई शरीफ़ आदमी है?’
-‘हाँ महाराज!’ मैं अभी भी कह रहा हूँ कि मेरा भाई बेहद शरीफ़ आदमी हैकृकृमगर कमज़ोर कतई नहीं।’
-‘आख़िर तुम कहना क्या चाहते हो?’ ठगराज ने पूछा।
-‘महाराज! मेरा भाई कमज़ोर नहीं है, वह ईमानदार, शरीफ़ और मज़बूत इरादों वाला व्यक्ति है। कोई उसे ठग नहीं सकता और कोई उसे दबा नहीं सकता। वह निडर है और सच्चाई का साथ देने वाला है। ऐसे व्यक्ति को ठग लेना महान ठगी ही कहलाएगी, और मैंने उसे ठग लिया है।’ ठग ने गर्व के साथ सीना चैड़ा करते हुए कहा।
ठगराज ने सभा में बैठे सभी ठगों को बारी-बारी से देखा। सभी हैरान थे।
ठगराज ने पुनः उस ठग से कहा-‘ऐसे ही लोग तो हमारे ठग समाज के लिए ख़तरा हैं।’
-‘नहीं महाराज! ऐसी बात नहीं है।’
तभी एक और ठग खड़ा हुआ और बोला-‘महाराज! मेरे ठग मित्र अपने भाई को बचाना चाहते हैं। इन पर भ्रातृ-प्रेम उद्घाटित हो रहा है।’
महाराज ने पुनः पहले ठग की ओर घूरते हुए देखा। पहले ठग के चेहरे पर कोई भी घबराहट नहीं थी। वह आत्मविश्वास के साथ बोल रहा था।
-‘महाराज मेरे ऊपर लगाया गया भ्रातृ-प्रेम का आरोप निराधार एवं बेबुनियाद है। इनके इस आरोप में किंचित सच्चाई नहीं है और न ही मेरे भाई जैसे लोग हमारे समाज के लिए कोई ख़तरा ही हैं। ज़रूरत है तो बस इस बात की कि हमें समय रहते अपनी नीतियों पर विचार करना होगा।’
ठगराज नहीं समझ पाए कि वह ठग कहना क्या चाहता है। पहले तो उन्होंने सभागार में बैठे एक-एक ठग को देखा, फिर खड़े होकर जवाब दे रहे ठग की ओर घूरकर देखते हुए पूछा-‘आख़िर तुम कहना क्या चाहते हो?’
-‘महाराज! मेरा भाई सिद्धांतवादी और संघर्षशील व्यक्ति है। समाज में सभी लोग उसे जानते हैं। अब कोई उसे ठगेगा तो उसकी दमदार प्रतिक्रिया भी होगी। चूंकि वह समाज के अग्रिम लोगों में से एक है, इसलिए उसके एक इशारे पर समाज के अनेक लोग भी खड़े हो जाते हैं, ऐसे लोगों को ठगने से बचना चाहिए। इसी में हमारे समाज का हित है।’
कहकर जैसे ही वह ठग शांत हुआ, ठगराज क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए बोले-‘तुम दोगली बात कर रहे हो ठग।’
-‘नहीं महाराज! मैं जो कह रहा हूँ, वह तर्क संगत है। ठग ने रहस्यात्मक अंदाज़ में कहा।
तभी ठग सभा का प्रत्येक ठग बोल उठा-‘हमारी समझ में कुछ नहीं आया-हम कुछ नहीं समझ पा रहे हैं।’
-‘शांत-शांत!’ ठगराज ज़ोर से चिल्लाए।
वातावरण शांत हो गया और सभी की निगाहें खड़े हुए ठग पर पुनः टिक गईं।
-‘जो भी कहना है स्पष्ट कहो।’ ठगराज अपनी मूंछों पर हाथ फिराते हुए बोले।
-‘महाराज! मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह स्पष्ट ही है।’ उसने बाक़ी ठगों की बुद्धि पर तरस खाते हुए पुनः कहा-‘ठीक है, मैं समझाता हूँ।’
एक पल के लिए वह ठग शांत हुआ। सभागार में ख़ामोशी छा गई। ऐसी ख़ामोशी कि ठगों की सांसों को भी स्पष्ट सुना जा सकता था। एकाएक ठग ने बोलना प्रारंभ किया-
-‘ऐसे ठग हाथ उठाएँ, जिन्होंने अपने माँ-बाप या भाई-बहन को ठगा हो।’
दो-तीन ठगों ने हाथ उठाए, तो ठग ने उनसे पूछा-‘ठगी के बाद क्या हुआ?’
एक ठग ने खड़े होकर जवाब दिया-‘कुछ नहीं हुआ, अपनी ग़लती के लिए माफ़ी माँगी और बात ख़त्म।’
ठग ने अपने साथियों के चेहरों को देखने के बाद ठगराज की तरफ़ देखते हुए, हाथ जोड़कर पूछा-‘क्या अभी भी मेरी बात समझ में नहीं आई महाराज!’
ठगराज ने ना में गर्दन हिलाई तो ठग ने पुनः समझाना प्रारंभ किया।
-‘महाराज! मैं भी मानता हूँ कि सिद्धांतवादी और संघर्षशील प्रवृत्ति के मेरे भाई जैसे लोग हमारी ठगी की राह में अवरोध का काम करते हैं लेकिन यही वह अवरोध भी है, जो हमारे विरोधियों को हम तक पहुँचने से रोकते हैं।’
ठगराज बेचैन थे। उन्होंने ठग को घूरते हुए कहा-‘जो भी कहना हो संक्षेप में और स्पष्ट कहो। पहेलियाँ बुझाने का काम मत करो।’
-‘जी महाराज! मेरे कहने का तत्पर्य यह है कि हमें अपने सदस्य ऐसे परिवारों में बनाने चाहिए जो समाज में प्रतिष्ठित हों और सिद्धांतवादी हों क्योंकि ऐसे लोगों को जब कोई अन्य व्यक्ति ठगता है, तो प्रतिक्रिया ठग को भारी पड़ती है मगर जब उनका अपना सगा-संबंधी उन्हें ठगता है तब उनकी प्रतिक्रिया उन्हीं पर भारी पड़ती है। इसलिए वह ख़ामोश रहते हैं। समाज में उनकी इज़्ज़त का मोह उन्हें बोलने नहीं देता और ऐसे में हमारा ठग समाज ख़ूब फलता-फूलता है।’
ठग की बात सुनकर ठगराज ने चैन की सांस ली। उनका क्रोध कम हुआ और उन्होंने निर्णय सुनाया- ‘तमाम बहस के बाद यही सिद्ध होता है कि हमें अपनी परंपरा ‘ठग न किसी का सग’ को जीवित रखना ही होगा।’
ठगराज के निर्णय के साथ ही ठग-सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा और नारे लगने लगे-‘ठग परंपरा जिंदाबाद...ठग महाराज जिंदाबाद।’