अमन कुुमार त्यागी
आज पंद्रह अगस्त है। पंद्रह अगस्त के महत्त्व को कोई भारतीय भला कैसे भूल सकता है। इस दिन हमारा पुनर्जन्म हुआ था। दासता की बेड़ियाँ कट गई थीं। अब तक हमारी स्वतंत्रता के लिए न जाने कितने ही वीर सपूत बलिवेदी पर हँसते-हँसते चढ़ गए थे। हमारी गुलामी की बहुत छोटी वजह थी और यह वजह थी आपसी फूट। हमारी आपसी फूट का परिणाम हमने लगभग बारह सौ वर्षों तक भुगता था। जब हम एक थे तो सिकंदर जैसे महान यो(ा का भी भारत आकर विश्वविजय का सपना धराशाई हो गया था। सेल्युकस को अपनी पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त के साथ करना पड़ा था। मगर जब हममें फूट पड़ने लगी तो शक, हूड़ और न जाने कौन-कौन भारत की छाती पर चढ़ आए। लगभग एक हज़ार साल तक यवनों और तातारों ने हम पर सल्तनत, खिलजी, गुलामवंश, लोदी वंश और मुगल वंश आदि के रूप में राज किया। इस बीच हमारे मंदिर तोड़े गए, विद्यालय तोड़े गए, पुस्तकालयों को अग्नि की भेट चढ़ा दिया गया। विधर्मियों ने न जाने कितने ही भारतीयों का धर्मपरिवर्तन करा दिया। चारों ओर चीख़-पुकार मची थी मगर सुनने वाला कोई नहीं था और फिर विदेशी व्यापारिक कंपनी भी हमारी फूट का लाभ उठाकर लगभग दो सौ साल तक हमारे भाग्यविधाता बनकर बैठी रही। मगर जब स्वतंत्रता ने पुकारा तो इस यज्ञ में आहुति देने के लिए हमारे देश की जनता पुनः एक हो गई। बच्चे, बूढ़े और जवान, क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी ने अपने आपको झोंक दिया। परिणाम सुखद आया और हम पंद्रह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में आजाद हो गए। आजादी के बाद हमारे पड़ौसी ने पहले हमसे दोस्ती गांठी और फिर हम पर हमला कर दिया। हमारा भारी नुकसान तो हुआ मगर हमने हिम्मत नहीं हारी, दूसरे हमले में हमने उसे सबक सिखा दिया, तो उसने हमसे अलग हुए हमारे ही भाई को सब्ज़बाग़ दिखाते हुए, हम पर हमला करा दिया मगर अब तक हम संभल चुके थे। हमने दिखा दिया कि हम अब सब भारतीय एक हैं और अब किसी को भी अपने देश की सीमाओं में घुसने नहीं दिया जाएगा।
मास्टर साहब को याद आ रहा है कि कुछ इसी तरह का भाषण उन्होंने बीते वर्ष अपने विद्यालय में दिया था, और भी न जाने क्या-क्या कहा होगा? कुछ याद है और कुछ भूल गए। नया भाषण तैयार करना था मगर मन विचलित था। रात्रि में दो बजे आए एक फोन ने उनकी नींद उड़ा दी थी। इधर-उधर टहलते हुए वह किसी तरह रात काट रहे थे। नहीं रहा गया तो उन्होंने मोबाइल उठाया और अपने छोटे बेटे का नंबर मिला दिया। कुछ देर बाद बात हो सकी।
-‘नमस्ते पापा! स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।’ बेटे ने उधर से कहा तो मास्टर साहब को कुछ तसल्ली हुई। उन्होंने जवाब दिया-नमस्ते बेटा! फिर पूछा- ‘सो तो नहीं रहे थे।
-‘नहीं पापा! सोने का मतलब ही नहीं है। आपने ऐसा जगाया है कि अब सोने को जी ही नहीं चाहता।’ बेटे का जवाब मास्टर साहब को अच्छा लगा तो उन्होंने भी कहा- ‘अच्छी बात है बेटा! सो मत जाना! तुम्हारा सोना हमें फिर हज़ारों साल के लिए गुलाम बना सकता है।’ मास्टर साहब की बात सुनकर बेटे ने आश्वस्त किया- ‘नहीं पापा! आप चिंता न करें। न तो हम सोएंगे और न ही एक इंच पीछे हटेंगे।’
- ‘जय हिंद बेटा!’ कहकर मास्टर जी ने मोबाइल डिस्कनेक्ट कर दिया।
मास्टर जी ने मोबाइल मेज पर रखा और नेत्रों से बहने को तैयार अश्रुभंडार को पौंछ डाला। वह फिर टहलने लगे। उन्हें कुछ याद आया। मोबाइल उठाया और उसमें कोई नंबर मिलाकर इंतज़ार करने लगे। उधर से आवाज़ आई- ‘जय हिंद मास्टर जी!’ सुनकर मास्टर जी ने जवाब दिया- ‘जय हिंद बेटा! और स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।’
- ‘आपको भी मास्टर जी! एक बात कहूँ मास्टर जी!’ उधर से कहा गया तो मास्टर जी बोले- ‘हाँ, बोलो!’ उधर से कहा गया- ‘बड़े भैया को भी फोन कर लेना। उनकी पोस्ट पर पाकिस्तान की ओर से लगातार गोली-बारी हो रही है।’ सुनकर मास्टर जी ने जवाब दिया- ‘मैं जानता हूँ, वह कायर नहीं है, पीठ पर नहीं सीने पर गोली खाएगा।’ कहतेे हुए मास्टर साहब ने आँखों से आँसू पौछते हुए मोबाईल एक तरफ़ रख दिया।
बाद में एक-एक कर उन्होंने अपने गाँव के उन सभी दस जवानों से फोन पर बात की जो उनकी प्रेरणा से गत वर्ष सेना में भर्ती हुए थे।
इस बार भी बीस युवा भर्ती होने को तैयार थे। वह चाहते थे कि मास्टर जी का भाषण सुनकर ही भर्ती के लिए निकलें ताकि जोश बना रहे। मास्टर जी भी तो चाहते थे कि इस बार का भाषण पिछली बार से अधिक प्रभावशाली हो। वह तैयारी भी कर रहे थे मगर लिख नहीं पा रहे थे। उनकी बेचैनी स्पष्ट झलक रही थी।
कुछ देर में परिवार के दूसरे लोग भी जाग गए थे। तब तक मास्टर साहब स्नानादि कर तैयार हो गए। उन्होंने नए कपड़े पहने और डायरी हाथ में लेकर पुनः भाषण लिखने का प्रयास किया। मगर कुछ देर सोचने के बाद डायरी एक तरफ़ रखी और पैन कुर्ते की जेब में लगा लिया। स्कूल जाने का समय हुआ तो नाश्ता-पानी कर पहुँच गए, ध्वजारोहण के लिए। ध्वजारोहण हुआ। मास्टर साहब ने बिना तैयारी के बावजूद सारगर्भित और देशभावना से ओतप्रोत भाषण दिया। स्कूली बच्चों के साथ-साथ गाँव के सभी उपस्थित लोग तालियाँ बजा उठे। भर्ती में जाने को तैयार बच्चों ने लड्डु खाकर मास्टर जी के चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया और अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए। शेष रह गए स्कूल के अध्यापक और गाँव के कुछ गणमान्य लोग। तभी मास्टर साहब ने एक व्यक्ति को जेब से निकालकर पैसा देते हुए कहा- ‘तुम फौरन जाओ और लकड़ी की व्यवस्था करो।’
मास्टर साहब के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सभी अचंभित थे। अभी कोई कुछ समझ पाता कि उन्होंने जेब से मोबाईल निकाला और एक नंबर मिलाया। कुछ देर घंटी जाने के बाद जैसे ही उधर से हैलो की आवाज़ आई मास्टर साहब बोल उठे-‘ब्रिगेडियर साहब! अब देर न करें, जितना जल्दी हो सके ले आइए, मैं एक के बदले बीस जवान और देश को दे चुका हूँ। किंतु अंतिम क्रियाकर्म आज पंद्रह अगस्त को ही होना चाहिए। मैं तैयारी करा रहा हूँ।’
-‘बात क्या है मास्टर साहब? आप कुछ बताते क्यों नहीं?’ प्रधान जी ने ज़ोर देकर कहा तो मास्टर साहब ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों की तरफ़ देखा। फिर होठों पर मुस्कान लाते हुए बोले- ‘कल इस गाँव का एक बेटा शहीद हो गया है। हमें फभ्र है कि हमारे बच्चे ने पीठ पर नहीं सीने पर गोली खाई है।’
-‘किंतु कौन?’ एक साथ सभी के मुँह से निकला।
-‘मेरा बड़ा बेटा, जिसके बच्चे का कल नामकरण संस्कार था। .... आज वही अपने वीर पिता को मुखाग्नि देगा।’ कहते हुए मास्टर साहब उठे। फिर प्रधान जी की तरफ़ बढ़े और बोले- ‘मेरा पोता भी सेना में भर्ती होगा, प्रधान जी! जब हम अपने खेत की डोल किसी को नहीं जोतने देते तो फिर देश की डोल कोई कैसे जोत सकता है।’ कहते हुए मास्टर जी ने एक लंबी सांस ली और पुनः बोले- ‘हमारी स्वतंत्रता हमें आज भी पुकार रही है। अब हम अपनी स्वतंत्रता का सौदा किसी भी क़ीमत पर नहीं कर सकते। हमने गुलामी की पीड़ा को सदियों सहा है।’