जुगाड़ Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जुगाड़


अमन कुमार त्यागी

गुणनो न विदेशोऽस्ति न संतुष्टस्य चा सुखम्।
धीरस्य च विपन्नास्ति नासाध्यं व्यवसायिनः।।
-‘बच्चों! संस्कृत के इस श्लोक का अर्थ यह है कि गुणी मनुष्य के लिए कहीं विदेश नहीं, धीर व्यक्ति के लिए विपत्ति नहीं और पुरुषार्थी के लिए कुछ भी असाध्य नहीं।’
मोहन बाबू अपने सामने बैठे बच्चों को समझा ही रहे थे कि तभी वहाँ रामेश्वर प्रसाद पहुँच गए और उन्होंने ताना देते हुए कहा- क्या उपदेश दे रहे हो मोहन बाबू! आज ज़िंदगी उपदेशों और सि(ांतों से नहीं बल्कि जुगाड़ से चलती है। मैं एक महीने में इतना कमा लेता हूँ, जितना कि तुमने अपनी पूरी ज़िंदगी में नहीं कमाया है।’
मोहन बाबू कुछ कहते कि उससे पहले ही रामेश्वर प्रसाद ने अपने बेटे सुमित का हाथ पकड़ा और उसे साथ लेकर चलते बने।
मोहन बाबू, रामेश्वर प्रसाद के सगे बड़े भाई थे। यह इत्तेफ़ाक नहीं था कि रामेश्वर प्रसाद पर धन-दौलत की कमी नहीं थी और मोहन बाबू का जीवन अभावग्रस्त था। बल्कि यह स्वभाववश था।
दरअसल मोहन बाबू प्रारंभ से ही सै(ांति प्रवृत्ति के कर्मपारायण और पुरुषार्थी व्यक्ति थे। उनके पिता ज़मींदार थे। इस नाते उन पर धन-दौलत की भी कमी नहीं थी परंतु उनका छोटा भाई रामेश्वर प्रसाद एकदम विपरीत स्वभाव का था। पिता की मृत्यु के बाद दोनों पर बराबर संपत्ति थी.......मगर रामेश्वर प्रसाद अपनी संपत्ति को बढ़ाने के लिए तमाम उल्टे-सीधे काम करते थे, जबकि मोहन बाबू, जो था उसी में धैर्य रखते थे। वह कई बार रामेश्वर प्रसाद को समझाने का भी प्रयास करते, मगर रामेश्वर प्रसाद उल्टे उन्हीं की मज़ाक बनाते और कहते- मैं बहुत जुगाड़ू हूँ........देखना एक दिन मेरे पास अकूत दौलत होगी।’ सुनकर मोहन बाबू मुस्कुराकर रह जाते।
एक बार की बात है। रामेश्वर प्रसाद ने कोई अपराध कर डाला। पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और जेल भेज दिया। मोहन बाबू ठहरे नेक दिल इंसान। उन्होंने भाई को बचाने के लिए पैरवी शुरू कर दी। नतीजा यह निकला कि भाई को बचाने के एवज़ में अपनी काफ़ी ज़मीन उन्हें सस्ते दामों पर बेचनी पड़ी। हालांकि गाँव वालों ने मोहन बाबू को रोका भी था। उन लोगों का कहना था कि रामेश्वर प्रसाद खुदगर्ज़ इंसान है, वक़्त पड़ने पर वह तुम्हारी कोई मदद नहीं करेगा। उसे बचाने के लिए तुम्हें अपनी ज़मीन नहीं बेचनी चाहिए।’
मगर मोहन बाबू ने किसी की नहीं सुनी। अपना कर्तव्य निभाया। एक बार नहीं बार-बार निभाया। थोड़ी-थोड़ी कर मोहन बाबू अपनी सभी ज़मीन बेच चुके हैं। पढ़े-लिखे हैं, इसलिए एक गै़र सरकारी स्कूल में नौकरी कर ली है और कुछ ट्यूशन भी पढ़ा लेते हैं। स्वभाव आज भी वही है। जब भी समाज सेवा या किसी ग़रीब को दान देने की बात आती है तो वह सबसे आगे होते हैं। उनका एक पुत्र है, जिसका नाम है अमित।...अमित और सुमित एक ही कक्षा के छात्र हैं, इसलिए घर पर भी साथ-साथ पढ़ लेते हैं।
रामेश्वर प्रसाद ने मोहन बाबू पर कटाक्ष किया तो अमित को बुरा लगा। उसने तुरंत अपने पिताजी से कहा- पिताजी! आप अपना सबकुछ इन लोगों के लिए ख़र्च कर चुके हैं और अब भी आपकी दान प्रवृत्ति नहीं गई है, हम ग़रीब हो गए हैं।’
‘ऐसी बात नहीं है बेटे! यह लोग भी हमारे अपने ही हैं।’ मोहन बाबू ने बड़े ही प्यार से समझाने का प्रयास किया।
अमित मचल उठा- ‘परंतु आपकी इस दान देने की प्रवृत्ति के कारण आपको नहीं लगता कि हम अभाव भरी ज़िंदगी जी रहे हैं।’
मोहन बाबू ने एक लंबी सांस ली। फिर बोले- ‘लगता तो है बेटे! मगर फिर भर्तृहरि नीतिशतक का यह श्लोक याद आ जाता है- तनिम्ना शोभंते गलित विभवाश्चार्थिषु जनाः। इस श्लोक का अर्थ है- याचकों को दान देते-देते जो ग़रीब हो जाते हैं उनकी ग़रीबी भी उनके लिए शोभावर्धक होती है।’
पिता की बात सुनकर अमित ने समर्थन में सिर हिलाया मगर फिर सोचकर बोला- ‘लेकिन पिताजी! सुमित और उसके पिताजी आपकी बातें नहीं मानते हैं, वह कहते हैं कि सुमित भी अपने बाप की तरह जुगाड़ू है, सुमित भी एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और मुझे वह लोग कहते हैं कि मैं आपकी ही तरह दकियानूसी हूँ।’
पुत्र की बात सुनते ही मोहन बाबू के होठों पर मुस्कान नृत्य कर उठी। वह अपने बेटे को तरह-तरह की बातें समझाते रहे और समय का पहिया अबाध गति से घूमता रहा। अमित की आगे की पढ़ाई के लिए मोहन बाबू ने गाँव छोड़ दिया। अमित भी मन लगाकर पढ़ा और अच्छी नौकरी प्राप्त कर वह अधिकारी वर्ग में शामिल हो गया। मोहन बाबू बेहद ख़ुश है।
बेटे के अधिकारी बन जाने के बाद मोहन बाबू की चिंताएँ जैसे समाप्त हो गई थीं। एक दिन उन्हें भाई रामेश्वर प्रसाद की याद आई......फिर मस्तिष्क को झटका लगा, वह गाँव भाई से मिलने के लिए जाना चाहते थे परंतु भाई का व्यवहार उन्हें पसंद नहीं था। वह सोचते -‘कहीं उसने पुनः बेइज़्ज़ती की तो क्या होगा?’ मोहन बाबू कई दिन तक बेचैन रहे। पिता को बेचैन देख अमित ने उनसे कारण जानना चाहा मोहन बाबू ने बेटे को अपनी समस्या बता दी। अमित ने पिता का कोई विरोध नहीं किया। उसने कहा- ‘ठीक है पिताजी! आप चाचा जी से मिल आइए, एक बार और आज़मा कर देख लीजिए, शायद उनमें अभी कुछ इंसानियत शेष हो।’
अमित की बात सुनकर मोहन बाबू ने जो कहा वह कोई महान पुरुष ही कह सकता है। उन्होंने कहा- ‘बेटे! निभाये जाने वाले रिश्तों को कभी आज़माया नहीं जाना चाहिए। रामेश्वर मेरा भाई है, उसे कभी भी मेरी ज़रूरत पड़ सकती है।’
मोहन बाबू गाँव पहुँच गए। देखते ही लोगों ने उन्हें पहचान लिया। लंबा अरसा हो गया था गाँव छोड़े हुए। सब कुछ बदल गया था। चैपालें ख़त्म हो गई थीं, गाँव के बीच वाला पीपल का विशाल वृक्ष अब नहीं था, छप्परों-उसारों की जगह अब पक्के मकानों ने ले ली थी। सवारी गाँव तक चलने लगी थीं, सड़के पक्की हो गई थीं, बच्चों के गडूलने भी ख़त्म हो गए थे, उनकी जगह प्लास्टिक और स्टील के वाकर आ गए थे। बच्चे नमस्ते की बजाए गुडमार्निंग बोलने लगे थे, रिश्तों में अंकल-आंटी ने अपनी जगह पुख़्ता कर ली थी, सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के बजाए बच्चे कान्वेंट में पढ़ने लगे थे। यकायक गाँव की इतनी तरक्की देखकर मोहन बाबू आश्चर्य चकित थे। मोहन बाबू अपने पैतृक आवास पर पहुँचे। वह अब खंडहर हो चुका था। घेर में रामेश्वर प्रसाद ने पहले ही पक्का मकान बना लिया था, जिसे देखने से लग रहा था कि वर्षों से पुताई नहीं हुई है। मोहन बाबू के कदम तेज़ी से बढ़ने लगे थे। उन्हें किसी अनहोनी की आशंका ने आ दबोचा, क्योंकि वह अपने भाई और उसके दिखावे को अच्छी तरह जानते थे। मोहन बाबू अभी दरवाज़े पर पहुँचे ही थे कि सामने से आते हुए एक फटेहाल वृ( को देखते ही अवाक् रह गए। मोहन बाबू कुछ भी तो नहीं समझ पा रहे थे। जबकि वह व्यक्ति जो कि रामेश्वर प्रसाद ही थे। भाई को देखकर रो पड़े और उनके पैरों पर गिर पड़े। रोते-रोते रामेश्वर प्रसाद कह रहे थे- ‘भैया मुझे माफ़ कर दो, मैंने तुम्हारे साथ ज्यादती की है, दुनिया की चमक में शामिल होने के लिए मैंने तुम्हारा ही नहीं, न जाने कितने ही लोगों का हक़ मारा है और जिस पुत्र के लिए यह सब किया अंत में वही पुत्र मुझसे भी ज़्यादा धूर्त निकला।’
मोहन बाबू ने रामेश्वर प्रसाद को ऊपर उठाया और अपनी छाती से लगा लिया। उनकी आँखों से भी अश्रुधारा फूट पड़ी। थोड़ी देर तक गंगा-जमना बनी आँखें नीर बहाती रहीं। मोहन बाबू ने अपने आपको संयत कर पूछा- ‘तुम्हारे पास तो काफ़ी दौलत एकत्र हो गई थी........फिर यह अचानक सब कुछ कैसे हो गया?’
रामेश्वर प्रसाद अपनी आँखों को साफ़ करते हुए बोले- ‘क्या बताऊँ भैया! तुम्हारे जाने के बाद सुमित का मन पढ़ाई में तो लगा नहीं, वह इधर-उधर भटकने लगा। तभी उसे फैक्ट्री लगाकर रातों-रात अरबपति बनने की सूझी। योजना उसकी अच्छी थी। कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के लिए अच्छी-खासी रकम की ज़रूरत थी। मैंने ज़मीन और गहने बेच डाले। फैक्ट्री लग गई, चल भी पड़ी मगर लालच की नाव अभी भरी नहीं थी। सुमित ने सेल टैक्स और इनकम टैक्स की चोरी भी करनी शुरू कर दी। धन की जैसे बरसात हो रही थी। दोनों हाथों से ख़र्च करने के बावजूद तिज़ोरी और बैंक बैलेन्स कम नहीं हो रहा था। मगर भूख थी कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सुमित में नए-नए ऐब पड़ गए थे। जिस कारण लापरवाही होने लगी और फैक्ट्री में नुकसान होेने लगा। मैंने सुमित को समझाने का प्रयास किया तो उल्टे उसने मुझे बेइज़्ज़त किया और सभी संपत्ति कब्ज़ा कर बैठ गया। यह घर बचा है जहाँ सिर छिपाने के लिए जगह मिल गई है।’
दो बिछड़े भाइयों का मिलन हो रहा था। गाँव के जो भी व्यक्ति वहाँ मौजूद थे, उनकी आँखें भी भर आई थीं। मौन रहकर भी वह मोहन बाबू के त्याग और धैर्य की तारीफ़ें कर रहे थे और मोहन बाबू अपने भाई रामेश्वर प्रसाद को समझा रहे थे- ‘अरे पागल! आज तक कोई लूट-खसोट कर बड़ा बना है, सम्राट अशोक ही को देख लो कलिंग विजय के बाद उन्होंने जो त्याग किया उसी ने महान सम्राट अशोक बना दिया। राम, ईसा, मोहम्मद दुनिया में जितने भी महान हुए हैं सभी ने बहुत सा त्याग किया है। धन और दौलत से शांति नहीं मिलती है, बावले! दौलत तो आदमी के मन को और भी अशांत कर देती है। तू अपने आप ही को देख, अब तेरे पास दौलत नहीं है तो इंसानियत जाग गई है और मुझे देख मैंने सबकुछ खोने के बाद अपने पुत्र में संस्कार पैदा किए हैं।’
रामेश्वर प्रसाद ने आश्चर्यजनित नेत्रों से मोहन बाबू की ओर देखा। मोहन बाबू मुस्कुरा दिए। उन्होंने कहा- ‘चिंता की कोई बात नहीं, हम आज ही शहर चलेंगे और अमित के पास रहेंगे, वहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा।’
मोहन बाबू भाई को लेकर बेटे के पास पहुँच गए। वहाँ उन्हें सुमित को देखकर हैरानी हुई। वह भी बेहाल था। मोहन बाबू को देखते ही उनके पैरों पर गिर पड़ा और मलीन भाव से बोला- ‘मुझे माफ़ कर दो ताऊ जी! मैं बर्बाद हो गया। इनकम टैक्स और सेल टैक्स वालों ने छापे मारकर मुझे कहीं का नहीं छोड़ा, कमबख़्तों की वजह से मेरा अमीर बनने का सारा जुगाड़ फेल हो गया।’
मोहन बाबू ठहरे नेक दिल इंसान। उन्होंने सुमित को भी गले से लगा लिया और समझाते हुए कहा- ‘ज़िंदगी जुगाड़ से नहीं चलती, पुत्र! बल्कि जीने के लिए नियम, संयम और सिद्धंत चाहिए।’