अमन कुमार त्यागी
काला आसमान अपने आपको नीला रंग दे रहा था। तारे छिपने का प्रयास कर रहे थे और चांदनी अब सुनहरी होने को थी। मुर्गे बाग दे चुके थे। कुत्ते रात भर भौंकने के बाद ऊंघ रहे थे। पेड़ों पर चिड़िया चहचहा रही थीं। इंद्र देव की कृपा से सभी पेड़-पौधों पर जमी गर्द धुल गई थी, सड़कें साफ़ और ठंडी हो गई थीं। मुरझाई सरसों अब पीले वस्त्र औढ़े मस्ती में झूम रही थी। ठंडी बयार में आम की हरी-सुनहरी कौंपले और बोर मन को कवि बना देने पर मजबूर कर रहे थे। आम के आकर्षण से कोयलों ने अब आना शुरू कर देना था और फिर कोयल की कूक से संपूर्ण वातावरण संगीतमय हो जाना था। भोर होते ही घर से निकलकर जंगल जाते हुए यह दृश्य देख मन मयूर सा नाच उठा। मुझे अच्छी तरह याद है, बीते दिन जब मैं घर आ रहा था तब सड़कें किसी नाग की भांति ज़हरीली लग रही थीं। पेड़-पौधों के पत्तों का रंग धूल-धुएँ में बदरंग हो चुका था। सरसों मुरझायी थी और लग रहा था कि कोई नवयौवना अपने प्रिय की विरह वेदना में झुलस रही हो। हवा गर्म हो गई थी। मानव द्वारा प्रदूषण से विकृत की गई प्रकृति ने एक ही रात में अपना वही आकर्षक रूप ग्रहण कर लिया था, जो असल में होना ही चाहिए था। ऐसा सौंदर्य जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रकृति ही प्रदान कर सकती है। अभी मैंने आधा रास्ता ही पार किया होगा कि तभी पीछे से एक युवक भागता हुआ मेरे पास आया। उसके लड़खड़ाते कदम, फूलती सांस और चेहरे का पीलापन किसी अनहोनी का संकेत दे रहा था। तत्पश्चात उसने जो सूचना दी वह वास्तव में दुःखी कर देने वाली थी। उसने बताया कि पूजा ने ज़हर खा लिया है।
सुनकर दिल को धक्का लगा। आँखों के आगे नीले-पीले सितारे गर्दिश करने लगे और आसमान काला नज़र आने लगा। वापिस घर की ओर चल दिया तो पैरों को ज़बरदस्ती आगे रख रहा था। एक ही पल में प्रकृति की ख़ूबसूरती किसी राक्षसी के नुकीले दांतों सी लगने लगी। जल्दी से जल्दी पूजा के घर पहुँच जाना चाहता था मगर एक ही पल ने इतनी थकान पैदा कर दी थी कि जैसे किसी लंबी पदयात्रा से वापिस आ रहा हूँ।
पूजा! यथा नाम तथा गुण। वह ख़ूबसूरत थी, समझदार थी और भारतीय संस्कृति को जीने वाली थी। पूजा को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए थी। अनायास ही मेरे होंठ बड़बड़ाए- ‘उसे संघर्ष करना चाहिए था। उसे हार नहीं माननी चाहिए थी।’ परंतु जिस पर बीतती है वही जानता भी है। वह पल-पल मर रही थी। उसने मुझसे भी कई बार कहा था- ‘भैया मैं अब जीना नहीं चाहती। आख़िर मेरा दोष क्या है जो यह समाज मुझे जीने नहीं देना चाहता है। हर पल जीने-मरने से तो बेहतर है,... भगवान मुझे हमेशा के लिए ही निजात दिला दे।’ उसके बोलने में इतनी पीड़ा होती थी कि मैं भी एकांत में जाकर घंटों रोया करता था। वह मेरी सगी बहन नहीं थी मगर वह मुझे अपना सहोदर ही मानती थी। मुझे भी उससे अधिक लगाव हो गया था।
बात लगभग चार साल पुरानी है। तब पूजा बारहवीं कक्षा की छात्रा थी। वह इतनी सुसंस्कृत, सुशील और कुशल थी कि उसके उदाहरण दिए जाते थे। हालांकि वह अभी नाबालिग थी मगर फिर भी बिरादरी के अच्छे और उच्च घरानों से उसके लिए रिश्ते आ रहे थे। पूजा का ख़्वाब आईएएस क्वालीफाई करना था। इसीलिए वह तन्मयता के साथ पहले अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी, लेकिन किस्मत में जो लिखा है उसे भी तो नहीं टाला जा सकता। तभी उनकी एक दूर की रिश्तेदारी का एक युवक संजय विदेश से इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके लौटा था। जब उसका रिश्ता पूजा के लिए आया तो पूजा के मम्मी-पापा मना नहीं कर सके।
लड़का अच्छा था। वह पढ़ा लिखा था और उच्च घराने का था। उससे अच्छा लड़का पूजा के लिए भला और कहा मिलता। हालांकि पूजा ने उस वक़्त विरोध भी किया था। उसने अपने पापा से कहा था- ‘आख़िर आप मर्द लोग कब तक बेटियों को बोझ समझते रहोगे। हमें अपना कैरियर क्यों नहीं बना लेने देते हो।’ मगर पूजा के पिता ने लड़के वालों से मिलकर यह तय किया कि जब पूजा ग्रेजुएशन कंपलीट कर लेगी तभी विवाह संपन्न किया जाएगा। संजय के परिवार वाले इस बात पर राज़ी हो गए थे और इसके बाद संजय का पूजा के घर आना-जाना, उससे बातें करना शुरू हो गया था।
जब परिवार में संजय घुल-मिल गया तो उसने पूजा को किसी टूरिस्ट प्लेस के लिए घूमने का आॅफर दिया। पूजा ने साफ़ इंकार कर दिया था। वह संजय से शादी से पहले एकांत में नहीं मिलना चाहती थी मगर संजय था कि वह तरह-तरह से प्रयास करता कि किसी भी तरह पूजा उसके साथ बाहर घूमने चली जाए।
उस दिन तो हद हो गई, जब संजय रात्रि में घर आया और उसने पूजा से मसूरी चलने के लिए कहा। पूजा ने साफ़ शब्दों में इंकार कर दिया तो संजय ने उल्हाना सा देते हुए कहा- ‘ठीक है, जब मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं है तो.....ऐसे रिश्ते बनाने से क्या फ़ायदा। आज के बाद मैं...इस..घर में कदम भी नहीं रखूँगा।’
पूजा की माँ को बेटी का घर बसने से पहले ही टूटता नज़र आया। उन्होंने तुरंत कहा- ‘अरे नहीं बेटे! ऐसी बात नहीं कहते। मैं पूजा को समझा लूंगी। तुम घूमने जाने का प्रोग्राम तय कर सकते हो।’ माँ की बात पूजा को अच्छी नहीं लगी। पूजा ने बिना किसी लाग-लपेट के कह दिया था- ‘मम्मी कैसी बात कर रही हो....रिश्ता रहे या टूटे, मैं कहीं जाने वाली नहीं हूँ।’
उस वक़्त संजय तो चला गया मगर पूजा की मम्मी ने आसमान सर पर उठा लिया। उन्होंने पूजा से कहा- ‘वह इतना अच्छा रिश्ता ठुकरा रही है। अब तो समाज को पता चल गया है। रिश्ता टूटने के बाद हम क्या मुँह दिखाएंगे बिरादरी में। अपनी नहीं तो अपने बाप की इज़्ज़त का ख़याल रख। अब पुराना ज़माना नहीं रहा है... जब लोग उंगलियां उठाते थे घूमने पर। तेरी बुआ की लड़की भी तो विवाह से पहले कई बार अपने पति के साथ घूमने गई थी। देख बेटी! अगर ये रिश्ता टूटा तो हम मुँह दिखाने लायक भी न रहेंगे’
जब मम्मी ने काफ़ी समझाया और अपनी तथा पापा की कसमें दी तो मजबूरन पूजा को बात माननी ही पड़ी। बेचारी पूजा को संजय के साथ मसूरी जाना ही पड़ा।
होना तो यह था कि दोनों युवा मसूरी की हसीन वादियों में एक दूसरे को घंटों निहारते। भविष्य के लिए सुनहरे सपने बुनते मगर ऐसा न हो सका। रूठी पूजा को संजय ने मनाया नहीं बल्कि उसके साथ वह सब किया जो एक राक्षस ही कर सकता था।
दरअसल हुआ यह कि जिस होटल में संजय ने कमरा बुक कराया था, उसी होटल में संजय के कुछ दोस्त पहले से ही रुके हुए थे। उनके वहाँ पहँुचते ही बाक़ी दोस्त भी उनके कमरे में चले आए। ज़रा रात हुई तो वहाँ का ख़ूबसूरत माहौल बिगड़ने लगा। होटल की आलीशान इमारत पूजा को जेल या फिर यातना गृह लगने लगी। संजय के दोस्तों ने शराब की बोतलें खोल ली थीं और टेलीविज़न की स्क्रीन पर अश्लील फिल्म के दृश्य उभरने लगे थे। पूजा ने विरोध किया तो संजय ने उससे भी तेज़ आवाज़़ में उसे डांट दिया। पूजा डर गई। वह आने वाले ख़तरों को भाँप गई थी। अभी वह कुछ कहना ही चाहती थी कि तभी हिप्पी से लगने वाले दोस्त ने कहना शुरू किया- ‘पुराने विचारों को छोड़ो मैडम! आधुनिक बनो। हम सब विदेशों में पढ़े-लिखे दोस्त हैं। हमसे कैसी शर्म।’ पूजा के कानों में हथोड़े से बज रहे थे। वह यहाँ से निकल भागना चाहती थी। मगर उसका दुर्भाग्य, वह उन चालाक दरिंदों से बच न सकी। उसका विरोध भी व्यर्थ गया। वह बेहोश हो गई और जब उसने आँखें खोलीं तो अस्पताल के बैड पर अपने आपको पाया।
इस घटना के बाद वह बुरी तरह से टूट गई थी परंतु मैंने उसका हौसला बढ़ाया। सभी दोषियों के ख़िलाफ़ मुकदमा भी चलने लगा। पूजा की माँ आज भी अपने को दोषी मानती हैं। वह कहती हैं- ‘मैं ही गुनहगार हूँ, मैंने ही अपनी बेटी के लिए अच्छा सहारा समझकर उसके गले में रेशमी फंदा डाल दिया। काश.....मैं संजय की बातों में न आती।’
लेकिन अब पूजा ने जीना सीख लिया था। वह मुकदमे की पैरवी कर रही थी। वह कसम खा चुकी थी कि दोषियों को सज़ा दिलाकर ही रहेगी। यह सभी बातें सोचते हुए मैं पूजा के घर पहँुच गया। मैंने पूजा की लाश देखी। चेहरे पर वही तेज़ था। उसके पास ही आज का ताज़ा ख़बर वाला अख़बार पड़ा था। मेरी निगाह अख़बार के एक हैडिंग पर पड़ी। मैं चैंका और फिर मैं समझ गया कि पूजा ने आत्महत्या क्यों की। मैंने पलकों में बंद पूजा की आँखों में झांकने का प्रयास किया। यकायक मुझे लगा कि वह मुझसे कह रही है- ‘आख़िर मेरा दोष क्या है भैया। यह कैसी सज़ा है जिसे हम औरतों को निर्दोष होने के बावजूद भुगतना पड़ता है। पिछले चार सालों से एक-एक पल सज़ा के रूप में काट रही हूँ....और जिन्होंने अपराध किया है उन्हें ज़रा भी अहसास नहीं है। वो लोग कानून को भी धोख़ा दे रहे हैं भैया! आज अदालत ने उन्हें किसी ठोस सबूत और गवाह न होने के कारण बरी कर दिया है।’