अमन कुमार त्यागी
भयानक गर्मी थी। रेतीला रास्ता किसी भड़भूजे की भट्टी के समान तप रहा था। रेत पर उगी घास झुलस चुकी थी मगर सुखिया इस रेत पर नंगे पांव सरपट दौड़ी चली जा रही थी। उसके सिर पर अपने ही खेत से खोदी गई घास की गठरी और हाथ में खुरपा मानों सूरज के महाक्रोध से मुकाबिला करने के लिए काफ़ी थे। गर्मी, सर्दी और कांटों की चुभन ने उसके पांवों के तलवों की खाल को इतना मज़बूत बना दिया था कि अब उस पर कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था। वैसे भी दो भैंसों को पालना इतना आसान न था। उनके दूध से जो पैसा मिलता था उसके लिए यह आवश्यक था कि उन्हें भरपेट खिलाया भी जाए। भैस के दूध से सुखिया के चार बच्चे पलते थे और सुखिया चाहती थी कि उसके बच्चे पढ़कर बड़े अधिकारी बनें ताकि उसे घास खोदने से मुक्ति मिल सके।
सुखिया जमींदार परिवार में पली बढ़ी थी और जमींदार परिवार में ही ब्याही थी। परंतु नाम सुखिया हो जाने से कोई सुखी नहीं हो जाता है। कितने ही लखपत और करोड़ीमल को फुटपाथ पर भीख मांगते देखा जा सकता है और न जाने कितने भूरे तवे जैसे काले रंग के होते हैं और कितने ही कलेक्टर या वकील अनपढ़ होते हैं। उसका नाम सुखिया था मगर उसके हिस्से में दुःख किसी घास की गठरी के समान बंधकर आया था। अभी सुखिया का बड़ा बेटा मात्र बारह साल का ही होगा कि सुखिया के पति का स्वर्गवास हो गया।
हाय-हाय, जवान उम्र में विधवा हो जाना नसीब फूट जाना ही है। अभी तो ठीक से अपनी गृहस्थी को समझ भी नहीं पाई थी कि उसके पति ने उसे दुनिया समझने के लिए अकेला छोड़ दिया था। मरने से पहले सुखिया के पति ने समझाया था - ‘कोई किसी का नहीं होता है, अपने फैसले अपने आप लेना सीखो।’
तब सुखिया बात को हवा में ही टाल गई थी। उसे ज्ञान नहीं था कि आगे उसे समझाने वाला नहीं रहेगा, जो भी होगा लूटने वाला ही होगा। वही हुआ भी। सुखिया के विधवा हो जाने के बाद उसकी ससुराल वालों ने उसका जीना हराम कर दिया। परिणामस्वरूप वह भाई के आग्रह पर मायके चली आई। रहने भर का ठिकाना मांगकर ख़ुद की मेहनत से बशर करने की शर्त पर। भाईयों को यह शर्त मंजूर नहीं थी मगर क्या करते? मान गए, यह सोचकर कि जो होगा देखा जाएगा, पहले घर तो चले। चार बच्चों के साथ भाई अपनी बहन को दुःख झेलने के लिए नहीं छोड़ सकते थे। सुखिया ने इधर गांव छोड़ा उधर परिवार वालों ने उसके खेत में हल जुड़वा दिया। अब सुखिया की ज़मीन पर उसके परिवार वालों का कब्ज़ा था।
सुखिया मायके में आकर ख़ुश थी। मेहनत को उसने अपना जीवन-साथी बना लिया था। दो भैंस यही सोचकर पाली थी कि उनके दूध के पैसे से उसके बच्चे पढ़ जाएंगे और भैंस के लिए चारा वह भाई के खेत में से घास खोदकर जुटा लेगी, किसी को उसकी मुसीबत का पता भी नहीं चल सकेगा। अपने बच्चों को शान से पालेगी।
-‘इतनी दोपहरी में घास लाने की क्या ज़रूरत थी?’ सुखिया के भाई ने गर्मी से बेहाल हो रही सुखिया को घर में प्रवेश करते हुए देखकर पूछा।
- ‘क्या करती? भैंस रंभा रही थी और खाने को कुछ भी नहीं था।’ सुखिया ने घास की गठरी सर पर से उतारते हुए जवाब दिया।
-‘कितना चारा पड़ा रहता है घर में, और जानवर भी खाते हैं, क्या तेरी दो भैंस नहीं खा सकती?’ भाई ने समझाने का प्रयास किया।
-‘एक दिन की बात हो तो कोई बात नहीं, ये तो रोज की बात है।’ सुखिया ने वही जवाब दिया जो वह हर बार देती थी।
-‘किसी बालक को साथ ले गई होती।’ दूसरे भाई ने हमदर्दी जताते हुए कहा तो सुखिया तन कर खड़ी हो गई- ‘ख़बरदार! आज के बाद अगर मेरे बालकों के बारे में ऐसा कहा तो ... इनका बाप नहीं है तो क्या माँ भी मर गई? अनाथ नहीं हैं मेरे बच्चे।’ सुखिया की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि सुखिया का बड़ा भाई बिलख-बिलख कर रोने लगा।
सुखिया ने उसे समझाने का प्रयास किया-‘यहाँ मैं तुम लोगों के बीच सुरक्षित तो हूं, मेहनत करके बच्चों को पाल लूंगी तो बच्चो का सुख भी मिल जाएगा।’ बोलते-बोलते सुखिया की आँख से अस्रुधारा फूट पड़ी।
-‘तुम रो रही हो दादी?’ पाँव दबा रहे नन्हे पोते बंटी ने पूछा तो सुखिया ने एकाएक अपने हाथ में सूती धोती के पल्लु का कोना पकड़ा और चश्मा हटाकर आँखें पौछने लगीं।
-‘क्यों रो रही हो दादी?’ नन्हे बंटी ने पाँव छोड़कर दादी के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा तो दादी ने बता दिया- ‘कुछ नहीं, बस पुरानी याद आ रही थी।’
-‘क्या दादा जी की याद आ रही थी?’ बंटी ने आदतन एक और सवाल दाग दिया। सुखिया को उससे इस सवाल की उम्मीद नहीं थी। कोई जवाब देने के बजाए सुखिया ने बंटी को दोनों हाथों से पकड़कर सीने से लगा लिया। वह रोते हुए बोली- बस अब तुझसे ही कुछ उम्मीद है ...। अपना ध्यान रखना बेटा।’
बंटी तब दादी की बात को नहीं समझ पाया था। मगर अब उसे दादी की एक-एक बात याद आ रही थी।
सुखिया बंटी को अपने पास चारपाई पर लिटाकर उसे अपने जीवन की तमाम बातें बताती रहती थी। बंटी भी था कि कभी दादी के सिर में मालिश करता तो कभी उसके पाँव दबाता। सुखिया भी ठंडी आह भरकर कहती- ‘चलो, औलाद का सुख नहीं भोगा तो कम से कम पोते का सुख तो मिल ही रहा है।’
सुखिया और उसकी बहू में कभी तकरार बढ़ जाती तो बंटी सुखिया के पाले में होता और अपनी माँ को आगाह करता- ‘जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो तुम्हारे साथ भी ऐसा ही करूंगा जैसा तुम और पिता जी दादी के साथ करती हो।’
सुनकर बंटी की माँ की त्यौरियां चढ़ जातीं। वह गुस्से में कहती -‘करेगा तो तब, जब मैं तुझे इस लायक होने दूँगी। बड़ा आया।’ और फिर दिनभर की शिक़ायतें सुखिया की बहू अपने पति से करती। बदले में बंटी की पिटाई हो जाती और सुखिया रात भर सो नहीं पाती।
सुखिया की चार संतानें थीं। जिनमें उसने अपने बड़े बेटे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। दोनों बेटियां ठीक से पढ़ न सकीं और छोटा बेटा कम पढ़ने के बावजूद किसी कंपनी में नौकरी पर लग गया था जबकि बड़ा बेटा ख़ूब पढ़ने के बावजूद बेरोज़गार था और जमींदारी की अकड़ ने उसे नशेड़ी भी बना दिया था। सुखिया अब बारी-बारी से अपनी संतान के पास रहकर ख़ुशी बटोरना चाहती थी, जो शायद उसके नसीब में नहीं थी। सुखिया ने अपनी संतान को पालने के लिए कितनी मेहनत की इसे कोई नहीं कहता था बल्कि उसे ताने दिए जाते थे। छोटा बेटा हमेशा कहता -‘जिसे पढ़ाने में पैसा ख़र्च किया है, उसी के पास रह, मेरे पास क्या कर रही है?’ छोटे बेटे के ताने सुनकर वह चली आती बड़े बेटे के पास। मगर यहां तो शांति का मतलब ही नहीं था। लगातार झगड़े होते और वह पुनः छोटे बेटे के पास चली जाती जहां से कुछ ही समय के बाद फिर बड़े के पास जाना पड़ता।
बंटी बड़ा हो गया तो उसने सुखिया की सेवा करनी शुरू कर दी। सुखिया को उस दिन असीम सुख मिला जब बंटी का विवाह हुआ। बंटी की पत्नी से सेवा का सुख पाकर मानो वह धन्य हो गई थी। और अपने हिस्से का थोड़ा सा सुख पाने के बाद वह सदा के लिए चली गई।
सुखिया के जाने के बाद बंटी और उसकी पत्नी पर मानों आफ़त ही टूट पड़ी। बंटी की माँ ने सुखिया के बदले बंटी से लेने प्रारंभ कर दिए। वह भूल गई कि बंटी सुखिया का पोता होने के साथ-साथ उसका बड़ा बेटा भी है। अंततः एक दिन बंटी भी घर छोड़कर चला गया तो बंटी की माँ ने जैसे राहत की सांस ली- ‘लो चला गया उसका बंटी भी, मर गया हमारे लिए।’
परिस्थितियाँ भी क्या क्या दिन दिखाती हैं। कभी सुखिया ने अपने बच्चों को पिता की कमी का अनुभव नहीं होने दिया और बदले में जीवन भर ठोकर खाई, इधर उसका बंटी जो उसके मरने के बाद माँ-बाप के होते हुए भी अनाथ हो गया था।
सब कुछ होते हुए बंटी माँ को माँ नहीं कह सकता था और न ही बाप को बाप।