दादी Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दादी

अमन कुमार त्यागी

चेतन अभी भी अचेतन नहीं थे। उन्होंने पोजीशन चेंज करने के लिए ज्यों ही पैरों को सीधा किया, एक अजीब से दर्द के आनंद का अनुभव हुआ। दर्द इसलिए कि घुटने जितनी पीड़ा पाँव फैलाने में देते हैं, उससे अधिक पाँव सिकोड़ने में भी देते हैं और आनंद इसलिए कि उन्होंने यह बुढ़ापा समय से पहले ही बुला लिया था। चेतन ने अपने जीवन में आने वाली हर चीज़ का दिल खोलकर स्वागत किया है। भले ही वह कोई अतिथि हो, ख़ुशी हो अथवा कोई भी परेशानी ही क्यों न हो और अब बुढ़ापे का भी स्वागत ही था। चालाकियों के बीच उनका जीवन गुज़रा, इसलिए चालाकियों को अच्छी तरह समझने के बावजूद उसका विरोध नहीं किया और दूसरों के साथ कोई चालाकी नहीं की। अपने साथ होने वाली हर चालाकी का भी उन्होंने स्वागत ही किया। एक बार किसी ने उनसे पूछा था- ‘आप जीवन को किस तरह जीते हैं?’ तब उनका जवाब था-‘अपने आपको इतना सक्षम बनाने का प्रयास करता हूँ कि किसी के काम आ सकूँ, और ज़रूरतें इतनी कम रखना चाहता हूँ कि मुझे किसी की ज़रूरत कम से कम पड़े।’
चेतन विचारों के धनी थे। उनका संपूर्ण जीवन विचारमय था। उनका मानना था कि परेशानियाँ बहुत सारी सीख देकर जाती हैं, कुछ लोग परेशानियों से निकलकर स्वयं भी वही व्यवहार करने लगते हैं, जो परेशानी में उनके साथ हुआ था, यह ग़लत है। परेशानी में आपका साया भी आपसे चालाकी बरतने लगता है, हर कोई आपको लूटने लगता है। इसका मतलब यह नहीं कि आप भी दूसरों को लूटने लगें। चेतन ज़िद्दी भी रहे हैं। उनकी ज़िद्द उनके आस-पास के लोगों में चर्चा का विषय बनी रहती। इस ज़िद्द को वह अपना स्वाभिमान समझते, कहते- ‘ज़िद्दी होना अच्छी बात है, ज़िद्द से ही आदमी जीवन की जद्दोज़हद सीखता है परंतु यह ज़िद्द विनाश के लिए नहीं विकास के लिए होनी चाहिए।’ अभी भी चेतन को सीखने की कमी खल रही है। चेतन सोच रहे हैं कि अब जब बुढ़ापा आ ही गया है तो कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे कि वह अपने जीवन के अर्थ को सफ़ल बना सकें। किंतु नया क्या करें?कृयह प्रश्न उनकी बेचैनी बढ़ा रहा था। दूसरे लोगों से उन्हें यह पूछना- ‘नया क्या करूँ?’ कभी अच्छा नहीं लगा। और जब उन्होंने कुछ करने की ठान ली तब उस पर विभिन्न प्रकार के लोगों से चर्चा अवश्य की। उनका मानना है कि विचार कहीं से भी और किसी से भी लिए जा सकते हैं। नए विचारों और अपनी पहुँच की योजनाओं को वह आत्मसात कर लेते हैं। कितने ही लोगों की मदद उन्होंने की और वक़्त पड़ने पर किसी से अपेक्षा करना तो दूर, अपनी परेशानियों का जिक्र तक नहीं किया। वह जितना प्रसन्नता के कारण मुस्कुराते थे उससे अधिक वह दुःख में मुस्कुराना जान गए थे। चेतन ने अपनी दादी का बुढ़ापा देखा था और उनकी तमाम सीख भी उन्हें याद थीं। जब कभी वह परेशान होते, अपनी दादी को याद कर एकांत में रो लेते, उनका मन हलका हो जाता।
चेतन आज परेशान हैं। उनकी परेशानी का कारण कुछ नया करने की है, ताकि ऐसा करने से उन्हें नई ऊर्जा मिल सके। वह सोचते-सोचते कब अतीत में चले गए पता ही नहीं चला।
चेतन को अच्छी तरह याद आने लगे थे, अपने बचपन और जवानी के दिन। छोटे थे तब दादी का सहारा बनकर कितनी ही बार अपने पिता जी को नशे की हालत में उठाकर लाए थे। दादी भी तब तक पिता जी को बुरा भला कहतीकृजब तक कि वह नशे की हालत में रहते। सुबह होते ही सबकुछ भूल जातीं। उल्टे पिता जी ही नखरे करने लगते। ऐसी हालत में चेतन कुछ बोलना चाहते तो पिता जी की सारी खीझ उन पर उतर जाती, और फिर बीते दिन का मिनट-टू-मिनट हिसाब माँगा जाने लगता। हिसाब देने में यदि मस्तिष्क अथवा जीभ से कोई भूल होती तो सज़ा गालों को मिलती। चेतन दादी से कोई शिक़ायत करते तो दादी बड़े ही प्यार से समझा देती- ‘बेटा तेरा बाप ही तो है, अगर मैंने भी ऐसी सख़्ती की होती तो... कहते-कहते वह रोने लगतीं।’
बालक चेतन अपनी पीड़ा भूल जाते और दादी की आँख में आए आँसू पौंछने लगते। यह सिलसिला ही बन गया था। वह कुछ बड़े होने लगे तो पिता जी की कपटपूर्ण मार को समझने लगे, पिता जी की मार से बचने के लिए या तो जंगल चले जाते या फिर छत पर बैठकर अपनी किताबों में खो जाते। परंतु जान बचाने का यह तरीका भी अधिक समय तक कारगर सि( नहीं हुआ। माँ और दादी में भी आए दिन महाभारत छिड़ जाती। जिसमें चेतन दादी का साथ देते और पिता जी के पूछने पर सच-सच बता देते। परंतु परिणाम अच्छे नहीं होते थे। बदले में माँ खाने-पीने की चीजें छोटे भाई को देती और दिनभर में हुई किसी भी भूल की शिक़ायत पिता जी से कर देतीं। कुल मिलाकर छुरी फिर ख़रबूजे पर ही गिरनी थी। इस तरह पिटते-पिटते चेतन का बचपन कब कट गया, पता ही नहीें चला। न खेलने का दुस्साहस ही कर पाए और न पेट भर खा ही पाए। उल्टे दादी के उपदेश अलग से। दादी कहती थीं- ‘जो ग़लती तेरा बाप करता है, तू मत करना।’ दादी कहती तो ठीक थीं मगर बचपन में मिले इन उपदेशों ने उनकी जवानी छीन ली थी। कदम सीधा बुढ़ापे में रख दिया था। कम बोलना, कम खाना और चिड़चिड़ापन इस हद तक कि हमदर्दी की बात भी बुरी लगने लगी। पिटने की आदत इस हद तक पड़ गई कि सुबह शौच आदि से निवृत्ति की तरह ज़रूरी कार्य जान पड़ने लगा।
समय बीतता गया। एक के बाद एक, कई किलकारियाँ घर में गूँजी। भाई बहनों से घर भर रहा था और इस घर की महाभारत में कर्ण, कुंती की आँखों के सामने था। जब भी छोटे भाई पर कोई आँच आती तो कर्ण को निशाना बनाया जाता। यहाँ तक कि ग़लती छोटे से होती और सज़ा के लिए कर्ण रूपी चेतन को तैयार रहना होता। माँ चुगली करती, पिता जी पिटाई करते और दादी चुपचाप सीख देती हुई कुछ खाने को दे देती। क्या अजीब माजरा था? ऐसी घटनाएं बड़े होने तक भी छोटी नहीं हुई थीं बल्कि समयानुसार रूप बदलता चला गया था। पिता जी की दारू पीने की आदत छूटी नहीं थी, जिसे बनाए रखने के लिए उन्होंने कूटनीतिक सहारा लेना प्रारंभ कर दिया था। चेतन को तो कोई मतलब था नहीं कि पिता जी क्यों पीते हैं? परंतु जब माता जी या छोटे को उनके पीने की वजह से कोई दिक़्क़त होती तो चेतन को पुकारा जाता और किसी न किसी बहाने उसे गालियाँ दी जातीं। बस माता जी और छोटे भाई का गुस्सा शांत हो जाता। इस तरह रात को पी गई का तोड़ सुबह कर लेने में भी कोई कठिनाई नहीं होती। मगर एक, जो ख़ास बदलाव हुआ था, वह था दादी का व्यवहार।
दिन भर जिन षड्यंत्रों की बू दादी को आती, वह चेतन को सचेत कर देतीं। चेतन तो जैसे अपना आपा खो ही चुके थे। कर्ण की तरह त्याग दिए गए चेतन की मूर्खता कहिए या नासमझी कि वह सबकुछ जानने के बावजूद श्रवण कुमार अथवा राम बनने का प्रयास करते रहे। और इस प्रयास ने उन्हें कब बूढ़ा कर दिया पता ही नहीं चला। वह बिना किसी तपस्या के ही अपेक्षा और उपेक्षा से कोसों दूर अनुभव करते थे। स्वाद लेकर कब कुछ खाया उन्हें याद नहीं। जिस काम में जुट गए, लगे ही रहे। घर-परिवार के दूसरे लोग उन्हें सूफी, लुल्लू, बुद्धु, हरिश्चंद, बावला, मूर्ख न जाने कितने ही नामों से पुकारने लगे। चेतन ने भी तो अपने परिवार का अस्तित्व बनाए रखने के लिए अपना अस्तित्व समाप्त ही कर दिया था।
चेतन विवाह नहीं करना चाहते थे मगर दादी के ज़ोर डालने और परिवार में सबसे बड़े होने के कारण विवाह करना पड़ा। पिता जी ने स्पष्ट कर दिया था- ‘मेरे पास कुछ नहीं है जैसे भी हो अपने आप करो।’ खेती किसानी पहले ही दारू की भेंट चढ़ चुकी थी, मेहनत मजदूरी करके घर का ख़र्च चलाना भारी काम था, ऊपर से पिता जी का शाशकपन कम होने का नाम नहीं ले रहा था, माँ और दादी की महाभारत की गवाही चेतन को विवाह की इज़ाज़त कतई नहीं दे रही थी। चेतन जानते थे कि विवाह के बाद क्या होने वाला है? इसलिए उन्होंने अपनी दादी से कह दिया था-‘कल जब झगड़े होंगे तब मेरा और आने वाली का क्या होगा?’
तब दादी ने समझाया था- ‘कल की कल देखी जाएगी, हार मत मानना और जो अच्छा लगे करते जाना।’
दादी की बात सुनकर चेतन ने दो पल सोचकर शंका व्यक्त की-‘एक दिन मुझे घर से निकाला जा सकता है।’ सुनकर दादी ने सिर पर हाथ रखकर कहा था-‘मैं जानती हूँ, परंतु मेरी इच्छा तेरा विवाह और तेरे बच्चे देखने की है, उसके बाद मैं भी जीवित नहीं रहूँगी और तू भी इनके साथ नहीं रह पाएगा।’
पदचापों की आवाज़ ने चेतन को अतीत से वर्तमान में ला खड़ा किया। उनकी बेटी के हाथ में खाने की थाली थी। जो मुस्कुराते हुए कह रही थी -‘क्या पिता जी! अभी से बूढे़ हो जाओगे?’
चेतन ने अपनी बेटी की और देखा। उन्हें लगा कि उनकी दादी अपनी पोती को गोद में लिए हुए कह रही हैं- ‘यही तो मेरी इच्छा थी, तू भी कोई इच्छा करके तो देख, बिन इच्छा भी आदमी जीते जी मर जाता है।’
चेतन क्या इच्छा करें यह तो नहीं समझ पा रहे थे। घर छूट गया था, संबंध बिखर गए थे। सबकुछ बिखरे हुए को जब तक समेटने का प्रयास करते रहे तब तक उनके हाथ मानों आग को बुझाने के प्रयास में झुलसते रहे और जब समेटने का प्रयास त्यागा तो वही हाथ कटे से लगने लगे थे। बेटी सामने थी, बेटा माँ के पल्लु से चिपका रसोई में खड़ा था। होना तो यह चाहिए था कि चेतन इन्हें देखकर प्रसन्न हो जाते मगर नहीं हुए। उन्हें अपना भविष्य नजर आ रहा था। बेटी ससुराल चली जाएगी और बेटा बहू के साथ रहेगा। यही तो रीत भी है। यह वजह भी चेतन के दुःखी होने या प्रसन्न होने के लिए काफी नहीं हो सकती थी।
थाली हाथ में लेते हुए उनके होंठ बुदबुदाए -‘एक बार फिर विदुरनीति पढ़ डालनी चाहिए।’