मैंने और दादा जी ने चिंतन किया तो हमने देखा। कई लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई घर- द्वार नहीं है। या जो बाहर से रोजगार की तलाश में आए हैं। उनको कोई रोजगार नहीं मिला है। और वहीं सड़क पर ही सो जाते हैं। उनके खाने का कोई हिसाब- किताब नहीं है। कपड़ों का कोई हिसाब- किताब नहीं है। कोई खास बिस्तर भी नहीं है।
यह देखकर दादाजी और मैंने एक प्रोग्राम बनाया और हमने एक विशाल बिल्डिंग एक अच्छी सी जगह देखकर बनवा दी। उस बिल्डिंग में सभी अत्याधुनिक सुविधाएं थी। हालांकि हमारा काफी पैसा लगा। लेकिन हमारे मन में काफी संतोष था कि हम मानवता की सेवा कर रहे हैं। इस बिल्डिंग में आलीशान कमरे थे। साथ ही हर चीज आलीशान थी।
यह बिल्डिंग बेसहारों का बसेरा थी। इस बिल्डिंग के एक भाग में हमने अनाथालय खोला और अनाथ बच्चों को सभी भौतिक सुविधाएं प्रदान की। साथ ही उन्हें आध्यात्मिक रूप से भी जागृत किया। इस बिल्डिंग में एक बहुत सुंदर मंदिर भी हमने बनवाया था। बिल्डिंग के दूसरे भाग में हमने बेसहारा लोगों के रहने की व्यवस्था की। उन्हें अच्छा भोजन उपलब्ध कराया। अच्छे कपड़े बिस्तर उपलब्ध कराए तथा उनका काम रखा कि रोज सुबह 2 घंटे और शाम को 2 घंटे वह भगवान के मंदिर में आराधना करें। बस इसी काम के एवज में हमने उन्हें यह सब सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई थी। उन्हें हमने अच्छी-अच्छी पुस्तकें उपलब्ध करवाई। चित्रकला, नाटक, संगीत आदि सिखाया। कुछ ही दिनों में हमारा यह भवन एक उच्च संस्कृतिक कला केंद्र के रूप में विकसित हो गया। साथ ही मर्जी होने पर इस भवन के निवासी भवन के बगल के विशाल से खेत में श्रमदान भी कर सकते थे। धीरे-धीरे इस विशाल खेत से भवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी। इस तरह यह बसेरा नामक भवन और इसके निवासी स्वयं के पैरों पर खड़े हो गए।
इस तरह से हमने बेरोजगारों को अपने पैरों पर खड़ा किया उन्हें अच्छा जीवन स्तर प्रदान किया और उन्हें समाज में स्वाभिमान से जीने का मौका दिया। एक दिन मैं और दादाजी ने शहर भ्रमण का प्रोग्राम रखा। शहर में हमें 20-25 लोग ऐसे दिखे जो जानवरों से भी बदतर हालत में सड़क के किनारे नारकीय जीवन जी रहे थे। फटे -पुराने कपड़े पहने हुए थे और उनके खाने, पीने, रहने, बिस्तर की भी अच्छी व्यवस्था नहीं थी। उनके बाल और दाढ़ी भी बढ़े हुए थे। कई दिनों से वह नहाए नहीं थे। हमने उन्हें अपने साथ ले लिया और नाई की दुकान पर सब के बाल -दाढ़ी वगैरह सही करवाए। इसके बाद सार्वजनिक स्नानागार में उनको नहलाया -धुलाया और फिर नए कपड़े लाकर उन्हें पहनाये। अब वह मनुष्य जैसे दिखने लग गए थे। अब मैंने उनसे पूछा क्यों भाई थोड़ा बहुत नाश्ता -पानी हो जाए। तो अधिकाश ने हां में सर हिलाया। फिर मैं उन्हें एक बढ़िया होटल में ले गया और मैंने उन्हें भरपेट नाश्ता, खाना करवाया। अब सब बड़े प्रसन्न थे। इसके बाद मैं उन्हें अपने बसेरा ले आया और मैंने उन्हें एक बड़े से हॉल में रहने के लिए व्यवस्था कर दी। इस हॉल में अच्छे सुंदर बिस्तर लगे हुए थे। सबके लिये एक- एक अलमारी सामान रखने के लिए थी। बसेरे के सामने एक छोटी सी दुकान थी। जिसमें बसेरा वासियों के लिए सभी जरूरी सामान मिल जाता था। लेकिन इसके लिए पैसा चाहिए होता था। इसलिए मैंने इन सभी को जेब खर्च के रूप में हज़ार- हज़ार रुपये दिए। धीरे-धीरे वे इस माहौल में ढलते गये और भजन- पूजन करने लगे। इच्छा होने पर श्रमदान भी करने लगे। धीरे-धीरे उनकी मानसिक स्थिति और सुंदर स्वास्थ्य हो गया।
इस तरह हमें जिस भी बेसहारा आदमी की जानकारी मिलती, उसे नहला-धुला कर और अच्छा बना कर बसेरे में ले आते और उसे वहीं स्थापित कर देते। सभी लोगों को बसेरा में रहना बड़ा पसंद आता। क्योंकि बसेरा सुंदर और अच्छा भवन था और वहां का वातावरण भी बहुत अच्छा था। यह बसेरा भवन अत्याधुनिक शैली में बना हुआ था और पूरे फर्श पर टाइल्स वगैरह लगी हुई थी। यह भवन सुरक्षित था और यहां मानव समाज से ठुकराए गए लोगों को इज्जत के साथ रखा जाता था।
कुछ ही दिनों में बसेरा बहुत प्रसिद्ध हो गया और कई उद्योगपति लोगों ने भी मेरे इस काम में सहयोग करने के लिए अनुमति मांगी। मैंने निश्चल दिल से उन्हें अपने काम में सहयोग करने की अनुमति दे दी। अब वह भी बड़ी-बड़ी रकम मेरे इस संस्थान को प्रदान करने लगे। मैंने उस रकम में से ₹1 भी नहीं छुआ और सारी रकम बसेरा के विकास में लगा दी। कुछ ही दिनों में ऐसा समय आ गया कि यहाँ के निवासी बहुत ही विकसित और संपन्न हो गए और देश- विदेश में घूमने के लिए जाने लगे और अधिकतर अच्छे-अच्छे वाहनों और हवाई जहाज से यात्रा करने लगे। यह देखकर मेरा और दादाजी का दिल खुशी से लबालब भर गया। क्योंकि वह मनुष्य जो सड़क के किनारे आराम से नहीं रह पाते थे। किसी तरह जीवन जी रहे थे। अब स्टैंडर्ड तरीके से जीवन जी रहे थे और साथ ही साथ आध्यात्मिक क्षेत्र में और समाज सेवा में अपना हाथ बंटा रहे थे।
हमारा यह कार्य देखकर समाजसेवी संस्थाएं, सरकार, समाचार पत्र आदि सभी प्रसन्न हुए और उन्होंने हमारे इस कार्य की बड़ी तारीफ की। यह देखकर दादाजी और मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया। हमने यह कार्य निश्चल भावना से किया था और हमारा इसमें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। हम तो समाज, देश और मानवता की भलाई ही चाहते थे और यह कार्य हमारे छोटे से प्रयास से संभव हो सका तो हमारा दिल खुशी से पागल हो गया।
हमारा दिल अपने इस कार्य से खुशी से बाग- बाग हो जाता और जब बसेरा के निवासी अच्छी महंगी पोशाक में, अच्छे स्टैंडर्ड जीवन शैली के साथ जीते हमें नजर आते तो हम बड़े खुश होते। क्योंकि अब बसेरा और उसके निवासी पूर्ण आत्मनिर्भर हो चुके थे। इसलिए हमें उनकी कोई खास ज्यादा चिंता नहीं थी। हमें पता था कि अब इन्हें यहाँ से कोई हिला नहीं सकता और अब उनका जीवन स्तर कभी नीचे नहीं गिर सकता। बल्कि अब तो यह जीवन में आगे बढ़ते ही जाएंगे और भौतिक और आध्यात्मिक रूप में इनका जीवन स्तर आगे बढ़ता ही जाएगा।