संस्कार Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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संस्कार


अमन कुमार त्यागी

संदीप को क्रोध आ गया था। वह सीधा बाबू जी के पास पहँुचा और बिना किसी भूमिका के बरसना शुरू हो गया- ‘हद हो गई बाबू जी! अलका भी आख़िर इंसान ही तो है.... मुन्ना.... मैं और फिर आप! सभी की देखभाल वही तो करती है, आपकी सेवा में वह लगी रहती है.... परंतु फिर भी बाबू जी आपको सब्र नहीं आता.... अब समझ में आया.... बड़े भाइयों के पास आपकी दाल क्यों नहीं गली.... ग़लती उनकी नहीं, आप ही ग़लत हैं बाबू जी.... आपको बुढ़ापे में भी चटपटी चीजें़ चाहिएं और मनमानी भी...आख़िर हमारे जीवन की भी कुछ आवश्यकताएं हैं.... हमारे जीवन को क्यों नरक बनाने पर तुले हुए हैं आप, अगर आराम से बैठकर रोटी खानी हो तो खाओ.... वरना जो मन में आए वह करो।’
बाबू जी हतप्रभ थे। संदीप के कटु शब्द उनके हृदय को बेंध रहे थे। संदीप उनका सबसे छोटा बेटा था। बेटे के मुँह से अपने लिए जो शब्द उन्होंने सुने थे.... यकायक उन पर विश्वास नहीं हो रहा था। संदीप अपने मन की भड़ास निकालकर जा चुका था परंतु बाबू जी के मन-मस्तिष्क में खलबली मच गई थी। वह रो देना चाहते थे परंतु आँखें आश्चर्य से फैली हुई थीं। बड़ी आस लेकर वह अपने सबसे छोटे बेटे के पास आए थे। उन्होंने सोचा था कि चलो अंतिम समय है.... प्राण निकलते वक़्त एक बेटा तो उनके पास रहेगा ही। वैसे भी परंपरा के अनुसार मृतक का अंतिम संस्कार करने का अधिकार सबसे बड़े बेटे को या फिर सबसे छोटे बेटे को ही होता है। बाबू जी काफ़ी देर तक बैठे हुए सोचते रहे। फिर उठे.... उठने के बाद सीधे बेटे की पत्नी अलका के पास पहुँचे। उन्होंने कहा- ‘ठीक है बहू!..... मेरे यहाँ रहने से तुम्हें परेशानी होती है.... तुम्हारी आज़ादी में भी ख़लल पड़ गया है....मैं चलता हूँ।’
-‘अब कहाँ जाएंगे आप?’ अलका ने व्यंग्य करते हुए पूछा।
-‘कहीं भी जाऊँ..... तुम्हें तो इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए कि मैं यहाँ से जा रहा हूँ.... दुनिया बहुत बड़ी है... और ईश्वर की बांहें भी।’ कहते हुए बाबू जी ने अपना वह बैग उठाया जिसमें उनके कपड़े थे और घर के दरवाज़े से निकल गए... उन्होंने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा.... न ही अलका ने उन्हें रोकने की कोशिश की।
बाबू जी ने छोटे बेटे संदीप का घर भी छोड़ दिया। वह बूढ़े हाथों में दो-तीन जोड़ी कपड़ों वाले बैग का वज़न लिए चले जा रहे थे। लेकिन अब इस बैग का वज़न उन्हें उठाते हुए कष्ट हो रहा था। अपनी जवानी में उन्होंने दुनिया घूमी थी परंतु अब जिस सफर पर वह निकल पड़े थे, एक-एक कदम रखना मुश्किल हो रहा था। चार कदम रखते ही उनकी पिंडलियाँ काँपने लगी थीं। इतनी थकन का अहसास उन्हें पहले कभी नहीं हुआ था। वह चलते जा रहे थे और उनके जीवन की एक-एक घटना किसी चलचित्र की भांति उनके मानस पटल पर उभर रही थी।
उनका नाम शमशेर सिंह था। वह चार बहन भाई थे। वह मात्र बारह वर्ष के थे जब उनके पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। परंतु विधवा माँ ने संतान के पालन-पोषण में कोई कमी शेष नहीं रखी। ज़मींदार परिवार में जन्म लेने के कारण शमशेर सिंह के व्यवहार में भी ज़मींदारापन था। किशोरावस्था में ही ज़मींदारों वाले शौक भी उन्होंने पाल लिए थे। देवकी नामक कन्या से उनका विवाह हो गया तो देखते ही देखते वह चार बेटों के बाप भी बन गए। ज़मींदारी निकल चुकी थी। थोड़ी ज़मीन में गुज़ारा मुश्किल था सो कुछ न कुछ काम करना भी ज़रूरी हो गया था। पत्नी और बच्चों ने ज़िद पकड़ी गाँव की ज़मीन बेचकर शहर में मकान बनाओ। शमशेर सिंह को पत्नी बच्चों की ज़िद माननी पड़ी। गाँव छोड़कर यह परिवार शहर आ गया। शहर पहुँचते ही उनका बड़ा बेटा अमित ट्यूशन पढ़ाकर बाप की मदद करने लगा। जबकि बाक़ी तीन बेटे रोहित, संजीव व संदीप अभी पढ़ ही रहे थे। बड़े बेटे ने समय से पूर्व ही ज़िम्मेदारियों को समझ लिया था सो रंगीन सपने वह न देख सका। वह ज़मीन पर ही रहता था और ज़मीन से जुड़ी बातें ही करता था। जबकि उससे छोटा रोहित ऊंचे ख़्वाब देखता और माता-पिता को भी सब्ज़बाग़ दिखाकर उनका प्यारा बना रहता। शमशेर सिंह ख़ुश होकर कहते- ‘देखा देवकी! कितना होनहार है तुम्हारा रोहित।’ फिर व्यंग्य करते हुए कहते- ‘अमित को पता नहीं कब अक्ल आएगी, आएगी भी कि नहीं.... जब देखो सूफी-संतों वाली बातें करता रहता है।’
-‘मैं तो कहती हूँ.... इसका ब्याह कर दो.... जब देखो दादी की बात करता है.....पता नहीं कितना प्यार है दादी से... और दादी भी ऐसी है... ख़ुद लड़ती रहवे... पोेते को भी लड़ावे.... पता नहीं बहू भी कैसी मिलेगी।’ देवकी भी अपने मन की भड़ास निकालते हुए कहती।
दरअसल शमशेर सिंह की माता जी भी साथ ही रहती थीं। जब भी सास-बहु में कोई विवाद होता तो शमशेर सिंह पत्नी का ही पक्ष लेते। वह कहते- ‘माँ... तू क्यों चैबीस घंटे लड़ती है.... रोके या हँसके, तेरी सेवा तो देवकी ही करती है।’
माँ भी तड़पकर बोलती- ‘बड़ी आई सेवा करने वाली.... सेवा रोते हुए या लड़ते हुए नहीं होती.... अरे सेवा तो हँसते हुए होती है.... म.... मुझे देख... विधवा होते हुए भी मैंने तुझे कभी बाप की कमी नहीं अखरने दी।’
तभी देवकी भी कहती- ‘सास के जलवे तो देख लिए.... पता नहीं बहू क्या जलवे दिखाएगी.... मुझे लगता है.... मेरी ही किस्मत ख़राब है।’
सास-बहु के विवाद तो जगज़ाहिर हैं ही। किसी ने ठीक ही कहा है- ‘जब बहू थी तब सास अच्छी नहीं मिली और जब सास बनी तब बहू अच्छी नहीं मिली।’ समय ज्यों-त्यों व्यतीत होता रहा अमित का विवाह भी हो गया था।
शमशेर सिंह अतीत की यादों को झटका देना चाहते थे परंतु अतीत था कि छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था। उन्हें एक-एक घटना याद आ रही थी। यकायक उनकी आँखों में पानी आ गया। उन्हें वह घटना याद आ गई जब वह बैठक में बैठे थे और देवकी ने उनसे आकर कहा था- ‘देख लो अब अपनी आँखों से.... तुम्हारी बहू बुढ़िया के पैर दबा रही है.... और बुढ़िया, पता नहीं उसे क्या-क्या सिखा-बहका रही है।’ ...देवकी आँखों में आँसू लाते हुए पुनः बोली- ‘इस बुढ़िया को तभी चैन आवेगा जब मेरा मरा मुँह देखेगी।’
शमशेर सिंह ने सांत्वना देते हुए कहा- ‘आने दो बहू को मेरे पास... मैं सब समझा दूँगा।’ और जब बहू शमशेर सिंह को खाना देने पहँुची तब शमशेर सिंह उसे समझाते हुए बोले- ‘बेटी.... माँ की आदत ख़राब है.... उसका मन इधर-उधर की बातों में ज़्यादा लगता है.... वह चाहती है कि तुम सास-बहू में झगड़ा होता रहे.... इसलिए माँ से ज़्यादा बात मत किया कर।’
-‘जी बाबू जी!’ बहू ने कहा और वहाँ से चली गई। वह नहीं समझ पा रही थी कि क्या करे? वह तो बेचारी बूढ़ी दादी और सास दोनों को ही सम्मान देना चाहती थी। उसे नहीं पता था कि उन सास-बहू में अस्तित्व की जंग चल रही है। वह अपनी सास और सास की सास का जितना भी संभव हो सकता ध्यान रखती। परंतु घर की यह लड़ाई कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अमित को भी दो पाटों के बीच पिसना पड़ रहा था। जब बूढ़ी दादी चल बसी तब यह जंग और मुखर हो गई। उधर अमित से छोटा रोहित भी अपने आप को सि( करना चाहता था। वह भैया-भाभी के ख़िलाफ़ माँ-बाबू जी को चढ़ाता। परिणाम यह हुआ कि बाबू जी ने अपने बड़े बेटे व बहू को घर से निकाल दिया। शमशेर सिंह को लाख कोशिश करने के बावजूद बड़े बेटे व बहू को घर से निकालने की वजह याद नहीं आ रही थी। उन्हें अच्छी तरह याद आ रहा था कि जब-जब उन्होंने बेटे-बहू को घर से निकलने की धमकी दी, तब-तब उन पर अलग-अलग इल्ज़ाम लगाए गए थे। कभी कहा गया कि अमित अपना पेट भरने लायक नहीं कमाता है, कभी कहा गया कि उसकी पत्नी घर का काम नहीं करती है। कभी कहा गया कि बहू घर में से सामान चोरी कर लेती है और कभी कहा जाता कि वह बाक़ी परिवार वालों से ईष्र्या करती है। ....सब कुछ हँसते हुए सहते रहे थे अमित और अमित की पत्नी। शमशेर सिंह को याद आ रहा था वह दिन जब छत पर देवकी और रोहित ने उनके कान भरे थे-
-‘देखो जी! हमारे ख़ानदान को कलंक लग जाएगा।’ देवकी ने उल्हाना देते हुए कहा था।
-‘क्यों.... क्या हुआ?’’ शमशेर सिंह ने पूछा।
-‘अमित को तो अक्ल है नहीं.... और बहू सभी आने-जाने वालों से हँस-हँसकर बात करती है।’ देवकी ने कहा तो रोहित ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा- ‘बाबू जी! भाभी ठीक नहीं है.... मुझे तो उनके चरित्र पर शक है।’
बस फिर क्या था। उन्होंने एक पल के लिए भी अपने मस्तिष्क पर ज़ोर नहीं डाला। बेटे और बहू पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाते हुए घर छोड़ने का फ़तवा सुना दिया। अमित और उसकी पत्नी के लिए भी स्थिति अब असहनीय हो गई थी। चरित्रवान बने रहने की कोशिश करने वाला अमित चरित्रहीन होने का आरोप न सह सका। उसने घर छोड़ दिया.... कभी वापस घर में न आने की सौंगध के साथ।
अमित के घर छोड़ कर जाते ही रोहित का विवाह भी हो गया। परंतु कुछ दिन की ख़ामोशी के बाद घर के झगड़े ज्यों के त्यों बने रहे। सास-बहू की कभी न ख़त्म होने वाली लड़ाई भला कैसे समाप्त हो सकती थी। बाद में दूसरे भाइयों के भी विवाह हुए सभी अपनी-अपनी नौकरी पर चले गए। रोहित के कहने से उन्होंने अमित को अपनी ज़मीन-जायदाद से वंचित कर दिया था। यहाँ तक कि अख़बार में विज्ञापन देकर उससे संबंध भी विच्छेद कर लिए थे। इसके बावजूद उन्हें डर था कि कहीं अदालत की शरण लेकर अमित अपना हिस्सा न माँग बैठे। सो उन्होंने मकान बेचकर बाक़ी तीनों बेटों को बराबर हिस्से बांट दिए। मकान बिक जाने के बाद शमशेर सिंह और देवकी रोहित के पास रहते थे परंतु देवकी का अचानक देहांत हो जाने के बाद शमशेर सिंह ज़्यादा समय वहाँ न रह सके। संजीव और संदीप भी जल्दी ही उनसे उक्ता चुके थे।
अपने जीवन की एक-एक घटना याद करते हुए वह बस अड्डे पहुँचे ही थे कि उनकी निगाह अमित पर पड़ी। एक बारगी उनका मन प्रफुल्लित हो उठा परंतु फिर शीघ्र ही वह मुँह फेरकर खड़े हो गए। वह नहीं चाहते थे कि अमित उन्हें देख पाए। परंतु अमित तो बस अड्डे पर आया ही पिता जी की खोज में था। संदीप उसे फोन करके सबकुछ बता चुका था। अमित उन्हें देख चुका था। वह उनके पास पहुँचा।
-‘मैं आपको लेने आया हूँ बाबू जी!’ कहते हुए अमित ने उनके पैर छू लिए।
-‘बाबू जी की आँखों में आँसू भर आए। वह अमित के कंधों पर हाथ रखते हुए बोले- ‘मैं.... किस मुँह से तुम्हारे साथ जाऊँ.... मैंने तुम्हें दिया ही क्या है?’
-‘कैसी बात कर रहे हैं बाबू जी। सब कुछ आप ही का तो दिया हुआ है...। देखो आज भी वही संस्कार मेरी रगों में हैं.... जो आपने मुझे दिए हैं।’ अमित ने गर्व के साथ कहा-
‘मुझे माफ़ कर दो बेटे!....।’ बाबू जी ने अमित के कँधे पर सिर टिका दिया। तभी अमित की पत्नी ने उनके पैर छूते हुए कहा- ‘माफ़ी तो हमें माँगनी चाहिए बाबू जी! .... हम बड़े होने के बावजूद अपने परिवार को एक नहीं कर सके।’
शमशेर सिंह ने बहू को उठाकर उसके सर पर भी हाथ रखा और आँखों में भर आए आँसुओं को वह रोक नहीं सके। भारी मन से बोले- ‘तुम परिवार को एक कैसे रख पाते, हमने ही तुम्हें कभी परिवार का हिस्सा ही नहीं माना।’