अमन कुमार त्यागी
भारतीय संविधान ने वैशाली को इतना अधिकार तो दिला ही दिया था कि वह चुनाव जीत गई और मंत्री बन गई थी। शपथ समारोह के बाद अपने नगर का उसका यह पहला दौरा था। जब वह डाक बंगले पर पहुँची तो पार्टी के हज़ारों कार्यकर्ता स्वागत के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे। सुरक्षा के लिहाज़ से स्वयं एसपी विनय कुमार भी वहाँ पहुँच गए थे। जैसे ही वैशाली की कार वहाँ रुकी एसपी ने ज़ोरदार सैल्यूट के साथ उसका स्वागत किया। एसपी के सैल्यूट और कार्यकर्ताओं की नारेबाज़ी से वैशाली के होंठों पर मुस्कान थिरक उठी मगर नेत्र भी सजल हो उठना चाहतेे थे। वैशाली के चेहरे को देखकर कोई भी यह अंदाज़ नहीं लगा सकता था कि वह ख़ुशी से उद्वेलित है या किसी तनाव से ग्रसित है अथवा वह जीत की ख़ुशी है या हार का दुःख।
वैशाली जीत गई थी, मगर उसे जो ख़ुशी मिली थी, वह जानबूझकर हारने वाली ख़ुशी थी। जीतकर वह संतुष्ट नहीं मगर हारकर वह संतुष्ट हो गई हो ऐसा भाव कोई महान मनोविश्लेषक ही उसके चेहरे पर पढ़ सकता था। ऐसा प्रतीत होता है कि जीतना उसके लिए साधन था जबकि हारना उद्देश्य अथवा साधना थी। वैशाली जो सुख चाहती थी वह उसे जीतकर प्राप्त नहीं हो सकता था। वह तो समर्पित थी, समर्पण में जो सुख होता है वह भला और कहाँ हो सकता है? वैशाली कार्यकर्ताओं से उपहार ग्रहण करती हुई डाक बंगले के हाल की ओर बढ़ गई थी। वहाँ उसने कार्यकर्ताओं को संबोधित किया और फिर सीधे अपने बंगले की ओर चल दी।
जिस वक़्त वह अपने बंगले पर पहुँची उस वक़्त उसके सिर में तेज़ दर्द हो रहा था। उसने डिस्प्रीन की दो टिकिया पानी में घोलकर पी और आराम करने के लिए बैड पर लेट गई। बैड पर लेटते ही वह अपने अतीत में खोती चली गई। उसके होंठ बुदबुदाने लगे। वह किसी अदृश्य हमदर्द को अपनी कहानी सुनाने लगी।
उस वक़्त मेरी उम्र कोई पंद्रह वर्ष थी जब मेरे परिवार पर कहर टूट पड़ा था। मेरे पिता सरकारी दफ़्तर में बाबू थे और माँ सीधी-सादी गृहिणी थीं। मुझे वह लोग अपने ही पास रखकर पढ़ा रहे थे, जबकि मेरे छोटे भाई को महानगर के बोर्डिंग स्कूल में। पिताजी की दफ़्तर में किसी ठेकेदार से कहासुनी हो गई थी। पिताजी ने बताया था कि वह ठेकेदार थोड़े से काम का लाखों रुपए का फर्ज़ी बिल बनवाना चाहता है। पिताजी ने इंकार कर दिया तो ठेकेदार ने सबक सिखाने की धमकी दे डाली। पिताजी ने अपने अधिकारियों से शिक़ायत भी की मगर उल्टे पिताजी को ही उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिलीं। पिताजी मायूस थे। वह अपने स्वाभिमान और सि(ांतों से समझौता करना नहीं चाहते थे। उधर पिताजी पर तरह-तरह के दबाव बन रहे थे। अभी इस तनाव से निकले भी नहीं थे कि पता नहीं किस प्रकार पिताजी पर सरकारी धन के गबन का आरोप लगा दिया गया। षड्यंत्रकारियों ने सि(ांतवादी बाबू की नौकरी ले ली। नौकरी के जाते ही घर में मातम छा गया। अब घर का ख़र्च कैसे चलेगा, भैया की फीस कैसे जाएगी? इस फ़िक्र ने पिताजी के चेहरे पर पीला रंग पोत दिया था। पिताजी में मेहनत करने की ग़ज़ब की क्षमता थी। उन्होंने लालाओं के यहाँ एकाउंट का कुछ काम पकड़ लिया। ख़र्च तो जैसे-तैसे चलता रहा मगर एक इमानदार पर बेईमानी का आरोप, यह बात उन्हें सालती रही। अभी इस घटना को ज़्यादा दिन नहीं बीते थे कि एक रात ने सब कुछ तबाह कर दिया।
प्रतिदिन की भांति उस दिन भी खाना खाकर काफ़ी देर तक बातें करते रहे थे। रात्रि का गहरा अँधकार बढ़ता ही जा रहा था। मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। मगर जब आँख खुली माँ-पिताजी चीख़ रहे थे। शायद वह जल्दी से जल्दी घर से निकल जाना चाह रहे थे। सारा घर किसी झूले की भांति हिल रहा था। घर का सभी सामान इधर-उधर लुढ़क रहा था। पिताजी ने माँ का हाथ पकड़ रखा था और माँ ने मेरा। हम तीनों गिरते-पड़ते घर से निकल कर जल्दी से सड़क पर आ जाना चाहते थे। मैं पिताजी की मंशा समझ गई थी क्योंकि बातों ही बातों में उन्होंने एक बार बताया था कि जब भी भूकंप आए तो घर छोड़कर खुले मैदान में पहुँच जाना चाहिए। पिताजी हमें खुले मैदान की ओर ही ले जाना चाहते थे। मगर किस्मत तो चार कदम आगे चलती है। मौत हमारे पीछे दौड़ी आ रही थी। अभी हम गली के मुहाने तक ही पहुँचे होेंगे कि एक बड़ी सी इमारत भरभराकर हमारे ऊपर आ गिरी। मैं बाल-बाल बच गई...मगर माँ और पिताजी मौत के गाल में समा गए। उस भूकंप में एक दो नहीं बल्कि हज़ारों जाने गईं थीं। माँ-पिताजी को देखकर मैं रोई, चीख़ी-चिल्लाई मगर मलबे के नीचे दबे मेरे माँ-बाप को निकालने वाला कोई नहीं आया। मैं भी बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी, जब होश आया तो हैरत में थी।
अब मैं किसी खंडहर वाली जगह पर नहीं थी। जिस पलंग पर मैं सो रही थी और जिस कमरे का नज़ारा मेरे सामने था, उसे देखकर नहीं लग रहा था कि अभी भूकंप आया होगा। माँ-पिताजी का ख़याल आते ही मैं चीख़ उठी। मेरी आवाज़़ सुनते ही एक सभ्य सी नज़र आने वाली महिला ने वहाँ प्रवेश किया। आते ही उसने कहा- ‘अच्छा हुआ बेटी! तुम्हें होश आ गया।’ और मेेरे माथे पर हाथ रख दिया।
-‘मैं... मैं कहाँ हूँ, मेरे माँ-पिताजी का क्या हुआ?’ मैंने तुरंत पूछा।
-‘तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, सब कुछ ठीक हो जाएगा बेटी!’ कहते वक़़्त उस महिला की आँखों में पानी था- ‘तुम्हें पूरे तीन महीने में होश आया है, थोड़ी स्वस्थ्य हो जाओ तो फिर सब कुछ बता दिया जाएगा।’
-‘मैं बिल्कुल ठीक हूँ, कृपया मुझे कुछ बताएँ, मेरे माँ-बाप का क्या हुआ, हमारे घर का क्या हुआ ?.......मैं जानती हूँ कि माँ-पिताजी उस मलबे के नीचे दबकर अब ज़िंदा नहीं रहे होंगे मगर फिर भी मैं पूरी जानकारी चाहती हूँ।’ मैंने कहा तो मजबूरन उस सभ्य सी महिला ने अपना मुँह खोल दिया। उस महिला ने जो भी मुझे बताया उसकी मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी। उसने बताया- ‘हमें नहीं पता बेटी तुम्हारे साथ क्या हुआ, हाँ बेहोशी की हालत में एक व्यक्ति तुम्हें यहाँ लेकर आया था। उसी ने बताया था कि तुम्हारा परिवार और घर भूकंप में तबाह हो गया है। तुम्हारी ही तरह और भी बहुत से परिवार नष्ट हुए हैं। सरकार ने और दूसरी संस्थाओं ने भी वहाँ काफ़ी राहत सामग्री पहुँचाई थी।’
-‘लेकिन आप कौन हैं, और मेरी इस तरह तिमारदारी करने की क्या वजह है? मैंने पूछा।
-‘अभी बताना तो नहीं चाहती थी......परंतु बेटी! जो आदमी तुम्हें यहाँ लाया था वह तुम्हारी पूरी क़ीमत लेकर गया है।’ उस महिला ने बताया।
-‘क़ीमत....।’ मैंने चैंककर पूछा- ‘कैसी क़ीमत की बात कर रही हैं आप?
-‘मैं सच कह रही हूँ बेटी!’ उसने मेरे सर पर हाथ रखते हुए कहा- ‘इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरे की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हैं, उसने तुम्हारी मजबूरी का भरपूर फ़ायदा उठाया और अपनी जेब गर्म कर ली।’
-‘मैं आपकी बात नहीं समझ पा रही हूँ माँ जी! आप मुझे ठीक-ठीक क्यों नहीं बता देती हो। मैं सुनने के लिए तैयार हूँ।’ मैंने कहा और उस महिला के चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रही थी। थूक सटकते हुए कुछ सोचकर वह कहने लगी- ‘सुन सकती हो तो सुनो बेटी! हमारे देश में कुछ इस तरह के लोग हैं जो दुर्घटनाओं का इंतज़ार करते हैं। ऐसे भयानक भूकंपों या तूफानों से लाखों लोग प्रभावित होते हैं। सभी को अपनी-अपनी जान बचाने की पड़ी होती है.....मगर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ऐसे मौकों का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं। ख़ूब लूट-पाट करते हैं और तुम जैसी ख़ूबसूरत बच्चियों को उठाकर कोठों पर बेच आते हैं जहाँ उनसे वेश्यावृत्ति कराई जाती है।’ उस महिला की बात सुनते-सुनते मुझे पसीना आ गया था मगर उसने कहना जारी रखा- ‘परंतु ऊपर वाले का शुक्र है बेटी..... कि तुम्हें मैंने ख़रीदा है... मैं तुम्हें माँ का प्यार दूँगी और कोई भी माँ अपनी बेटी से धंधा नहीं करवाती है। आगे जो रब की मर्ज़ी।’
सुनकर मेरी बोलती बंद हो गई थी। जिस्म पसीने से सराबोर हो गया था। सर चकराने लगा था और मस्तिष्क में रंग-बिरंगे तारे टिमटिमाने लगे थे। अनायास ही मेेरे होंठ बुदबुदा उठे- ‘हाय.......मेरे विन्नी का क्या होगा?’
-‘ये विन्नी कौन है बेटी!’ उस महिला ने पूछा तो मैंने बता दिया- ‘विन्नी मेरा छोटा भाई है, माँ जी! वह हास्टिल में रहकर पढ़ रहा है। सोच रही हूँ,़़ वह किस परेशानी में होगा।’
-‘घबराओ मत बेटी! ईश्वर मालिक है। मैं तुम्हारे साथ विन्नी के हास्टिल चलँूगी और उसका ख़र्च भी दूँगी।’ उस महिला ने कुछ सोचने के बाद पुनः कहा- ‘मैंने काफ़ी दौलत कमाई है.... मगर उसे ख़र्च करने वाला मेरा कोई सगा नहीं है... तुम्हें देखते ही लगा कि तुमसे मेरा ख़ून का रिश्ता है.... चलो अब एक बेटा भी सही.... मैं उठाऊँगी विन्नी का ख़र्च।’ कहते-कहते उनकी आँखों में पानी छलक आया और उसके बाद हुआ भी यही। मैं और माँ जी दोनों विन्नी के हास्टिल गए। उसे हादसे के बारे में कुछ भी नहीं बताया। जब तक उसकी अच्छी सी नौकरी न लग गई माँ जी पूरा ख़र्च उठाती रहीं। बदले में माँ जी मुझसे जो काम लेती थीं वह बिल्कुल भी आपत्ति करने लायक नहीं था। मुझे वेश्याओं के बच्चों को पढ़ाना और उनकी देखभाल करनी होती थी। हालांकि मैं बेहद ख़ूबसूरत और कम उम्र थी। माँ जी मुझसे देह व्यापार करा सकती थीं, शायद उस सूरत में मुझे भी मजबूर करना पड़ता। कोठे की वेश्याओं ने भी बताया कि माँ जी तुम्हें अपनी बेटी मानती हैं और उन्हें पूरा विश्वास है कि तुम ही हम जैसी औरतों को नरक से मुक्ति दिला सकती हो।
वाक़ई माँ जी ने मुझे बेटी की ही तरह अपने आँचल में छिपाए रखा। पता नहीं कितने ही हब्शियों की निगाहें मेरे ख़ूबसूरत जिस्म पर जमीं। उन्होंने माँ जी को मुँह माँगे दाम देने का लालच भी दिया मगर मजाल है कि लालच उन्हें छू भी जाए। हालांकि मैं उनके रहमो-करम पर थी। उनका व्यवहार देखकर सोचती थी कि आख़िर किस मजबूरी ने उन्हें कोठे पर बैठने को मजबूर किया है? मैंने कई बार उनसे पूछने का प्रयास किया... मगर वह हमेशा टालती रहीं। सोचती हूँ, मेरी ही कहानी उनकी भी कहानी होगी, बस फ़र्क है तो इतना कि मुझे माँ मिल गई उन्हें नहीं मिली।
कहने के लिए तो मैं माँ के पास थी, अपने ही घर में मगर इस निर्दयी समाज ने मुझे सर्वथा ही वेश्या माना। मैं भी किस-किस को सफ़ाई देती और फिर मेरी सुनने वाला था ही कौन। औरत जो ठहरी। समाज को हम औरतों में ही खोट नज़र आता है। जबकि सब जानते हैं कि औरत को यह दिन भी पुरुष की वजह से ही देखने को मिलते हैं। वेश्याओं पर दोषारोपण किया जाता है जबकि वेश्यागामी पुरुष साफ़ बचे रहते हैं। मैं तो मानती हूँ कि पुरुषों ने हर औरत को वेश्या ही समझ लिया है। मैं बहुत सारी ऐसी औरतों से मिली हूँ जिन्होंने रात को अपने पतियों से संभोग की अनिच्छा ज़ाहिर की और फिर उनके क्रूर हाथों से पिटीं। पुरुष कोठों पर जाता है, अल्प समय के लिए थोडे़े से पैसे लेकर क्योंकि वहाँ वेश्याएं आज़ाद हैं और अपनी मर्ज़ी से सौदा कर सकती हैं मगर घर में ऐसा नहीं होता। घरों में सौदेबाज़ी तगड़ी होती है। बंधन क्या है? किसी सौदे के सिवा कुछ भी तो नहीं। फ़र्क इतना ही है कि घर में वधु कहलाती है और कोठे पर नगर वधु, जबकि कोठे से ज़्यादा जुल्म वह घर में सहती है। सामाजिक नियमों में उसे ऐसा जकड़ा जाता है कि बेचारी तड़प कर रह जाती है। पुरुष चाहे जो हो, वह औरत को अंगिनी ही समझता है। उसके एक-एक अंग को ऐसे घूरता है जैसे शेर खरगोश के बच्चे को और निरीह औरत जब तक अपने तन को ढांपने का यत्न करती रहती है वह सभ्य कहलाती है मगर जब पुरुष की लालसा को पूरा करने के लिए वह अनावर्त होती है तो बेहया, बेशर्म और वेश्या जैसे लकब पाती है। हाय री क़िस्मत पुरुष चाहता है कि वह औरत को नंग-धड़ंग देखे मगर यह भी चाहता है कि औरत ढकी-छिपी रहे। पुरुष की यह दोहरी सोच कैसा शिकार बनाती है औरतों को।
मुझे भी वेश्या माना जाता था या फिर वेश्यापुत्री। मैं परवाह नहीं करती थी। मेरे सामने अपने भाई को पढ़ाकर बड़ा अफसर बनाने का उद्देश्य था। ईश्वर की कृपा ही कहूँगी कि मेरा भाई पढ़ा भी और पुलिस का बड़ा अधिकारी भी बना मगर मेरी बदकिस्मती। उसे मेरे ठिकाने का पता चल गया। वह भी पुरुष था शायद इसलिए मुझसे नफरत करने लगा। मुझे वेश्या कहकर धिक्कार दिया। मैं चाहती थी कि अधिकारी भाई के साथ सुखी जीवन व्यतीत होगा मगर सभी सपने ध्वस्त हो गए। जिस भाई के लिए कोठे पर रहना स्वीकार किया वह भी निर्दयी निकला। मुझे माँ जी ने समझाया- ‘औरतों के मामले में सभी मर्द एक से होते हैं, वह चाहे बाप हो, भाई हो, बेटा हो अथवा पति। तुम पवित्र हो, यह बात तुम अच्छी तरह जानती हो। तुम शक्ति हो और पुरुषों के लिए उद्देश्य हो। तुम कोई साधन नहीं हो इसीलिए अपनी जगह अटल रहो, धैर्य से काम लो, हमारी कुछ कमज़ोरियां ईश्वर प्रदत्त हैं हमें अपनी उन्हीं कमज़ोरियों को जीतना है बेटी।’
वह महिला माँ ही थी। समाज ने उसे वेश्या बना दिया था। ममत्व में शक्ति होती है। भाई के धिक्कारने के बाद भी उसी ने सहारा दिया। जब तक वह ज़िंदा रही तब तक सबकुछ वैसे ही चलता रहा। उनकी मौत के बाद मुझे उनकी वसीयत मिली जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी है। यह बंगला भी उन्हीं की संपत्ति है। हाँ जिस कोठे पर वह बैठती थीं वह उन्होंने उन महिलाओं के लिए ही छोड़ दिया था, जिसमें उनकी अन्य साथिनी रहकर प्रतिदिन पुरुषों के हाथों से प्रताड़ित होती थीं।
माँ जी के इस दुनिया से चले जाने के बाद, मैंने एक सामाजिक संस्था बनाई और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगी। चुनाव जीत कर आज मैं मंत्री बन गई हूँ। आज फिर मैंने अपने भाई को देखा है। विन्नी अब एसपी बन गया है। कितना ख़ूबसूरत लग रहा था वह और उसकी आँखों में आँसू... ख़ुशी के नहीं बल्कि पछतावे के थे। विन्नी की आँखों में तब भी आँसू आ गए थे जब उसने अपने आपको एक वेश्या का भाई समझा था और मुझे धिक्कार कर चला गया था। तब उसकी आँखों में घृणा के आँसू थे। तब उसके आँसुओं ने मुझे हिम्मत बंधाई थी, कुछ कर दिखाने की और अपने को पवित्र साबित कर दिखाने का हौसला मुझमें जगा था, मगर आज.... मगर आज उसकी आँखों में आया वह पानी मुझे बाढ़ सा प्रतीत हो रहा है। जिसमें मैं बही जा रही हूँ। उफ्फ कैसा ममत्व है ये.... मैं जीतकर भी हार रही हूँ। वह मेरा भाई है... मेरा विन्नी... मैं ख़ुद उसे गले भी तो नहीं लगा सकती।
तभी आहट हुई। वैशाली को अपने पैरों पर पानी की बूंदे टपकने का अहसास हुआ। उसने आँखें खोल दीं। सामने विनय खड़ा था। वह रो रहा था। उसने वैशाली से कहा- मुझे माफ़ कर दो दीदी....।’ वैशाली ने फुर्ती से उठकर विनय को अपने सीने से लगा लिया था।