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हवेली - 11

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हवेली की पुरानी दीवार पर टँगी हुई घड़ी रात के एक बजने की सूचना दे रही थी। घड़ी की ठन-ठन आवाज से मेंहदी की नींद खुल गई। कमरे में बेड लाइट जल रही थी। ब्लैंकेट हटाकर मेंहदी पलंग पर उठकर बैठ गई, गला सूख रहा था। टेबल पर से पानी का जग उठाकर देखा तो जग खाली था।

'अरे रात को पानी भर के तो रखा था, इतनी जल्दी खत्म हो गया। लगता है अब बाहर से ही लाना पड़ेगा।' खुद से बुदबुदाई। लेकिन अकेले इतनी रात को रूम से बाहर जाना ठीक नहीं समझा। बहुत प्यास लगी थी। वह संशय में पड़ गई। अन्वेशा और स्वागता चैन की नींद सो रहे थे। अन्वेशा के ऊपर बार-बार समय का प्रभाव पड़ने से वह काफी थकी हुई लग रही थी। स्वागता को उठाने का प्रयत्न किया।

"स्वागता, उठ बहुत प्यास लगी है। स्वागता..." स्वागता को जगाने की कोशिश की, वह गहरी नींद में सोई हुई थी। बार-बार उठाने पर भी उसकी निंद्रा भंग नहीं हुई। गला बहुत सूख रहा था।

"स्वागता प्लीज़ उठ, गला सूख रहा है। बाहर जाकर जग में पानी ले आते हैं।" मगर स्वागता नहीं उठी। फिर अन्वेशा की ओर देखा, वह भी अस्तव्यस्त सो रही है। चेहरा थका हुआ-सा लग रहा था। उसे उठाने को मन नहीं किया। ब्लैंकेट को अन्वेशा के ऊपर ढँककर धीरे से दरवाजे से बाहर झाँककर देखा, बाहर गाढ़ा अंधेरा था। इस अंधेरे में स्विच बोर्ड को भी ढूँढना मुश्किल था। दूर एक कमरे से रोशनी की एक झलक बंद दरवाजे के बीच से होकर फर्श पर पड़ रही थी। वहाँ जरूर पानी होगा, शायद अंकिता अभी तक सोई नहीं है। सोचते हुए एक हाथ में खाली जग लेकर आगे बढ़ने लगी मेंहदी ।

अँधेरे में चलना मुश्किल लग रहा था, फिर भी कमरे के पास पहुँचकर दरवाज़े पर दस्तक दी। अंदर से कोई आवाज नहीं आई "शायद लाईट चालू रखकर सो गई है।” सोचते हुए आवाज़ दिया।

“अंकिता, अंकिता... ।”

कोई आवाज़ न होने से मेंहदी ने दरवाजा को धीरे से धकेला। दरवाजा उड़काए था उसके छूते ही खुल गया। उसने अंदर झाँककर देखा जुई अकेली सोई हुई थी।

"अरे, अंकिता तो कमरे में नहीं है। इतनी रात गये कहाँ गई होगी?" सोचते खड़ी रही। बाथरूम का दरवाजा भी खुला था। अंदर कोई नहीं थे। टेबल के पास आकर जग से पानी गिलास में भरकर पहले अपनी प्यास बुझाई फिर अंकिता के बारे में सोचने लगी। अंकिता कहाँ गई? मेंहदी के मन में बार-बार सवाल उठ रहे थे। मेंहदी कमरे से बाहर आ गई। चारों ओर ध्यान से देखा सारे कमरे की लाइट्स बंद है। अंकिता को ढूँढते हुए सीधे रास्ते कुछ आगे निकल गई।

मन ही मन सोचा 'कहीं किसी और के कमरे में सो गई हो।' लेकिन सब कमरे अंदर से बंद थे। फिर अंकिता गई तो गई कहाँ ?' पिछले दिन अन्वेशा से हुआ हादसा वह बिल्कुल भूल नहीं पाई थी और आज अंकिता का गायब होना, यह किसी दूसरा अनहोनी का इशारा तो नहीं?

और हो सकता है मुझे कोई गलतफहमी हुई हो। फिर एक बार अंकिता का कमरा ठीक से देख लेना ही ठीक होगा। सोचकर पीछे लौट ही रही थी कि पास के कमरे से कुछ आवाज़ सुनाई दी। मेंहदी ने उस तरफ देखा। अंकिता उसके पास वाले कमरे से बाहर आ रही दिखी। दीवार के पीछे होने से वह मेंहदी को देख नहीं पाई। उसके साथ कोई और शख्स भी था, लेकिन उस शख्स का चेहरा अँधेरे में देख नहीं पाई मेंहदी । कुछ देर तक दोनों ने चुप-चुप बात करते हुए एक-दूसरे को गले लगाया, फिर अंकिता वहाँ से अपने कमरे में चली गई। मेंहदी कुछ देर वहीं खड़ी रही, फिर चुपचाप अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। अंधेरे में अपने कमरे का रास्ता ठीक से अंदाजा नहीं कर पा रही थी, लेकिन खुद पर भरोसा था, उस भरोसे से वह अँधेरे में भी अपना रास्ता ढूँढते हुए आगे बढ़ने लगी।

दूर कमरे में लाल बत्ती जल रही थी। शायद वह डाइनिंग हॉल है, मेंहदी उस रोशनी की ओर बढ़ने लगी। एक हाथ में पानी का जग, दूसरे हाथ से दीवार को पकड़कर अँधेरे में धीरे से आगे बढ़ती रही। बरामदे में सारी बत्ती बंद थे। मेंहदी की आँखों को अँधेरे की आदत पड़ चुकी थी। इसलिए वह अंधेरे में ही आगे बढ़ने लगी। मन में लाखों सवाल थे जिनका कोई जवाब उसके पास नहीं था।

अंकिता के बारे में कोई कभी भी ऐसे सोच नहीं सकता। क्योंकि वह बहुत ही शर्मीली और सुलझी हुई लड़की है। स्वागता का कहना था अंकिता सिर झुकाकर कॉलेज से घर और घर से कॉलेज के अलावा कभी किसी से बात करते हुए भी बहुत कम दिखाई देती थी। मेंहदी का मन इस बात पर विश्वास करने को बिल्कुल राजी नहीं था लेकिन उसने जो देखा उसे भी तो इन्कार नहीं किया जा सकता। हो सकता है कोई उसकी जान पहचान का हो। मगर जिस तरह उन्हें देखा वह क्या था? उस अँधेरे में वह शख्स का चेहरा भी तो नहीं पहचान पाई सोचते सोचते बहुत आगे निकल गई मेंहदी ।

अंकिता की ऐसी क्या मजबूरी थी जो इतनी रात गए वह किसी शख्स से मिलने पर मजबूर हो गई। जरूर कुछ बात है, जो अंकिता किसी से जाहिर नहीं कर पा रही है। सुबह इस बात का पता लगाना होगा। सोचते हुए अपने कमरे की ओर चल पड़ी।

अचानक निस्तब्ध रात को चीरते हुए दूर कहीं घुँघरू की झँकार कानों में गूँज उठी। मेंहदी का सारा ध्यान अंकिता से हटकर घुँघरू की झँकार की तरफ चला गया। क्षण भर के लिए वह हैरानी में पड़ गई। इस जंगल में एक हवेली के अलावा चारों तरफ वृक्ष हैं। उसके अलावा हवेली के इर्द गिर्द और कुछ भी नहीं है । फिर इस रात के अँधेरे में कौन है जो नृत्य कर रहा है। मेंहदी कुछ क्षण सोचती खड़ी हो गई, उसके पैर वहीं पर अटक गए। वह अपने कमरे की ओर जाना चाहती तो थी लेकिन उसके पग को जैसे कोई बाँध लिया हो। आश्चर्यचकित हो वह उस घुँघरू की आवाज की ओर चल पड़ी।

एक अजीब-सी कसक थी उन घुँघरूओं की झंकार में। उसके पैर मदहोश उस आवाज की ओर खिंचे जा रहे थे। हॉल को पार करते हुए मेंहदी आगे बढ़ती चली जा रही थी। अंधेरे में उसे धुँधला सा नज़र आ रहा था। सामने सीढ़ियाँ थीं। ध्यान से कान लगाकर सुनने की कोशिश की। उसका संदेह सही निकला। आवाज़ हवेली के ऊपरी भाग से आ रही है। सीढ़ियों को पार करते हुए वह ऊपर की ओर चल पड़ी। उसकी नजर को अंधेरे की आदत हो चुकी थी। सीढ़ियों ने उसे एक बड़े कमरे में पहुँचा दिया।

कमरे को रंग-बिरंगे पर्दे से सजाया गया था। जगह-जगह मशाल जल रही है। कमरे के बीच बड़े-बड़े झूमर छत से टँगे हुए हैं। उस झूमर से आती रोशनी पूरे कमरे को आलोकित कर रही थी। ऐसा एक कमरा देखना मेंहदी के लिए सपना था। शायद कभी किसी फिल्म में देखा हो। चारों तरफ नजर घुमाते हुए मेंहदी ने कमरे में प्रवेश किया। कमरे को देखते हुए आगे दो कदम बढ़ाए। कुछ आगे जाने के बाद मेंहदी का पैर अपने आप रुक गया। वह एक पर्दे के पीछे छुप गई। कमरा लाल रंग की रोशनी में आलोकित था। कुछ आगे जाकर उसने दूसरे पर्दे के पीछे छिपकर वहाँ का नज़ारा देखने लगी। वहाँ से नजारा साफ-साफ दिख रहा था।

पर्दे के पीछे रहकर मेंहदी ने अंदर झाँककर देखा। उसके पैर काँप रहे थे। पसीने से चेहरा भीगने लगा था। अंदर का माहौल काफी गरम था। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कभी पिक्चर में एक आधी बार देखा होगा ऐसा नज़ारा। जैसे पुराने जमाने में राजमहलों में हुआ करता था। यह सब सच है या कोई सपना वह सिद्ध नहीं कर पा रही थी। पैर पत्थर जैसे भारी लग रहे थे, जिन्हें चाहकर भी हिला नहीं पाई थी। न आगे बढ़ने की हिम्मत हो रही थी न ही पीछे हटने की ताकत।

कमरे के बीचोंबीच बड़ा-सा एक दीवान बिछा हुआ है। उस पर मूल्यवान गहनें, राजपाट परिधान किए हुए एक मनुज विराजमान है। उनकी उम्र ५४ के करीब है, बड़ी-बड़ी मूँछें,गंभीर चेहरा एक हाथ में हुक्का, दूसरे हाथ में अंगूठियाँ जो नाट्य के ताल के अनुरूप नाच रहीं थीं। सिर पर ताज शोभायमान था, जिस पर हीरे और पन्ने जैसे मूल्यवान पत्थर की कारीगरी की गई थी। हाथों में मूल्यवान हीरे जड़ित अंगूठियाँ चमक रही थीं। पास में एक महिला बैठी हुई है, शायद उनकी पत्नी या परिचारिका अंदाजा लगाने की कोशिश की मगर राजसी परिधान, हीरे-जवाहरात पहने हुए वे महिला उनके पत्नी ही होने का आभास हुआ।

उस महिला की उम्र ४५ साल होगी। दोनों नाट्य रस की तान में मंत्रमुग्ध थे। दोनों तरफ परिचारिकाएँ खड़ीं मोरपंखों से बने पंखों से हवा दे रहे थे। उनकी ठाट-बाट से वह निश्चित रूप से कोई राजघराने के सदस्य होने का अभास हो रहा था। उनकी पत्नी फलदान में से कुछ फल लेकर एक-एक कर सुनहरे रंग के दीवान पर विराजमान उस व्यक्ति को खिला रही थी। उस जमाने में इलेक्ट्रिसिटी न होने से फैन की जगह मोरपंख का इस्तेमाल होता था और मनोरंजन के लिए नाट्य, संगीत जैसे कलाओं का प्रबंध किया जाता था।

उनके सामने कुछ महिलाएँ एक मखमल की चौपाई पर ढोल, मृदंग और तानपूरा बजा रहे थे। उस ध्वनि की ताल में ताल मिलाकर नाट्य रस में प्राविण्य नर्तक वृंद, मंत्रमुग्ध होकर नाच रहे थे। ढोल-मृदंग की तान और घुंघरू की झंकार पूरे महल में गूँज रही थी । सफेद वस्त्र धारण किए राजनर्तकी बीच में नृत्यरत थी जिसके कदम अधीर हो नाच रहे थे और बाकी नर्तकियाँ राज नर्तकी के साथ-साथ ताल देते हुए नाच रहीं थीं । यह नर्तकवृंद राजपरिवार के मनोरंजन के लिए ही मौजूद थे।

मेंहदी देखती रह गई। सब कुछ उसे सपना-सा लग रहा था। उसने खुद को चिम्टी काटकर देखा। आउच, मतलब ये ना कोई सपना है ना ही कोई नाटक है। फिर ये कैसे संभव है? कितनी देर तक वह वहाँ मूर्तिवत खड़ी रही उसे कुछ याद नहीं। एक सपना-सा, अचेतन-सा, खड़ी मेंहदी के हाथ से कब अचानक जग फिसलकर नीचे गिर गया उस आवाज़ से चौंककर वह होश में आ गई।

सूरज की पहली किरण धरती को छूने के लिए तत्पर हो रही थी। कुछ हल्की-सी किरणें आकर उसके चेहरे पर बिखर गई। उसने अपने आपको हवेली की छत पर पाया। सामने बड़े-बड़े स्तम्भ खड़े थे। उन स्तंभों के ऊपर एक छत्र बनाया हुआ था। अकेले अपने को छत पर पानी खड़े पाया। आश्चर्य की बात यह थी कि उसके सिवा वहाँ कोई नहीं था न कोई राजा या रानी, न ही कोई नृत्य मंडली, न ही परिचारिकाएँ थीं। कहाँ गई वह सजावट, कहाँ गए वे सब जिन्हें रात के समय देखा था। मेंहदी हैरान रह गई। उसने जो देखा वह क्या था ? एक सपना या एक सच ?

'मेंहदी हैरान थी, क्या है सच? ये क्या हो रहा है? जो देखा...... वह सच है ? निश्चित नहीं कर पा रही थी। अगर ये सब सपना था तो मैं यहाँ क्या कर रही हूँ। अगर सच था तो वे सब कहाँ गये जो मैंने कुछ पल पहले देखा था? अगर मैं यहाँ हूँ और मेरे हाथ में जग है तो सब सच होना ही है या... क्या मेरी आँखों का भ्रम है? मेंहदी खुद से ही प्रश्न करने लगी, जिसका उत्तर उसके पास नहीं था।

चारों ओर ध्यान से देखा, टूटी हुई दीवारें, पुराने खंभे के अलावा आधी टूटी हुई छत है। मेंहदी ने कुछ आगे जाकर देखा। दीवार के पीछे एक अगाध खाई दिखाई दी, जिसे देखकर मेंहदी दो कदम पीछे हट गई। अचानक ही उसे अन्वेशा का ख्याल आया। अरे अन्वेशा को सोते हुए छोड़कर चले आना ठीक नहीं था। अचानक ही पिछली रात की घटना ख्याल में आयी, मेंहदी के शरीर में बिजली सी कौंध गई । क्या अन्वेशा के साथ वही हुआ था जो मेरे साथ हुआ। मुझे जल्द से जल्द अन्वेशा के पास जाना होगा। जल्दी से पीछे घूमकर वह अपने कमरे की तरफ चल पड़ी। जब मेंहदी ने कमरे में प्रवेश किया तो कमरा बिल्कुल खाली था। अन्वेशा और स्वागता दोनों कमरे में नहीं थे। मेंहदी हैरान होकर बाहर आई। अभी भी सारी हवेली नींद में है। सामने वाले कमरे में आवाज़ होने पर मेंहदी ने तुरंत दरवाजे पर दस्तक दिया। अजनीश ने दरवाजा खोला।

"अरे आप ? इतनी सुबह, कुछ काम था ?”

"व, व अन्वेशा स्वागता..." हाथ कमरे की तरफ दिखाते हुए कुछ कहने की कोशिश कर रही थी।

"हाँ, कहिए क्या बात है, आप काफी घबराई हुई लग रही हैं। "

"व.. अन्वेशा, स्वागता कमरे में नहीं है।" पसीना पोछते हुए कहा।

“यही कहीं होंगी,चलिए देखते हैं।" इतने में अन्वेशा और स्वागता वहाँ आ पहुँची।

“लीजिए दोनों यहीं पर हैं और आप खामोखा घबरा रही हैं।”

"दीदी, आप कहाँ थीं। हम आपको ढूँढते हुए गए थे।"_

"दीदी आप बहुत घबराई हुई लग रही हो क्या बात है ?"

"नहीं कुछ नहीं, बस कमरे में आकर देखा तो तुम दोनों नहीं थे। इसलिए. ." पसीना पोंछते हुए कहा।

"ठीक है चलो, मैं अभी आ रही हूँ। स्वागता और अन्वेशा वहाँ से चले गए।

"सॉरी मैंने आपको डिस्टर्ब किया।" अजनीश को देखते हुए कहा।

"माई प्लेजर, लेकिन आप ठीक तो है न, मेरा मतलब सब ठीक तो है? अचानक अजनीश के सवाल पर मेंहदी हड़बड़ा गई। मेंहदी को इस तरह घबराते हुए देखकर अजनीश को कुछ अजीब-सा लगा।

"हाँ, सब ठीक है। थैंक्स" कहकर अपने कमरे में चली गई।

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