Haweli - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

हवेली - 4

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पुणे शहर से 200 किलोमीटर दूर जंगल की ओर बढ़ती एक सूनी-सी सड़क। सड़क के दोनों तरफ सूखे मैदान और कंटीले पौधों से भरा रास्ता। उस रास्ते पर कुछ दूर जाने के बाद बस एक कच्चे रास्ते में सफर करने लगी। दोनों तरफ लंबे-लंबे वृक्ष खड़े और साथ-साथ ऊबड़-खाबड़ रास्ते। लग रहा था बस कहीं जंगल के भीतर प्रवेश कर रही है। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ती गई जंगल और भी घना होने लगा। सूरज की रोशनी को भी जंगल के अंदर प्रवेश करते इन वृक्षों के बीच से गुजरना पड़ रहा था। कहीं-कहीं उल्लू की कुडु-कुडु आवाज मन को विचलित कर रही थी, तो कहीं कोयल की कुहू-कुहू आवाज मन में उल्लास और स्फूर्ति-सी भर देती थी। इस जंगल को चीरते हुए एक कच्ची सड़क जिसे पारकर वे इस जंगल में मंगल ढूँढने का प्रयास करने आए थे।

उस कच्चे रास्ते से होकर बस सीधे-जा पहुँची उस पुरानी हवेली के सामने, उस हवेली को देखते ही दादी माँ की कहानी याद आ जाती है। सालों पुरानी.. वह हवेली मिट्टी और पत्थरों से बनी हुई है। उसकी ऊँची दीवारें और बनाने की शैली किसी मुगल साम्राज्य के राजमहल की याद दिलाती है, उस हवेली की अच्छी देखभाल की कोशिश में सरकार ने एक गेस्ट हाउस में उसका रूपांतर कर दिया है। इसलिए अक्सर कोई कभी एक आधे दिन के लिए यहाँ गुजारने चले आते हैं। मगर रात बिताने की हिम्मत कभी किसी ने नहीं की। सुना है वहाँ रात की स्तब्धता में कुछ चीख-पुकार सुनाई देती है। उस हवेली से जुड़े कई राज उन मिट्टी, पत्थर में दफन हैं। रात के अंधेरे में हवा की सनसनाहट के साथ घुँघरू की झंकार उस निस्तब्ध महल में गूँज उठती है और सुबह की किरणों के साथ गायब हो जाती है। उस हवेली के सामने खड़ा वह बरगद,हर उन बातों की साक्षी बन खड़ा है, जो कभी उस हवेली की ऊँची दीवारों के पीछे दफन हो गई हैं। उस वृक्ष का बिखरा हुआ हर एक पत्ता, एक नई कहानी बयान करता है।

बस गेट के अंदर हवेली के सामने जाकर रुकी। बस से १४ छात्र-छात्राएँ एक-एक कर उतरकर एक कोने में खड़े हो गए। सबके चेहरे पर घबराहट और मायूसी छाई हुई है। अपने-अपने बैग और सामान कंधे पर लटकाकर वह सब हवेली की तरफ चल पड़े। बस में से पाँच विद्यार्थियों का गायब रहना सबके लिए परेशानी का कारण बना हुआ था। जंगल में कुछ देर चलने के बाद बस इंजन में गड़बड़ी के कारण बस को थोड़ी दूर रोकना पड़ा। कुछ विद्यार्थी बस से उतरकर बाहर निकल गए। उनमें कुछ लड़कियाँ भी शामिल थी।

प्रोफेसर सुनील अभिषेक को बुलाकर वहीं इंतजार करने को कहा और बस को ठीक करने के लिए पास में एक गैराज में ले गए। बस को ठीक होने में डेढ़ घंटा समय लग गया। जब वे वापस आए वहाँ इनमें से किसी को न पाकर सब हैरान हुए। अभिषेक भी उस जगह पर नहीं था। सभी को उसी जगह रुकने को कहकर बस को गैरेज ले गये लेकिन वापस आने पर वहीं किसी को न पा कर हैरान थे। कहीं हवेली चले तो नहीं गए। शाम के चार बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे। थकान की वजह से सारे विद्यार्थी अपनी-अपनी सीट पर आराम कर रहे थे। बहुत देर तक इंतज़ार करने के बावजूद उनकी कोई ख़बर नहीं मिली। प्रोफेसर सुनील और कुछ छात्र बस से उतरकर अभिषेक, स्वागता, अन्वेशा, मानव और निखिल को आवाज़ देकर पुकारा। इधर-उधर कुछ दूर उन्हें तलाशकर वापस आ गए। निराश होकर हवेली में जाकर देखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हवेली दो किलोमीटर दूरी पर होने के कारण बाकी विद्यार्थियों को हवेली में छोड़कर वापस आने का फैसला करते हुए बस वहाँ से निकल गई।

दोपहर का समय था। अन्वेशा को बस में असहनीय महसूस होने लगा था। जब बस कुछ देर के लिए रुक गई थी अन्वेशा तुरंत ही बस से नीचे उतर गई। पीछे बैठे निखिल ने स्वागता को साथ जाने को कहा।

“अन्वेशा रुक मैं भी आ रही हूँ। अरे, अकेली-अकेली कहाँ चली, मुझे भी बुला सकती है। अच्छा ये बता कहाँ जा रही है?" स्वागता भी उसके पीछे बस से उतर गई।

“घबराहट-सी हो रही है, बाहर खुली हवा में बैठने को मन कर रहा है, वैसे भी बस ठीक होने में वक्त लगेगा।" कहते हुए अन्वेशा ने हँसने की कोशिश की मगर चेहरे पर थकावट साफ-साफ नजर आ रही थी। एयर कंडीशन बस होने के बावजूद ताजी हवा के लिए कुछ देर बस से उतरना अन्वेशा को ठीक लगा। बाहर ताजी हवा में आकर चैन की साँस ली जिससे नीचे उसका मन प्रफुल्लित हो गया। आँखें बंदकर जी भरकर ताजी हवा को ग्रहण करके छोड़ा।

हल्की-सी बारिश के कारण मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू मन को प्रफुल्लित कर रही थी। सूरज और बादल, धूप-छाँव का खेल खेल रहे थे। स्वागता ने भी इस मौसम का पूरा मजा ले रही थी। हल्की-सी धूप के साथ चमकता सूरज खूब लुभावना लग रहा था। अन्वेशा कुछ आगे जाकर एक वृक्ष की छाँव में पत्थर पर बैठ गई। उसके ठीक पीछे एक बड़ी खाई थी। अन्वेशा ने उस खाईं की तरफ ध्यान नहीं दिया। शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। स्वागता आकर उसके कुछ ही दूर पर खड़े होकर सूरज और बादल की अद्भुत नजारा देख रही थी। भीगा-भीगा मौसम, सौंधी-सोधी खुशबू, बादल और सूरज का लुभावना खेल प्रकृति को खूब नजाकत से सँभाल रखा था। बारिश की बूँदों ने मिट्टी को भिगोए रखा था।

तभी अचानक एक दुर्घटना हुई। अन्वेशा जिस पत्थर पर बैठी हुई पत्थर नीचे की तरफ फिसलने लगा। इस हादसे से बिलकुल अनजान अन्वेशा पत्थर के साथ-साथ नीचे की तरफ खाईं में फिसलते हुए चली गई। इस हठात परिणाम से घबराते स्वागता को जोर-जोर से पुकारने लगी, "स्वागता हेल्प मी ... स्वागता।'

स्वागता को समझने में थोड़ी देर लगी। जब तक उसे कुछ समझ में आता तब तक देर हो चुकी थी। बारिश के कारण मिट्टी भी नम थी। जो भी पौधे हाथ लगते उसे पकड़कर खुद को रोकना चाहती थी, मगर वे भी जड़ से निकलकर हाथ में आ जाते। “स्वागता बचाओ" जोर-जोर से चिल्लाती रही। आखिर एक जड़, जो कि एक बड़े वृक्ष से नीचे की तरफ पड़ी हुई थी। उस जड़ को पकड़कर उसके सहारे अन्वेशा लटकती रही। अन्वेशा के हाथ मिट्टी से गीले होने के कारण वह भी हाथ से फिसल रही थी। कितनी देर वह अपने आपको सँभाल पाएगी, वह खुद भी नहीं जानती थी।

स्वागता हाथ में पानी की बोतल वहीं पर छोड़कर भागती हुई खाईं के पास आई। अन्वेशा को हाथ बढ़ाकर पकड़ने की कोशिश की मगर स्वागता सोच से भी काफी नीचे तक चली गई थी ।अन्वेशा ने जोर से अपने दोस्तों को आवा लगाने की कोशिश की मगर आवाज़ उन तक पहुँची ही नहीं। निखिल, अन्वेशा और स्वागता के देरी होने से उन्हें बुलाने के लिए मानव को साथ लेकर चल पड़ा। कुछ दूर जाते ही स्वागता की घबराई-सी आवाज सुनाई दी। दोनों भागते हुए वहाँ पहुँचे। अन्वेशा एक पेड़ की जड़ को पकड़कर लटकी हुई थी और स्वागता उसे निकालने की कोशिश कर रही थी।

"निखिल कुछ करो अन्वेशा ख़तरे में है।" स्वागता ने निखिल और मानव को देखकर आवाज दी। मानव यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। निखिल दो मिनट सोच में पड़ गया, इधर-उधर देखा अन्वेशा के ठीक ऊपर एक पेड़ नज़र आया। कुछ नीचे उतरकर खुद उस पेड़ को जोर से पकड़कर हाथ को आगे बढ़ाया। फिर भी वह अन्वेशा की पकड़ से बाहर था। मानव, निखिल के कमर को एक हाथ से पकड़कर नीचे उतरा एक हाथ से निखिल को पकड़कर रखा। दूसरे हाथ अन्वेशा की तरफ बढ़ाया। अन्वेशा ने मानव का हाथ पकड़कर ऊपर उठने की कोशिश की। धीरे-धीरे अन्वेशा ऊपर आने लगी। मानव ने एक हाथ से उसे सहारा दिया। ऊपर आते ही अन्वेशा ने इस अनहोनी के भय से स्वागता को ज़ोर से जकड़ लिया। एक बड़ा हादसा होते-होते बच गया।

इस दुर्घटना से अन्वेशा के शरीर पर काफी सारी जगह चोट लग गई। स्वागता ने पानी से उन घावों को धोकर साफ किया। फर्स्ट एड के लिए जरूरी चीज कुछ भी नहीं थी। अन्वेशा के पैर और हाथ पर गहरी चोट लगी थी और एक दो जगह खरोंच भी आयी थी। उन जगहों पर रुमाल से पट्टी बाँधकर स्वागता और निखिल की सहायता से अन्वेशा को लेकर सड़क पर आ गए।

स्वागता ने बोतल से अन्वेशा को पानी पिलाया और चेहरे पर लगी हुई मिट्टी साफ की। थोड़ी देर में अन्वेशा ने खुद को सँभाल लिया। बाकी सबने बचे पानी से अपना प्यास बुझाई। स्वागता के हाथ काँप रहे थे। कुछ देर बाद मानव ने अन्वेशा की तरफ देखते हुए कहा, “अगर तुम ठीक हो तो आगे चलते हैं, कहीं बस चली न जाए। चलो जल्दी... अन्वेशा चल सकती हो न तुम?"

"हाँ, मैं ठीक हूँ।" अन्वेशा धीरे से चलने लगी। जब वे वापस लौटे बस वहाँ से जा चुकी थी। हताश होकर एकदम रास्ते के ऊपर ही बैठ गए। बहुत देर चुप्पी के बाद स्वागता ने मुँह खोला “अब क्या करें ?"

"हमें न पाकर बस जरूर वापस आएगी। इंतज़ार करते हैं। " मानव ने कहा। "इसी रास्ते धीरे-धीरे चलते हैं। आगे जाकर बस पकड़ लेंगे। अन्वेशा क्या तुम चल सकती हो ?" निखिल ने अन्वेशा से पूछा।

"कोशिश करूँगी।"

"कोई जरूरत नहीं, मगर आप लोग कहाँ रह गए थे, क्या हुआ...? सब ठीक तो है न ?" पीछे से अभिषेक की आवाज़ सुनाई दी।

"अभिषेक, तुम...? पहले ये बताओ बस कहाँ है? और तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे हो ?”

"सब कुछ बताऊँगा, मगर तुम लोगों का चेहरा उतरा हुआ क्यों है, क्या हुआ?" स्वागता ने अन्वेशा से हुए हादसे के बारे में सब कुछ बताया। फिर पूछा, "लेकिन तुम यहाँ क्या कर रहे हो और हमें छोड़कर सब लोग जा कैसे सकते हैं?"

"कोई कहीं नहीं गया, बस ठीक न होने से कुछ दूर पर गैरेज में ले गए और मुझे यहीं रुकने के लिए कहा, मैं तुम्हारे लिए ही इंतज़ार कर रहा था। बस वापस आने तक हमें यहीं इंतजार करना है।" अभिषेक ने जवाब दिया।

बहुत देर इंतजार के बाद बस नहीं आई। धूप सर पर थी। अन्वेशा की हालत धीरे-धीरे खराब होने लगी। निखिल ने घड़ी देखी, समय दो बजने में आठ मिनट बाकी थे। सब को भूख भी लगी थी। फिर उसने बाकी सबकी तरफ एक बार देखा, अन्वेशा का थका हुआ चेहरा देखकर कहा, "अन्वेशा को आराम की जरूरत है और पता नहीं कितनी देर इंतज़ार करना पड़ेगा? इससे अच्छा है कि हम कुछ दूर आगे बढ़कर बस के लिए देख लेते हैं। अगर बस यहीं कहीं हो तो कम से कम अन्वेशा आराम कर सकती है। अभिषेक के मना करने के बावजूद मानव और निखिल आगे बढ़ने लगे। अन्वेशा और स्वागता उनके पीछे धीरे-धीरे चलने लगे।"

"अभिषेक अब चलो, सीधे रास्ते चलते रहेंगे। रास्ते में बस मिल जाए तो ठीक है, नहीं तो सीधे चलते-चलते गाड़ी के पास ही पहुँच जाएँगे।" उनका यह फैसला आने वाली कई मुसीबतों से घिरा है, इस बात से वे अनजान थे ।

कुछ दूर जाने के बाद आगे का रास्ता कँटीले पौधों से भरा पड़ा था। लग रहा था कि यह रास्ता काफी दिन से इस्तेमाल नहीं किया गया। जिस कारण वहाँ जंगली पौधे घर कर चुके हैं।

"अब क्या करें आगे तो रास्ता बंद है। शायद हमने गलत रास्ता पकड़ लिया है।" धीरे से मानव ने अपना शक जाहिर किया।

"चलो पीछे चलते हैं। अगर रास्ता भटक गए तो मुसीबत हो जाएगी।" स्वागता ने इधर-उधर नज़र डालते हुए कहा।

"लेकिन हम तो बहुत दूर आ चुके हैं। अब पीछे जाना भी नामुमकिन है।" निखिल ने जवाब दिया। जंगल की तरफ जाते हुए एक कच्चा रास्ता कुछ दूर तक नज़र आ रहा था।

" इस रास्ते पर चलते हैं।"

"निखिल...... कहीं रास्ते खो गए तो ?” स्वागता ने धीरे आवाज़ से कहा।

"नहीं, खो कैसे सकते हैं। एक ही तो रास्ता है।" बाहर से तो बड़ी हिम्मत से कह दिया लेकिन अंदर से वह भी घबराने लगा।

जंगल के लंबे-लंबे वृक्षों के बीच एक पतला-सा रास्ता जो दूर से नज़र नहीं आ रहा था, वे जैसे-जैसे अंदर बढ़ने लगे रास्ता और भी पतला होता गया। अंधेरा भी बढ़ने लगा। लगभग चार बजने का समय था लेकिन वृक्षों की गहराई सूरज की किरणों को अंदर आने से रोक रही थी। मानव और निखिल रास्ता ढूँढते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनके पीछे अन्वेशा और स्वागता चल रहे थे।

अभिषेक की हालत बहुत बुरी थी। पथरीले रास्ते में भारी शरीर से ज्यादा दूर तक चलने से हाँफने लगा था। मन ही मन में वह निखिल को इस बात का जिम्मेदार ठहराता रहा। लेकिन सामने कुछ नहीं कहा। सूखे पत्तों से रास्ता पूरी तरह ढँक गया था। गलती से भी पैर फिसल जाए तो बॉल जैसे गोलमटोल शरीर को सँभाल पाना उसके बस में नहीं था। दोपहर तीन बजने वाले थे , दूसरी ओर पेट मे चूहे दौड़ रहे थे। रास्ता खो जाने के कारण घबराहट भी सबको परेशान कर रही थी।

थोड़ा बहुत बचा हुआ पानी भी ख़त्म हो गया था, प्यास से गला सूख रहा था। सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलने की कोशिश कर रहे थे। सूखे पत्ते की खनखनाहट, चमगादड़ की फड़फड़ाहट भयानक जंगल को और भी डरावना बना रही थी। एक-दूसरे से बात करने को भी डर लग रहा था, आवाज सुनकर कोई जंगली जानवर हमला करने का खतरा भी था। साँप की बात ही कुछ और है, कहीं से भी सामने आ जाए, तो बस।

"मैं और नहीं चल सकती थोड़ी देर यहीं बैठ जाएँ।” कहते हुए अन्वेशा वहीं एक पत्थर पर बैठ गई।

"नहीं यहाँ रुकना ठीक नहीं होगा। जंगली जगह है, रास्ता भी खो चुके हैं, अगर शाम होने से पहले कुछ ठिकाना ढूँढ न लें तो आज की रात हमारी आखिरी रात हो सकती है। अगर कोई जानवर हमारे सामने आ जाए तो उसके बाद राम नाम जाप करने का भी मौका नहीं मिलेगा, जो भी करना है अभी करना पड़ेगा, इसलिए जितना जल्दी हो सके यहाँ से निकलना चाहिए, चलो चलते हैं।" निखिल गंभीर माहौल को हल्का बनाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन स्वागता इस बात पर निखिल पर बरस पड़ी। स्वागता को अन्वेशा की खूब चिंता हो रही थी।

“अगर अन्वेशा चाहती है तो थोड़ी देर रुक जाते हैं ना "

“तुम दोनों को रुकना है तो ठीक है, मैं तो चला।” मानव ने कहा।

“मानव स्वार्थी मत बन इस जंगल से निकल पाना किसी एक की बस की बात नहीं है। किसी भी वक्त कोई भी ख़तरे में पड़ सकता है। सब साथ मिलकर चलें यही सबके लिए अच्छा होगा।” निखिल ने जवाब दिया। उसकी बात पर अभिषेक भी गुस्सा हो गया। “निखिल तुम ऐसे कैसे कह सकते हो। तुम्हारे कहने पर ही तो हम सब तुम्हारे साथ चल पड़े नहीं तो कुछ देर बस के लिए इंतज़ार कर लेते तो क्या हो जाता। तुम्हारी वजह से हम सबको आज इस भयानक जंगल में ठोकर खाना पड़ रहा है।" फिर अपने आपमें दोहराने लगा। "पता नहीं कल का सूरज देखना हमारी जिंदगी में है भी या नहीं।"

"जो भी हुआ है सबकी मर्जी से हुआ है, अब मुझे दोषी मत बनाओ। निखिल तुम्हें पता है न, दोनों पहले से घबराए हुए हैं, ऊपर से तुम डरा रहे हो।" मानव को मजबूरन बीच में बोलना पड़ा, “बंद करो, बस चुप हो जाओ... एक-दूसरे पर उँगली उठाने से पहले अपनी हालात देखो। यहाँ से कैसे बाहर निकलना है पहले वह सोचो। इससे पहले कोई जंगली जानवर का शिकार बनें यहाँ से निकलना है।"

अन्वेशा रोने लगी, “यह सब मेरी वजह से ही हुआ। न मैं बस से उतरती न ही ये सब होता।" स्वागता ने अन्वेशा को चुप कराया, फिर वे सब वहाँ से आगे बढ़ने लगे। आगे-आगे निखिल और मानव, पीछे-पीछे बाकी सब चुपचाप चलने लगे। समय पाँच बजकर कुछ ही मिनट हुए थे। वे कुछ दूर चलने के बाद रास्ता कुछ साफ नज़र आने लगा।

"लगता है इसी रास्ते चलें तो कुछ मदद मिल सकती है।" स्वागता ने खुशी-खुशी कहा। "इतना खुश होने की जरूरत नहीं है पहले जंगल से तो बाहर निकलें तब खुश होना। अब तो सिर्फ रास्ता दिख रहा है, आगे जाकर कुछ सहायता मिल जाए, इसलिए भगवान से प्रार्थना करना।” चिढ़ाते हुए निखिल ने जवाब दिया। खुशी-खुशी पिकनिक जाने का मज़ा खराब होने से वह बहुत नाराज़ था।

"इस जंगल में कोई भी लोग नहीं दिख रहे, फिर हमें मदद कौन करेगा? और हम यहाँ से हवेली कैसे पहुँचेंगे? घर में भी सबको पता चल गया होगा न? हमें ढूँढने आएँगे न? और फिर सर तो कह रहे थे कि यहाँ से वह हवेली कुछ ही दूरी पर है। सभी बहुत घबराए होंगे। यहाँ से नेटवर्क भी नहीं लग रहा है... खबर कैसे करें।" सारे प्रश्न एक के बाद एक पूछने पर भी कोई जवाब न मिलने से चुपचाप चलने लगी।

बस जब ठीक होकर विद्यार्थियों को लेने उस जगह पर पहुँची जहाँ अन्वेशा बस से उतरी थी वहाँ कोई नहीं थे। उन्हें ढूँढने की बहुत कोशिश की लेकिन आशा भंग हुई। ढूँढने और आवाज देने के बावजूद उनका कोई पता नहीं चला।

समय चार बजे चुका था और बाकी विद्यार्थियों को भी भूख लगी थी। सुनील सर और फातिमा मैडम ने बाकी विद्यार्थियों को हवेली में सुरक्षित छोड़ कर फिर वापस इसी जगह आने को तय किया।

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