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हवेली - 1

(...एक प्रेम कथा...)

लेखिका : श्रीमती लता तेजेश्वर 'रेणुका'

विभिन्न घटनाओं से गुजरती हवेली का सच"

फोन पर अपरिचित स्वर था, “संतोष जी, मैं लता तेजेश्वर उड़ीसा से आयी हूँ। मैंने एक उपन्यास लिखा है, मेरी इच्छा है उपन्यास की भूमिका आप ही लिखें।”

मैं लता जी के इस विनम्र आग्रह से अभिभूत थी। 'हवेली' पढ़ते हुए उनके ये विनम्र वाक्य मेरे साथ रहे। हिन्दी में उपन्यास लिखना एक अहिन्दी भाषी प्रदेश के व्यक्ति के लिए सचमुच चुनौती है।

उपन्यास का शीर्षक 'हवेली' रोमांचक लगता है जैसे हम किसी खण्डहर बन चुकी हवेली में हों, जहाँ रात के सन्नाटे में तरह-तरह की आवाजें स्वप्न जाल-सा बुन रहे हों, जो हकीकत से कोसों दूर है। लता जी ने कहानी के संपूर्ण कलेवर में अतीत और वर्तमान के अंतर को गहराई से कलमबद्ध किया है।

उपन्यास की नायिका मेंहदी है जिसके द्वारा लता जी ने कहानी के कथ्य को सिलसिलेवार किया और इसी सिलसिले में मेंहदी का चरित्र उभरकर सामने आता है। नायक अजनीश इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर कार्यरत है। उपन्यास का ताना-बाना स्वागता, अन्वेशा, सुषमा, सुलेमा, मेंहदी, अजनीश के इर्द-गिर्द बुना गया है और भी कई पात्र हैं जिन्हें उपन्यास को घटनाप्रधान बनाने के लिए संग रखा गया है। तथाकथित हवेली एक सुनसान जगह स्थित है जहाँ अतीत से वर्तमान की मुलाकात करवाती हैं लता जी। यह लता जी की लेखनी का कमाल है कि आम ज़िन्दगी की छोटी-छोटी रोजमर्रा की घटनाओं को जोड़कर उन्होंने एक बेहद जिज्ञासा भरा कथा जाल रचा है। पढ़ने वाले की जिज्ञासा बनाये रखना कथा का हुनर है जो आदि से अंत तक बना रहता है। लेखिका ने स्वीकार किया है कि इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा उन्हें बचपन में देखे एक सपने से मिली। वह सपना उनके दिमाग में कुछ इस तरह अपनी जड़ें जमाए था कि जब उन्होंने लेखनी थामी तो वह सपना हवेली के रूप में साकार होने लगा। यह मानव मन की वह स्थिति है जब वह खुद नहीं जानता कि अनजाने में उसके दिमाग में उसके किन अरमानों अथवा ख़्वाबों ने अँगड़ाई लेना शुरू कर दिया है, अगर मात्र मनोरंजन के नज़रिए से उपन्यास पढ़ें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि कथा मनोरंजक और अपने ग्रिप में लिये चलने का जज्बा रखती है.... लेकिन उसका विश्लेषण करने पर यह सहज स्पष्ट हो जाता है कि सोच में, कथ्य में, शैली में और वर्णन में लेखिका ने अपनी गहरी सोच का परिचय दिया है। भूमंडलीकरण और सूचना प्रधान समय के बीच पेंडुलम की तरह झूलती संवेदनहीन मानसिकता के बीच लीक से हटकर लिखना लता तेजेश्वर जी को ख़ास बनाता है।

कहना आसान है कि वे इसी तरह लिखती रहें, लिखना अपने आपमें जोखिम भरा है। बहुत कुछ को सहेजना होता है ऐसे में लता तेजेश्वर जी से मैं और भी अधिक रचनाओं की उम्मीद करती हूँ ।। शुभकामनाएँ

-संतोष श्रीवास्तव

मो. 9769023188

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प्रेरणा: लेखिका की कलम से हवेली का सच

बचपन में मैंने एक सपना देखा था। उस सपने का एक छोटा सा अंश मेरे मन में इस तरह घुलता गया कि इस कहानी को एक नया रूप और अंदाज से देखने की इच्छा मन में जाग उठी। बचपन से ही मैंने हमेशा इस कहानी की झलक को मेरे अंतर्मन में जिन्दा रखा। धीरे धीरे कहानी बुनती गई और एक किताब का रूप धारण कर लिया। इस कहानी से मैं इतना प्रभावित हुई कि मेरे सपने का एक हिस्सा बन गई। उस सपने को सच के रूप में देखना चाहती थी। दिन-ब-दिन यह सपना मन में एक कहानी का रूप लेने लगा, बस एक धुँधली-सी याद की तरह। मैंने सोचा क्यूँ न इसे कागज पर उतारा जाए और इसी सोच का परिणाम ही मेरा उपन्यास 'हवेली' है।

सपने का सारांश यह था कि कभी जंगल में घूमते-घूमते रास्ता भटक कर एक खँडहर में जा पहुँची। उसे खँडहर इसलिए कहा क्योंकि वह बहुत ही पुरानी हालत में था। उसके आस-पास सिर्फ जंगल ही जंगल, घने पेड़ के अलावा कुछ और दिखने को भी नहीं मिल रहा था। एक गुमनाम हवेली । जहाँ कोई राजघराना बरसों पहले राज कर रहा होगा या नहीं, पता नहीं लेकिन उस परिवार के अतीत का अस्तित्व उस हवेली के दीवार पर दस्तक दे रहा था।

जैसे ही मैं उस खंडहर के पास पहुँची ऐसी अनुभूति हुई कि न जाने कोई शक्ति मुझे अन्दर बुला रही है। जैसे उस हवेली से मेरा कोई पुराना नाता रहा हो और मैं उस ओर खिंचती चली जा रही हूँ। जैसे-जैसे अन्दर जाने लगी वहाँ की दीवारें जैसे कुछ फुसफुसा रही थीं जैसे कि मैं उस हवेली की दीवारों से बहुत ही परिचित हूँ और वह कुछ याद दिलाना चाह रही थी।

मैं आगे बढ़ती गई। सूरज ढलने ही वाला था, जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनाई देने लगी। जैसे ही बरामदे तक पहुँची एक अजीब-सी घटना हुई, जैसे हवा का झोंका एक के बाद एक मुझे स्पर्श करते हुए निकल गये। कुछ खिलखिलाहट सुनाई पड़ी। जैसे एक बच्ची भाग रही थी और दूसरा बच्चा उसे पकड़ने दौड़ रहा हो। मैंने चारों तरफ देखा, बस कुछ देर में सब कुछ चुप जैसे वह आवाजें दौड़ते-दौड़ते दूर चली गयी हों।

जैसे-जैसे सूरज ढलता गया वैसे-वैसे उन दीवारों में जैसे जान आ रही थी। कुछ बाघ और हिरन के चेहरे टँगे नजर आने लगे। हवेली की सजावट भी कुछ हद तक दिखने लगी। यह दृश्य देखकर मैं अप्रतिभ थी। मैं मूक बनकर खड़ी थी। मेंरे सामने एक कमरा नजर आ रहा था। जो उस हवेली के राज दरबार होने की पुष्टि कर रहा था। सिंहासन पर राजा विराजमान थे। उनके दोनों तरफ दो महिलाएँ बड़े-बड़े पंखें लेकर हवा दे रहीं थीं। सिंहासन के दोनों तरफ पर्दै लगे हुए थे। उन परदों के पीछे राजघराने की महिलाएँ बैठी हुईं थी। कुछ लोग सिर झुकाए थे । कुछ भाले पकड़कर उनकी दोनों ओर खड़े थे। दरबार के दोनों तरफ कुर्सियाँ लगी हुई थी और उन पर भी कुछ लोग बैठे हुए थे।

मेरी साँस अटकी हुई थी। मैं न कुछ कहने के काबिल थी न वहाँ से हिलने की। बस आँखें देख रही थी शरीर तो पत्थर बन चुका था। उस जगह पर खड़े होने के बावजूद उन लोगों पर मेरी मौजूदगी का कोई असर नहीं हो रहा था। जैसे कि मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं। न जाने कब तक मैं वहाँ खड़ी रही पता नहीं, जब होश आया देखा दरबार खाली हो चुका था और लोग वहाँ से जा चुके थे।

मैं धीरे से अपने पैरों को घसीटते हुए वहाँ से निकली, मेरे सामने सीढ़ी दिख रही थी मैं सीधा एक-एक सीढ़ी चढ़कर ऊपर जाने लगी । मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था, बस एक कठपुतली की तरह मैं चली जा रही थी। जब मेरे कदम आखिरी सीढ़ी पर रखने ही वाली थी मुझे घुँघरू की झंकार सुनने को मिली, मैं आगे बढ़ने लगी। जो भी कुछ हो रहा था उसमें जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं था, बस होता जा रहा था।

जब मैं उस जगह पहुँची जहाँ से घुँघरू की आवाज आ रही थी, मैंने देखा कि राजकीय ढंग से कमरा सुसज्जित है और राजा-रानी के लिबास में एक महिला और एक महोदय सिंहासन पर आसीन थे और उनके सामने कुछ नर्तकियाँ नाच रही थीं, वे दोनों उस नाट्य रस का पूरा आनंद ले रहे थे।

न जाने कितना समय बीत चुका था। रात का अँधेरा हटने लगा था। मुझे एहसास भी नहीं था कि क्या हो रहा है और समय क्या होने को है। सब कुछ चल रहा था एक फिल्म की तरह, कुछ देर बाद अचानक ही सब कुछ गायब हो गया बस, मैं अकेली वहाँ खड़ी हुई पाई। अपने चारों ओर देखा सूरज की पहली किरण धरा को चूमने को तैयार है। चिड़ियों की चहक भी सुनने को मिली, सब कुछ वास्तविक था। जैसे रोज होता है। मैं भी जैसे सपनों से बाहर निकल आई। कुछ देर तक मैं समझ नहीं पाई कि मैं कहाँ हूँ और जो देखा वो क्या था? मैंने जो देखा वो सपना था या सच? फिर जब मेरी आँखें खुली मैं पलंग से उठकर बैठ गयी। बस यही थी वो कहानी जिसने मुझे बार-बार सोचने पर मजबूर कर दिया और धीरे धीरे मेरे मन ने इस सपने को बुनते हुए सच का आकर देने लगा। उसका ही परिणाम आपके सामने मेरी पुस्तक 'हवेली' के रूप में प्रस्तुत है।

यह पुस्तक पूरी तरह से काल्पनिक है। इसमें दर्शाया कोई भी पात्र सच्चाई के साथ कोई संबंध नहीं रखता। इस कहानी के पात्र दो अलग-अलग समय के हैं। अन्वेशा और मेंहदी से संबंधित लोग वर्तमान समय के हैं। सुषमा, सुलेमा और उनके परिवार के सदस्य बीते हुए समय के हैं, जो कि उस हवेली के अतीत से जुड़े हुए हैं। जब इन दोनों समय के लोग एक समय पर आपस में टकराते हैं तो अनहोनी-सी प्रतीत होती है। ये अनहोनी जब वर्तमान में दस्तक देती है तब वह अनहोनी, सच्चाई के या वर्तमान के एक तार से जुड़ती नजर आती है और उस तार को तोड़कर उस सच्चाई की खोज करना अति आवश्यक बन जाता है।

इस कहानी में मेंहदी ने मुख्य पात्र की भूमिका निभाई है। स्वागता, मेंहदी की छोटी बहन और एक आयुर्वेदिक कॉलेज की छात्रा है। अन्वेशा, मुंबई के मेयर की बेटी स्वागता की सहेली है और अजनीश गाँव का रहने वाला एक जरूरतमंद इंसान जिसे इस कहानी के मुख्य नायक के रूप में दर्शाया गया है। अजनीश इंजीनियर की नौकरी करता है और एक समय पर मेयर चंद्रशेखर से उसकी मुलाकात होती है और जल्द ही दोस्ती में बदल जाती है।

इस दौरान कॉलेज के कैंप में आयुर्वेदिक औषधियों की जानकारी और शोध के लिए अन्वेशा और स्वागता उनके साथियों के संग पुणे से दूर एक हवेली में जाते हैं और कुछ हादसे के शिकार बन जाते हैं। उस हवेली में मेंहदी को कुछ अजीब आहटें महसूस होती हैं। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, मेंहदी को उस हवेली में घटती अजीबोगरीब आहटें सामने आकर परेशान करने लगती हैं। वह इन सबका खोज-बीनकर उसका तोड़ निकालने का प्रयास करती है, उसमें वह सफलता प्राप्त करती भी है कि नहीं पाठक किताब पढ़कर ही जान सकते हैं। अजनीश इन सारी बातों में विश्वास नहीं रखता। आखिर उस बवंडर से मेंहदी , अन्वेशा को बचाने में कामयाब हो पाती है कि नहीं ? कहानी को पूरी तरह से पढ़कर समझने की कोशिश करते हैं।

मेरी इच्छा थी कि इस कहानी की भूमिका महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित वरिष्ठ लेखिका संतोष श्रीवास्तव जी के द्वारा लिखी जाए और मेरी इस इच्छा को सम्मान देते हुए वे प्रेम और स्नेह के साथ उन्होंने इस किताब की भूमिका को तैयार की हैं। साथ ही इस किताब के प्रकाशन में सहायक प्रकाशक और उनके सहायक वृन्द का भी धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ।

-लता तेजेश्वर 'रेणूका'

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हवेली

जंगल के बीचोंबीच एक पुरानी हवेली, जहाँ रात की स्तब्धता में कुछ चीख- पुकार सुनाई देती है। हवाओं की सनसनाती आवाजें उस हवेली से गुजरते हुए कुछ राज़ की बातें बयान करना चाहती हैं, लेकिन किसी अनजान शक्ति के दबाव में आकर उनकी आवाजें जैसे गले में ही दबकर रह जाती हैं। उस हवेली में छिपी कई राज़ की बातें उन मिट्टी, पत्थरों में दफन होकर रह गईं हैं। रात के अंधेरे में हवाओं के सनसनाहट के साथ घुँघरू की झंकार उस निस्तब्ध हवेली में गूँज उठती है। उस हवेली की लंबी दीवारों के पीछे कुछ अनचाही और अनसुनी सच्चाइयाँ, समय के साथ दफन हैं। जिनकी छटपटाहट उन सारी बातों को चीख-चीखकर कहने की कोशिश करतीं हैं। उस हवेली में गुज़रा हुआ कल, रात के अंधेरे में जागरुक हो उठता है।

सालों पहले उस हवेली के सुख-दुख की भागी बन सामने खड़ा वह बरगद, आज भी मिट्टी में पैर फैलाए उस इतिहास का साक्षी बन खड़ा है। उस वृक्ष से बिखरा हुआ हर एक पत्ता, एक नई कहानी बयान करता है। उड़ते हुए धूल-मिट्टी के साथ-साथ सूखे पत्तों की सरसराहट उस स्तब्धता को और भी भयानक बना रही थी। इन सबसे दूर आकाश में काले बादलों के बीच अधखिला चाँद अपने अस्तित्व को बादल में छिपाते, माँ के आँचल में खेलते हुए एक बच्चे की तरह अँधेरे से आँखमिचौली खेल रहा था।

काला घना अँधेरा, लम्बे-लम्बे देवदारु वृक्षों की बाँहों में से निकलकर धरती की गोद में समा रहा था। जंगल में हवा की सन-सन आवाज़, चमगादड़ के फड़फड़ाहट के साथ-साथ उल्लू के भयानक चीख़ हवा में लहराते-लहराते मेंहदी के कानों में गूँज रही थी। दूर कहीं नदी की बहती हुई धारा में चाँद की हल्की रोशनी का एक झलक उस कमरे में प्रतिबिंबित हो रहा था। नया परिसर और अजीबोगरीब आहटों से आँखों से नींद ओझल हो चुकी थी। पलकें भारी होने के बावजूद नींद का नामोनिशान नहीं थी। अस्त-व्यस्त पलंग पर पड़े-पड़े असहनीय महसूस होने से उठकर वह खिड़की के सामने आकर खड़ी हो गई।

जंगली फूलों की खुशबू के साथ-साथ ताजी सुगंधित हवा तन और मन को प्रफुल्लित कर रही थी। प्रकृति की गोद में आकर जैसे वह अपने आप में खो गई थी। कहाँ शहर की भीड़-भाड़ और कहाँ यह सुनसान इलाका जिसने आज तक लोगों की भीड़ से बचाकर प्रकृति का खजाना समेट रखा है। शहर की भागदौड़ की जिंदगी से दूर निकलकर एक घूँट ताजी हवा की सुगन्ध के लिए न जाने कब से तरस गई थी। अचानक ही एक व्यस्त जिंदगी से आजाद होकर एकांत शून्य इस जंगल में... ।

एक अजीब-सा एहसास मेंहदी के मन में लाखों सवाल खड़े कर रहा था। जिस तरफ नजर गई देखा, एक अजीब सा सन्नाटा पसारा हुआ था। मीलों दूर तक न कोई घर, न चहल-पहल। दूर-दूर तक जंगली पेड़-पौधे, सूखे मैदान के साथ-साथ छोटे-बड़े पत्थरों से बने छोटे-छोटे पहाड़ और कुछ पर्वत माला दिखाई दे रही थी। हाँ, कभी-कभी चंद्रमा की एकाध झलक देखने को मिल जाती थी लेकिन जंगल इतना घना था कि छोटे-छोटे जंगली पौधे, चाँद की एक झलक पाने से वंचित रह जाते होंगे ।

मेंहदी सोच में डूबी हुई थी कि दूर बरगद के नीचे कुछ हलचल का आभास हुआ। मेंहदी ने अँधेरे को चीरकर देखने की वृथा प्रयास किया । अँधेरे का पहरा इतना घना था कि उसे कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। अचानक उसका शरीर काँप उठा। उसके मन में एक अनजाना सा भय, इस जंगल में कुछ अनहोनी हो जाए तो दुनिया की नजर से बेखबर हो यही दफन होकर रह जाएगी ।

एक ठंडी हवा का झोंका मेंहदी के शरीर को स्पर्श कर गया। सारे शरीर में एक प्रकंपन-सा खिल गया। एक सूखा पत्ता कहीं से उड़कर उसके चेहरे पर आकर रुक गया। अचानक एक नहीं बहुत सारे पत्तों की सरसराहट जैसे किसी के पैरों के नीचे दबकर आक्रंदन कर रहे हैं। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की, शायद किसी के चलने की आवाज...।

 

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समय के बहाव में बहकर अजनीश ने अपने आपको खो दिया उस हँसी में, जो रह-रहकर आज भी उसके दिमाग में कहीं छिड़ जाती है। झरने की कल-कल आवाज के साथ-साथ उस हँसी की आवाज भी उसके दिल-ओ'-दिमाग में इस तरह छा जाती कि सोते-जागते, खुद से अनजाना, बेगाना होता जाता है। दिल में कुछ हलचल, खोया-खोया सा कई प्रश्न पूछ लेता खुद से। न जाने क्या थी तू, एक सपना है या एक सवाल, एक आवाज है या एक हँसी, इनकार है या इकरार कभी समझ न पाया। बस जो भी उसके ख्यालों में आता वह है एक खिलखिलाती हँसी जो उसके मन मंदिर में रह-रह कर दस्तक दे जाती है। जिसका कोई चेहरा नहीं मगर जैसे उसके दिल की बहुत करीब, बहुत ... । उसकी हँसी जो झरने की कल-कल नाद से भी लुभावनी, अधखिली कलियों के मुस्कान से भी मनोहर। वह थी नदी की जलधारा या बर्फीली चोटियों से निकली हिम धारा, गुलाबी अधरों पर खिलते हुए कमल की पंखुड़ी जैसी खिलखिलाती, मुस्कान।

दूर मंदिर से घण्टी की ध्वनि गूँज उठी जैसे हजारों घंटियाँ एक साथ बजने लगीं। उस आवाज के साथ-साथ अचानक उसकी चेतना जाग उठी। अजनीश ने खुद को सागर के किनारे पर खड़ा पाया। सुनहरे रंग के आकाश की छाँव में लाल रंग के डूबते हुए सूरज को देखकर कुछ क्षण देखते ही रह गया। पेन्टर के ब्रश से निकले सुनहरे रंग ने जैसे पश्चिमी आकाश को ढँक दिया था। जैसे समुद्र की लहरें सूरज की रश्मि में नहाते-नहाते सुनहरे रंग में ढल गईं हो। कहीं-कहीं लाल रंग के धब्बे आकाश पर खून के धब्बे का अहसास दे रहा था, यूँ लग रहा था कि सूरज ने अभी-अभी किसी का खून करके आकाश के सुनहरे रंग की चुनरी में हाथ साफ कर लिया हो। अपने ऊपर छिड़के हुए खून को जल्द से जल्द मिटाने के लिए सूरज समुद्र में कूदने को तत्पर हो रहा हो। जिससे अनजान समुद्र खिलते-खिलाते, मुस्कुराते, गाते बार-बार अपनी लहरों से धरती की पीठ थपथपा रहा था।

उन अनगिनत लहरों के बीच एक छोटी सी लहर बार-बार उसके पैरों को छूकर खो जा रही थी, उस अनंत सीमाहीन सागर की अनगिनत लहरों के बीच। वह छोटी-सी लहर, जिसके छूने से दिल का कोई पुराना घाव फिर से ताजा हो उठा है। जैसे कि कई सालों से कोने में पड़े सितार को ऊँगुली से छेड़ दिया हो। अपने ही ख्याल में खोए हुए, उसने अपने चारों तरफ एक बार ध्यान से देखा।

थोड़े ही दूर पर कुछ बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे। रेत की गोद में अपने सपनों का महल सजाते हुए बच्चे खूब नाच रहे थे। कुछ दूर पर अंग्रेजी मैम अपने पुरुष दोस्त के साथ बैठकर रंगीन शाम को और भी रंगीन बनाते हुए अपने अर्धनग्न शरीर को बालू में छिपाते हुए मजा ले रही थीं। ठेले पर नारियल पानी, बर्फ का गोला, पावभाजी और पानीपुरी का मजा लेने के लिए लोग बेचैन थे। रंगीन शाम के साथ-साथ इन सबका मजा लेना लोग खूब पसंद भी करते हैं। बच्चों के साथ-साथ छुट्टी बिताने का यह एक ख़ास मौका होता है। अपने परिवार के साथ-साथ कुछ खुशी के पल बिताने का यही तो मौका है।

रविवार का दिन था। शाम होने से अजनीश भी बहुत देर तक उस बालू में बैठा रहा उन पुरानी यादों के साथ जब एक पतली सी ठंडी हवा ने शरीर को स्पर्श किया पूरा शरीर सिहर उठा। तब घर जाने का ख्याल मन में आया। वह वहाँ से उठकर चलने लगा। अँधेरा चारों तरफ फैल गया था। लोग भी अपने-अपने घर जाने की तैयार हो रहे थे।

अजनीश चुपचाप समुंदर के किनारे से बाहर निकल ही रहा था कोई उसकी पैंट पकड़कर खींचने लगा। अचानक ही वह रुक गया। देखा, चार साल का एक बालक फटा पुराना कपड़ा पहनकर पैर के पास बैठ गया। एक हाथ से पैंट को पकड़कर खींचते हुए दूसरा हाथ पेट और मुँह को इशारा करते हुए खाने के लिए माँग कर रहा था।

"ऐ बाबू एक रुपया दे दो बाबू तेरा भला होगा, बहुत भूख लगी है।" अति दीन स्वर में कहने लगा।

एक पल वह सोच में पड़ गया। कुछ क्षण वहीं खड़ा रह गया, तुरन्त ही सँभलकर अपने आपको उससे छुड़ाने की कोशिश की। जितना छुड़ाने की कोशिश करता, वह लड़का उतनी ही मजबूती से जकड़ लेता।

'अरे छोड़', कहकर उससे दूर जा ही रहा था चारों तरफ से और चार-पाँच बच्चे आ गए। इनमें कुछ दस-बारह साल के भी थे और एक लड़की भी। 'बाबू बाबू' कहकर चारों तरफ से उसे घेर लिया।

'अरे जाओ कहीं और देख लो, जाओ। चलो हटो यहाँ से।' कहकर पीछा छुड़ाने लगा। जोर-जोर से कदम बढ़ाकर वहाँ से जाने ही लगा था कि वे सब उसके पीछे ही पड़ गये। अजनीश को इनका इरादा समझ में आ गया। जैसे कि उसने अपने पैंट पॉकेट पर हाथ फिराया, अचानक ही सारे के सारे गायब हो गए, जैसे गधे के सिर से सींग।

'हे' आवाज देते हुए पीछे मुड़ा तब तक देर हो गया था। अजनीश का जेब खाली था और वे सारे बच्चे उसके पकड़ से बहुत दूर निकल चुके थे। उनके पीछे भागने से कोई फायदा नहीं था। अजनीश के पास चुपचाप वहाँ से निकलने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा।

क्यों न हो भाय, यह मुंबई है। यहाँ कुछ भी हो सकता है। कुछ सालों में लोग ही गायब हो जाते हैं तो पर्स क्या चीज है? अजनीश सिर पर हाथ फिराते हुए आगे चल पड़ा। अजनीश को उस दिन की याद आयी जब उसने पहली बार मुंबई शहर में पैर जमाया था। जब वह स्टेशन से अपनी पेटी और कुछ सामान लेकर ट्रेन से उतर रहा था, तब हुई थी यह घटना कहाँ से न जाने एक लड़का उसके सामने आकर खड़ा हो गया और उसके हाथ से सामान लेने लगा। वह लड़का आठ-नौ साल का होगा।

“बाबू मुझे दे दो, कहाँ जाना है आपको? मैं पहुँचा दूँगा।" कहते हुए एक-एक कर सारा सामान स्टेशन की एक जगह पर रखने लगा।

अजनीश के पास काफी सामान तो नहीं थे, एक पेटी, दो बैग और रास्तें में खाने के लिए उसकी माँ ने एक बैग भरकर खाने की चीजें दी थी। बहुत मना करने के बावजूद माँ की प्यार भरी जिद को ठुकरा नहीं पाया था। अपने साथ ले आया। फिर भी इन सब चीज़ों को पकड़ने के लिए उसके दो हाथ नाकाफी थे, इसलिए उसने उस लड़के की मदद को ठुकरा नहीं पाया।

"ठीक है, मेरा सामान ऑटो तक पहुँचा दो, पैसे दे दूँगा।” लेकिन कुछ ही देर में उसे समझ में आ गया कि वह मदद करने नहीं चोरी करने आया था। अजनीश उसके हाथ में सामान देकर वहीं रुकने को कहकर पास वाले दुकान से पानी का बोतल खरीदने गया। लौटकर देखा तो वह लड़का वहाँ नहीं था और वह सूटकेस भी जिसमें उसका पूरे महीने के पैसे थे जो उसके पिताजी ने किसी से उधार लेकर दिए थे। और वह बदमाश लड़का गायब था।

उस दिन से वह इस तरह के लोगों को कोई सहायता न करने की, न लेने की कसम खायी। उस महीना अजनीश के लिए कितना मुश्किल भरा था सिर्फ वही जानता है। उसका दोस्त रमेश ही था, जो उस वक्त अजनीश की मदद की, नहीं तो पता नहीं आज वह किस हाल में होता। अनजान होते हुए भी रमेश की सहायता से अजनीश ने किसी तरह खुद को सँभाला।

दूर रास्ते की तरफ चल पड़ा अजनीश। सड़क पर काफी चहल-पहल थी। रास्ते के दोनों तरफ बिजली की रोशनी मुंबई के अँधेरे को दूर-दूर तक फेंकने में कामयाब थी। उसने टैक्सी को रोकने की कोशिश भी नहीं की। एक तो जेब खाली ऊपर से मन भी परेशान था। शाम की हल्की हवा, मुंबई की ट्रैफिक के शोर को कुछ कम कर रही थी। दिल में कुछ भारी-भारी-सा एहसास। मन में सवाल-जवाब की कश्मकश हो रही थी ।

चलते-चलते जब थक गया तब तक बहुत दूर निकल चुका था। रात के नौ बजे शहर से दस किलोमीटर दूरी पर भी टैक्सी मिलना बहुत मुश्किल तो नहीं था। लेकिन उसने टैक्सी रोकने की कोशिश भी नहीं की। कारण उसके पास टैक्सी भाड़ा देने के लिए एक भी पैसे नहीं थे। दस मिनट बाद एक टैक्सी उसके सामने रुकी।

"श्रीमान कहाँ जाना है आपको ?" ड्राइवर ने पूछा।

" ... " उसने बताया ।

"चलिए हम भी उसी रास्ते जा रहे हैं। अगर चलना हो तो चलिए।"

"लेकिन मेरा जेब खाली है, मेरा पर्स किसी ने.......”

"कोई बात नहीं चलिए हम छोड़ देते हैं। ऐसे वक्त पर इंसान ही इंसान का काम आता है।" गाड़ी से सिर निकालकेर एक व्यक्ति ने अंदर आकर बैठने को कहा। अजनीश के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। इसलिए बिना कुछ कहे बैठ गया। उसे अच्छे से पता था उस वक्त कोई लिफ्ट मिलना बहुत मुश्किल है। कुछ लोग टैक्सी में पहले से मौजूद थे, उनमें पैंतालिस साल का एक व्यक्ति बैठा हुआ था जिन्होंने उसे टैक्सी में बैठने को जगह दिया था। वे चेहरे से कुछ गंभीर, जिम्मेदार, खाते-पीते खानदान के लग रहे थे। उसकी सारी बात सुनकर एक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा, "ये मुंबई है भाई, यहाँ कुछ भी हो सकता है। यहाँ हमेशा सजग रहने से भी कुछ नहीं होगा। भाग्य भी साथ होना चाहिए।"

गाड़ी में जगह कम थी। अजनीश को थोड़ा असहज महसूस होने लगा । उसने सँभलकर बैठने की कोशिश की । तब वह शख्स बोल पड़े, “सँभल के बैठना रास्ता बहुत दूर, जगह बहुत कम और मंजिल भी अलग। हम सब यहाँ कुछ देर के लिए ही हमसफर तो हैं।"

अजनीश ने कहा, "सही कहा आपने, जगह कम है तो क्या हुआ आपके जैसा साथ मिल जाए तो बात ही कुछ और है। कुछ ही समय में एक अनजान को भी अपना बना लिया आपने और कुछ समय के बाद बिछड़ना भी है। "

"यह बात बड़ी अच्छी कही, जिंदगी होती ही ऐसी है, कुछ दूर साथ चलकर बिछड़ना ही तो जिंदगी है, जैसे अकेले आते हैं वैसे अकेले ही जाना पड़ता है।" उनकी बातें अजनीश को बहुत प्रभावित कर रही थीं।

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तीस साल का नौजवान है अजनीश, डिग्री पूरी करने के बाद घर के बिगड़ते हालात को देखकर आगे पढ़ाई के साथ-साथ एक छोटे-से दफ्तर में एक छोटी-सी नौकरी में जुट गया। नौकरी करते हुए ही उसने इंजीनियरिंग पूरी की। इंजीनियर की पढ़ाई खत्म होने के बाद उसे एक निजी कंपनी में असिस्टेंट इंजीनियर का पद प्राप्त हुआ। अब वह एक अच्छी नौकरी पर है। एक छोटे-से भाड़े के घर में रहता है।

हर रोज की तरह दूसरे दिन सुबह अजनीश मुँह हाथ धोकर चाय बनाने लगा। छोटा-सा एक कमरा। कमरे को लगकर एक छोटा-सा रसोई और अटैच्ड बाथरूम। रसोई की खिड़की से उस मोहल्ले की छोटी-सी गली दिखाई पड़ती है, जहाँ लोग आते-जाते नजर आते हैं। मुंबई जैसे शहर में भाड़े का घर ढूँढना बहुत मुश्किल का काम है। रमेश की मदद से १५०० रु. भाड़े पर यह कमरा मिला था। जहाँ वह तीन साल से रहता है। इस महँगाई के जमाने में इतने कम दाम पर और बिना कोई एडवांस के घर मिलना बहुत कठिन था। अजनीश जैसे ब्रह्मचारी के लिए एक कमरे वाला वह घर भी स्वर्ग जैसा है। तो क्या हुआ, अगर घर काफी पुराना हो गया हो या दीवार पर काले रंग के धब्बे हो गए हों, अकेले अजनीश के लिए ये कोई बड़ी बात नहीं थी। उसने अपनी घड़ी की तरफ देखा, दस बजकर दस मिनट हो रहे थे। रात को देर से घर लौटने और थकान की वजह से वह काफी देर तक सोता रहा।

“शुकर है आज रविवार है, नहीं तो... दफ्तर के लिए देर हो जाता। पता नहीं कैसे आज इतने देर तक सोता रहा।" मन ही मन कहा। वह अलार्म घड़ी को हाथ में लेकर देखा। अलार्म बजकर बंद हो गया था। फ्रेश होकर चाय बनाने के लिए स्टोव जलाने से पहले रसोई की खिड़की खोल दिया। ताज़ी हवा एकदम से अंदर प्रवेश किया। मन उल्लास से भर गया। पूरे घर मे वही एक रास्ता है जिससे घर में कुछ ताजी हवा चलती रहती है। स्टोव जलाकर चाय के लिए पानी गर्म कर ही रहा था कि “हाय अजु, गुड मॉर्निंग।” दोनों हाथ हिलाते हुए रमेश ने अपनी बाल्कनी से इशारा किया। रमेश अजनीश को अजु कहकर बुलाता है।

"गुड मॉर्निंग।" अजनीश ने भी अपना हाथ हिलाया। रमेश की बाल्किनी से अजु की खिड़की साफ-साफ नजर आती है। सुबह-सुबह छत पर कसरत करना रमेश का रोज की आदत है। उसने सुबह से दो बार खिड़की की तरफ देख चुका है, मगर अजु की खिड़की बंद देखकर संदेह में पड़ गया था। 'आज पता नहीं अजु की खिड़की अब तक बंद क्यों है।' मन ही मन वह सोचने लगा था। अजनीश को देखते ही उसका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए दोनों हाथ हिलाया।

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अजनीश के जीवन में अब तक कोई लड़की का प्रवेश नहीं हुआ। उसे सरल, सहज जीवन पसंद है, न कि शहर की जंजाल भरी जिंदगी। इसलिए मुंबई में रहकर भी कोई लड़की उसकी जिंदगी में दस्तक नहीं दे पाई। अजनीश को हमेशा उस लड़की की तलाश थी जो सुंदर व सुशील हो और उसके अनमोल जीवन में सर्वदा से उसका साथ निभाए। मगर आज तक उसे ऐसी कोई लड़की पसंद ही नहीं आयी।

अजनीश ने ज़िंदगी को दुख-सुख से जोड़कर देखा है। इसलिए माँ के बार-बार जिक्र करने के बाद भी उसने शादी के बारे में सोचना ठीक नहीं समझा। पहले अपने घर-परिवार और भाई की पढ़ाई खत्मकर हर जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद ही शादी के बारे में सोचना मुनासिब समझा। बीमार पिता, माँ के अलावा एक छोटा भाई है जो गाँव में रहकर पढ़ता है। साथ ही माँ बाबूजी की देखभाल भी करता है।

गाँव में जो दो एकड़ जमीन थी उसे बेचने पर दोनों भाइयों की पढ़ाई और बाबूजी की दवा-पानी के खर्चे में ही शामिल हो गई। जब तक शरीर में दम था तब तक अजनीश के पिताजी उस जमीन पर बैल चलाकर दोनों की पढ़ाई के साथ घर का खर्चा भी जुटा लेते थे लेकिन अजनीश के कॉलेज में जॉइन करने के दूसरे साल ही अजनीश के पिताजी अमरनाथ कैंसर से पीड़ित हो गये। तब से उस जमीन की देखभाल करना मुश्किल हो गया था। गाँव की उस दो एकड़ जमीन को बेचकर उनका ऑपरेशन किया गया। बाकी जो कुछ बचा उसे बैंक में जमाकर, उस जमा पूँजी से हर महीने दवा और घर खर्च चलता था लेकिन धीरे-धीरे उन पैसों से गुजारा करना मुश्किल होने लगा। अजनीश के ऊपर जब घर की सारी ज़िम्मेदारी आ गयी तब घर के खर्च के लिए नौकरी तलाशने वह शहर आ गया। उसने शहर में रहकर काम करते हुए पढ़ाई भी पूरी करने का निश्चय किया। घर चलाने के लिए काम करना जरूरी हो गया था। मुंबई में एक छोटी-सी नौकरी में रहकर अपनी पढ़ाई भी चालू रखी और घर के लिए कुछ पैसे भी भेजने लगा।

सुबह उठकर चाय नाश्ता बनाकर दफ़्तर के लिए तैयार होना, अजनीश का रोज़ का रूटीन था। उसका एक पुराना स्कूटर है, जो पाँच-छ: बार किक मारने के बाद स्टार्ट होता है। घर ऑफिस से बहुत दूर होने के कारण रोज़ बस में आना-जाना करना पड़ता था। मगर मुंबई के ट्रैफिक उसे रोज़ ऑफिस देर से पहुँचाती थी। एक दोस्त की सलाह से उसने एक पुराना स्कूटर खरीद लिया। अब उसी स्कूटर में रोज़ दफ्तर जाता है और दोपहर का खाना दफ्तर के कैन्टीन में ही खा लेता है। शाम को थककर जब घर लौटता कुछ बनाने की कोशिश ज़रूर करता है। जब कुछ खट्टी-मीठी यादें और अकेलापन उसे सताने लगता तब वह देर रात तक समुंदर के किनारे या सड़क पर दोस्तों के साथ वक्त गुज़ार लेता। यही है अजनीश की जिंदगी।

दो महीने गुजर चुके थे कि एक दिन रमेश ने शाम को समुंदर के किनारे जाने का प्रोग्राम बनाया। रोज़ की तरह उस दिन भी शाम को जब समुद्र के रेत पर खड़े सूर्यास्त देख रहा था। पीछे से किसी की आवाज सुनाई दी, "हाय यंग मैन!"

जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक व्यक्ति हाँफते हुए खड़े थे। वे सफेद रंग का हाफ पैंट और टी-शर्ट पहने हुए थे। अजनीश ने उन्हें पहचानने की कोशिश की उसे याद आया ये वही हैं जो कुछ रोज़ पहले टैक्सी में लिफ्ट दिए थे, “अरे सर आप यहाँ!" उन्हें देखकर अजनीश को बहुत खुशी हुई।

“हाँ, मैं रोज़ यहाँ जॉगिंग करने आता हूँ। और तुम यहाँ अकेले?"

"नहीं सर मैं अपने दोस्त के साथ आया हूँ। आप रोज़ आते हैं यहाँ?" आश्चर्यानंद से पूछा।

"हाँ क्यों नहीं आ सकता?"

"अरे सर कैसी बात कर रहे हैं? मैं ऐसे कैसे कह सकता हूँ?"

"डोंट वरी यंगमैन। मैंने यूँ ही कहा। देखो उम्र के साथ मेरा पेट भी बड़ा होता जा रहा है। इस हाल में उम्र तो कम नहीं कर सकता पर पेट तो कम कर सकता हूँ, इसलिए रोज़ आधा घंटा जॉगिंग करने आता हूँ ।” कहते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे ।

"सर, बुरा न माने तो एक बात कहूँ।”

"हाँ, जरूर। यहाँ सबको अपनी बात कहने का पूरा हक है।"

“सर, लोग दूसरों पर हँसते हुए बहुत देखे हैं, लेकिन खुद पर हँसने के लिए हिम्मत चाहिए।” उसकी आँखों में सच्चाई और उनके प्रति इज्जत झलक रही थी।

"हिम्मत के साथ-साथ ऐसा पेट भी चाहिए। छोड़ो अपनी सुनाओ। अकेले-अकेले सूर्यास्त का मजा ले रहे हो, क्या बात है ?"

"कुछ नहीं सर, अकेला प्राणी हूँ। समय बिताने के लिए इस सूर्यास्त के समय ऐसी जगह जहाँ बच्चों और बड़ों से एक खुशहाल माहौल देखता हूँ मन को बहुत सकून मिलता है। यहाँ इस विशाल समुंदर के किनारे इस बालुका पर जो आनंद मिलता है वह कहीं और नहीं मिलता।"

"हूँ, बहुत अच्छी बात कही। तो शादी भी कर लो, फिर देखो सूर्यास्त की सुंदरता और भी बढ़ जाएगी। अच्छा तुम्हारी शादी हो गयी ?"

"नहीं सर, अभी तक तो नहीं।" बीच में ही अजनीश को रोककर कहा, "कर लो, एक से भले दो हो जाओगे तो खुशी भी बढ़ जाएगी। क्यों क्या ख्याल है?"

“आपकी बात याद रखूँगा सर।"

आकाश की तरफ देखते हुए उन्होंने कहा, “लगता है बारिश होने वाली है। आज का मौसम कितना सुहाना है और किस्मत बड़ी अच्छी है कि तुमसे मुलाकात हो गई, क्यों अजनीश ?”

"हाँ सर, लगता है आप किस्मत को बहुत मानते हैं।" साथ-साथ चलते हुए कहा।

"क्यों नहीं, किस्मत कब, किसको, कहाँ ले जाए किसको ख़बर... हो सकता है आज की मुलाकात आगे जाकर दोस्ती में बदल जाए या उससे भी कुछ ज्यादा।"

"हो सकता है।" अजनीश ने कुछ सोचते हुए कहा। उन्होंने पॉकेट से एक विज़िटिंग कार्ड निकालकर अजनीश के हाथ में रखकर कहा "कभी मन करे तो घर चले आना, ख़ूब बातें करेंगे।”

“ओके सर, फिर मिलेंगे।” अजनीश ने हाथ मिलाते हुए कहा ।

"सी यू।" कहकर पीछे से हाथ हिलाते हुए दौड़ते चले गए।

अजनीश ने कार्ड को पलटकर देखा बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, मेयर चन्द्रशेखर, अजनीश की आँख खुली रह गयी। इतने बड़े आदमी लेकिन कितनी विनम्रता और तो और चेहरे पर भी कोई दिखावा नज़र नहीं आता।

"अजु क्या देख रहा है ?" रमेश पीछे से आकर पीठ थपथपाया।

"अरे, रमेश तू कहाँ चला गया था, थोड़ी देर पहले आया होता तो तुझे मेयर चंद्रशेखरजी से मिलने का मौका मिल जाता।”

“मेयर चंद्रशेखर ?"

“हाँ ! मेयर चंद्रशेखर, पता है..... कितने सीधे-साधे आदमी हैं? मैं तो हैरान रह गया।"

"तू अगर इतनी तारीफ कर रहा है, तो सचमुच ही कोई महान इन्सान होंगे। ठीक है फिर कभी मिल लेंगे। चल अब चलते हैं। बारिश होने से पहले यहाँ से निकलना है।" दोनों बीच से बाहर आ गए।

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