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ओस की धड़कन - लंबी कहानी

‘बेटा, जिस लड़की को तुम पसन्द करते हो, यह मत भूलना कि वह भी किसी की बेटी और अपने परिवार की इज्ज़त है। इस तरह से उसके साथ­-साथ घूमने­-फिरने और फोन पर बात करने से बेहतर होगा कि उससे जल्द से जल्द अपना विवाह कर लो और मान­-सम्मान के साथ उसे घर ले आओ। जब तुम लोगों ने पहिले ही एक दूसरे को पसन्द कर लिया है तो फिर घर, जाति, समाज और धर्म हम देखकर क्या करेंगे। ज्यादा अच्छा होगा कि उसे दो­-एक दिन के लिये अपने घर पर आमन्त्रित करो, ताकि हम भी उसे देख-भाल लें। इतना सब कुछ होने के पश्चात और लड़की की भी मर्जी जानकर फिर हम उसके मां-­बाप से बात करेंगे।’

***


ढलती हुई संध्या और क्षितिज में डूबती हुई सूर्य की अंतिम रश्मि के साथ जब रॉवी झील की अपने ही स्थान पर थिरकती हुई लहरों से छेड़खानी करने के पश्चात अंतिम चिड़िया भी अपने भीगे पंखों को फड़फड़ाती हुई उड़ गई तो तट के किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठे हुये बहुत ख़ामोश, अपने ही ख्यालों में लीन नवरोश का नितांत अकेला मन भी जैसे घोर अंधकार के बादलों से भर गया। सूरज डूब चुका था। वातावरण में थकी हुई शाम का गहराता हुआ धुंआ आने वाली रात्रि की सूचना देने लगा था। परन्तु अपने ही विचारों में तल्लीन नवरोश को इन सारी बातों से कोई भी सरोकार नहीं था। वह तो नगरकोट से चार बजे आने वाली एक्सप्रेस ट्रेन से उतरकर सीधा पैदल ही यहां रॉवी के तट पर आ गया था। भूख़ा-­प्यासा, थका­-हारा, जैसे अपने मुकद्दर का मारा, कौन जानता था कि उसके दिल पर क्या-­क्या बीत चुकी है? नवरोश जानता है कि नगरकोट वह अपने मित्र के विवाह में उसे बधाइयां देने के लिये गया था, लेकिन वहां पर जाकर वह क्या देकर आया था और क्या लेकर वापस आ गया है? अपने दिल में बसे हुये तमाम शिकवे­-शिकायतों के ढोल­-मंजीरे जैसे उसके कानों के पर्दों के साथ­-साथ उसके दिमाग की धमनियां भी फाड़ देना चाहते थे। उसे मालुम है कि इसी रॉवी के तीर पर ना जाने कितने ही हसीन लम्हें और प्यारी शामें उसने ओसनी की कोमल बाहों के स्पर्श के साथ गुज़ारी होंगी। वह ओसनी कि जिसकी नाज़ुक धड़कनों के साथ अपनी हरेक सांसों में उसने ज़िन्दगी के कितने ही बेहतरीन ख्वाब देखे थे। कितनी ही बार उसकी खिलखिलाती हुई हंसियों के सहारे डूबती हुई संध्या को बहुत प्यार के साथ कभी गले लगाया होगा। लेकिन आज वह समय था कि रॉवी के तीर की यही शाम उसके लिये ज़िन्दगी की काली रात के वह घुटनभरे प्याले बन चुकी थी कि जिनको आज वह हाथ लगाते हुये भी कांपने लगा था। कितना बुरा हश्र उसकी अरमानों से संजोयी हुई हसरतों का हुआ है, कि वक्त ने उसकी झोली में मुस्कराहटों की एक कतरन भी नहीं छोड़ी थी। सोचते हुये नवरोश की नीरस आंखों के पर्दे पर उसके अतीत के जिये हुये दिन किसी चलचित्र के समान स्वत: ही आने लगे . . .’

गर्मी की छुट्टियां हुई और कॉलेज की पढ़ाई से जब नवरोश को फुरसत मिली तो अपने मां­बाप के कहने के अनुसार ही नवरोश को जयपुर जाना पड़ा। उसके पिता के कारोबार से सम्बंधित कुछ काम था। साथ ही उन्होंने उसे सलाह भी दी थी कि जाकर उसके पिता के कोई परिचित भी वहीं रहते थे, उनकी तरफ से उनकी लड़की का रिश्ता नवरोश के लिये आया था। सो वह वहां जाकर अपने पिता का काम कर ले और साथ ही लड़की को भी देख ले। यदि वह लड़की को पसन्द करता है तो रिश्ते की बात आगे बढ़ाई जा सकेगी। यही सोच कर नवरोश जयपुर आ गया था। जयपुर आकर वह अपने पिता के परिचित के यहां ना ठहर कर धर्मशाला में ठहर गया था। सोचा था कि वापस जाने से पहले वह अपने पिता के परिचित के घर भी हो आयेगा। यूं उसे अपने विवाह की ऐसी कोई जल्दी भी नहीं थी, लेकिन माता­पिता ज़ोर दे रहे थे, सो वह उनका कहना भी नहीं टाल सकता था। फिर जब उसके पिता के कारोबार का काम पूरा हो गया तो वह आमेर का मशहूर किला देखने के लिये निकल गया। माओता/मावठा, झील की तराइंयों की ऊंची पहाड़ी पर मारवाड़ी शिल्पकला का सजाया हुआ राजपूतनी किला, मुगल शहनशांह के उन दिनों की हिन्दुस्तान पर की हुई हुकूमत की स्मृतियों को जी भर कर दिखा देना चाहते थे, जब कभी वीर राणा प्रताप ने अकबर की आधीनता स्वीकार न करते हुये जंगलों में घास की रोटियां खाना पसन्द किया था। नीचे झील के शांत पानी में आमेर के किले के बने हुये गुंबजों की परछाइंयां भी जब बढ़ती हुई शाम के धुंधलके में डूबने लगीं तो किले की मुंडेर से हाथ टिकाये हुये नवरोश ने भी वहां से हटकर वापस लौटना उचित समझा। लेकिन जैसे ही वह वापस जाने के लिये पीछे घूमा तो थोड़ी ही दूर पर चुपचाप खड़ी हुई एक छाया को देखकर ठिठक गया। नवरोश को समझते देर नहीं लगी कि यह वही लड़की है जो जब से वह यहां आया है तब ही से यहां बेमन से अकेली ही घूमती फिर रही थी। वह लड़की काफी देर से शायद अपने ही स्थान पर अब खड़ी हो गई हो गई तो उसकी मुखमुद्रा को देखते हुये नवरोश ने केवल अनुमान भर ही लगाया। यह अकेली, तन्हा सी लड़की! इसके साथ कोई है भी नहीं? किले के घूमने का समय भी अब समाप्त होने वाला है? क्या मालुम किसी का इंतज़ार कर रही है? कुछ नहीं पता. लेकिन इसे यूं अकेला छोड़ना भी ठीक नहीं होगा— सोचते हुये नवरोश के वापस लौटते हुये कदम अपने ही स्थान पर ठिठक गये। उसने कुछ देर और वहीं खड़े रहना उचित समझा। लेकिन जब और भी देर हो गई, शाम गहरा गई और जयपुर शहर विद्युत बत्तियों के प्रकाश में जगमगा उठा तो नवरोश अपने आपको रोक नहीं सका तो स्वत: ही उसके कदम उस अनजान लड़की की तरफ खिसकने लगे। पास आकर वह उस लड़की के पास खड़ा हो गया। लेकिन उस लड़की ने फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया तो नवरोश को उससे कहना ही पड़ा। वह बोला,

“जी सुनिये! ”

“?” उत्तर में उस लड़की ने नवरोश को केवल प्रश्नसूचक निगाहों से देखा भर तो नवरोश आगे बोला,

“आप शायद किसी के आने का इंतज़ार कर रही हैं?”

“हां।”

“अब तो संध्या भी डूब गई और रात होने लगी है। किले के घूमने का समय भी समाप्त होने वाला है। आप जिसका इंतज़ार कर रही हैं वह तो अब शायद ही आयेगा। हो सकता है कि उसकी कोई मजबूरी रही होगी। कल फिर से यहां आकर उसकी प्रतीक्षा कर लीजियेगा। अब यहां अकेले किसी युवा लड़की का ठहरना भी मुनासिब नहीं है।”

“जो आज नहीं आ सका वह कल क्या आयेगा।” कहते हुये वह लड़की निराशमन से अपने स्थान से खिसकी तो नवरोश ने इतना ही कहा कि,

“यह तो आपको अच्छी तरह से मालुम होना चाहिये कि वह कल भी आयेगा या नहीं?”

“!!” नवरोश की इस बात पर वह लड़की केवल आंखों से ही नवरोश को प्रश्नसूचक दृष्टि से घूर कर ही रह गई तो फिर नवरोश ने ही अपनी बात आगे बढ़ाई। वह बोला,

“वैसे मेरी फिलॉसिफी है कि इंसान को कभी भी किसी का इंतज़ार नहीं करना चाहिये।” नवरोश ने कहा तो वह लड़की तुरन्त ही उससे संबोधित हुई और बोली,

“आपका मतलब?”

“मैं अतीत की गलतियों को अपनी पीठ पर बांधकर, वर्तमान में जीने में विश्वास करता हूं। ख़ोखली उम्मीदों की आस पर अपना समय बरबाद नहीं करता हूं।”

“उम्मीद पर तो सारी दुनियां ही कायम है. मेरा विश्वास है कि जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रही हूं वह कल अवश्य ही आयेगा।”

“और यदि नहीं आया तो . . .”

“तो मैं उसे दोष नहीं दूंगीं।”

“इसका मतलब है कि बात काफी आगे बढ़ चुकी है . . .”

“शायद! ” कहकर वह लड़की हल्का सा मुस्कराई तो नवरोश उसे एक संशय के साथ देखता रह गया।

इसी बीच दोनों की बातों का सिलसिला थोड़ी देर को थमा तो वे तब तक किले की बाहरी दरवाज़े से निकलते हुये नीचे सीढ़ियां उतरने लगे। फिर सीढ़ियों से नीचे उतरने के बाद जैसे ही वे सड़क पर आये तो नवरोश ने औपचारिकतावश पूछ लिया। बोला,

“कहां जाना है आपको। मैं छोड़ दू?”

“नहीं, धन्यवाद। मैं खुद ही चली जाऊंगी।” यह कहते हुये उस लड़की ने ऑटो रिक्शा को रूकवाया और उसमें बैठकर नवरोश की तरफ हाथ हिलाते हुये चली गई। नवरोश काफी देर तक रिक्शे को दूर तक जाता हुआ, ठगा सा देखता रह गया। वह लड़की चली गई तो फिर नवरोश भी अपना सा मुंह लेकर वहां से चुपचाप खिसक आया। हर शाम के समान पहिले ही से निश्चित होटल पर खाना खाया और अपनी धर्मशाला पर आ गया। हांलाकि उसे अपने पिता के परिचित के घर पर भी जाना था लेकिन वह वहां जाने के लिये फिर से टाल गया। टालने का कारण अब केवल एक ही था – शाम के समय आमेर के किले में मिली वह अज्ञात युवा लड़की, जिसके साथ कोई भी नहीं था, बार­बार उसकी आंखों के सामने आकर खड़ी हो जाती थी। कौन थी वह? कहां से आई थी? यूं तो दिन भर ना जाने कितने ही पर्यटकों को वह देखता रहा था, पर इस लड़की ने ना जाने क्यों उसे बहुत कुछ अनजाने में ही सोचने पर विवश कर दिया था। उससे उसे कोई भी मतलब नहीं था। वह तो उसे जानता भी नहीं है, मगर फिर भी वह बार­बार यही सोचने पर विवश हो जाता था कि वह अज्ञात लड़की वहां किले की मुंडेर पर हाथ टिकाये नीचे माओता झील के थिरकते हुये जल की लहरों को देखते हुये किसकी प्रतीक्षा कर रही थी? सारी रात वह इसी प्रकार से सोचते हुये करवटें बदलता रहा। फिर इन्हीं ख्यालों में उसे कब नींद ने आ घेरा कुछ पता ही नहीं चला। सुबह जब उसकी आंख खुली तब तक सूरज काफी ऊपर उठ आया था। उसकी तेज किरणों को देखते ही प्रतीत होता था कि आज भी सारे दिन गर्मी लोगों का पसीना निकालने में कमी नहीं करेगी। वह उठा, नहाने गया और फिर वस्त्र पहनकर धर्मशाला के कमरे से बाहर आ गया। हर रोज़ की दिनचर्या के समान उसने होटल में ही चाय पी और नाश्ता किया तथा बाहर आकर सड़क पर यूं ही खड़ा हो गया। उसका कोर्ई निश्चित कार्यक्रम तो था नहीं, सो कुछेक मिनटों तक वह वहीं सड़क के किनारे आते­जाते यातायात को निहारने लगा। लेकिन वह अभी खड़ा हुआ यह सब देख ही रहा था कि तभी एक ऑटोरिक्शा वाला उसकी बगल में आकर खड़ा हो गया और उसके चालक ने उससे औपचारिकतावश पूछ लिया कि,

“बाबू जी, कहीं जाना है क्या?”

“हां।”

“कहां?”

“आमेर।”

“चलिये मैं ले चलता हूं।”

“पैसे कितने लोगे?”

“अरे बाबू जी, सुबह­सुबह बोहनी का समय है. पैसे आप जो चाहें दे देना। मैं मीटर नहीं चलाऊंगा।” चालक ने कहा तो नवरोश चुपचाप मुस्कराता हुआ उसमें बैठ गया। फिर मुश्किल से दस मिनट भी नहीं हुये होंगे कि ऑटो रिक्शा चालक ने अपना रिक्शा आमेर के उसी बड़े गेट की सीढ़ियों के पास लाकर रोक दिया जहां से नवरोश पिछले दिन ही वापस आया था। ऑटो रिक्शा से उतरकर नवरोश ने चालक को पैसे दिये और एक बार इधर­उधर देखा, फिर अपने आप ही उसके कदम आमेर के किले में ऊपर जाने वाली सीढ़ियां चढ़ने लगे। थोड़ी ही देर बाद वह एक बार फिर वहीं खड़ा था जहां पर उसने किले की इस छत पर कल शाम उस अनजान लड़की को देखा था। नवरोश आकर खड़ा तो हो गया पर उसकी निगाहें फिर भी किसी को ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं तो वह किले के चारों तरफ अपनी दृष्टि को एक चक्र की भांति घुमाने लगा।

“आपने तो कल कहा था कि किसी को भी किसी का इंतज़ार कभी नहीं करना चाहिये?” अचानक से किसी कोमल स्वर की आवाज़ को सुनकर नवरोश सहसा ही चौंक गया। उसने तुरन्त अपने पीछे घूमकर देखा तो यूं घबरा गया जैसे कि उसकी कोई चोरी पकड़ ली गई हो। उसके सामने वही कल वाली लड़की खड़ी हुई अपनी मुस्कान बिखेर रही थी। उसे देखकर नवरोश के मुख से सहसा ही निकल गया,

“अरे! आप?”

“आपकी फिलॉसिफी को आज क्या हो गया?” लड़की ने उसे देखते ही पूछ डाला।

“ मैं समझा नहीं?”

“किसके इंतज़ार में आप यहां आ गये हैं। क्या कल यह पूरा किला देख नहीं पाये थे। आप तो कहते थे कि कभी किसी को किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये? फिर आज यहां क्या कर रहे हैं आप?” उस लड़की ने कहा तो नवरोश ने अपनी सफाई देनी चाही। वह बोला,

“मैं अपने घर मीतापुर से यहां जयपुर किसी काम से आया हूं। वह काम आज हो नहीं सकता है तो समय काटने के लिये यही सोचा कि चलो जयपुर की ऐतिहासिक जगहें ही देख लीं जायें।”

“लेकिन कल तो आप यह किला देख चुके थे। आमेर के अलावा हवामहल, सिटीपेलेस आदि क्या सब कुछ आपने देख लिया है?”

“नहीं तो।”

“तो फिर यहां किसका इंतज़ार कर रहे हैं आप? लड़की ने दोबारा वही प्रश्न कर दिया तो नवरोश आश्चर्य से उसका चेहरा देखने लगा। लेकिन फिर थोड़ा सोचकर बोला कि,

“यदि मैं कहूं कि मैं आपकी ही प्रतीक्षा में यहां आया हूं तो . . .”

“?” यह सुनकर वह लड़की अचानक ही शर्मा गई तो नवरोश भी केवल मुस्कराकर रह गया। वह कुछ भी नहीं बोली तो नवरोश आगे बोला,

“आपने मेरी बात का जबाब नहीं दिया?”

“मैं क्या जबाब दूं। सुनकर यकीन भी नहीं होता है।” उस लड़की ने कहा तो नवरोश ने बात का विषय बदल दिया। दूसरे विषय को छेड़ता हुआ वह बोला,

“चलिये मैं तो आपके इंतज़ार में यहां आया था, लेकिन आपकी कल की प्रतीक्षा का क्या हुआ? जिसकी प्रतीक्षा आपने कल की थी, क्या उससे आज आपकी भेंट हो चुकी है?”

“मैं तो उनसे कब की मिल चुकी हूं। इसीलिये मैं आज यहां पर सूरज निकलने से पहिले ही आ गई थी। वे लोग या तो यहां बहुत सुबह ही आते हैं या फिर शाम को डूबते समय।”

“क्या मतलब है। आपकी प्रतीक्षा में एक से दो लोग हैं क्या?”

“जी हां दो। जोड़े में हैं वे दोनों।” लड़की कहकर हंसने लगी तो नवरोश आश्चर्य से उसका चेहरा फिर से देखने लगा। तब उसकी संशय में उलझी मुख­मुद्रा को गंभीरता से निहारते हुये उस लड़की ने आगे कहा कि,

“आप दार्शनिक तो हैं, पर लगता है कि समझदार नहीं।”

“आप मुझे बना रही हैं?”

“ऐसी भी बात नहीं है।”

“तो फिर ?”

“मैं बताती हूं। लेकिन पहिले कहीं बैठकर। खड़े­खड़े टांगे दुखने लगेगीं।” यह कहती हुई वह लड़की थोड़ा आगे जाकर वहीं किले की मुडेंर के नीचे लगे हुये पत्थर पर बैठ गई तो नवरोश भी वहीं नीचे ही बैठ गया। बैठते ही बोला,

“हां अब कुछ और कहने से पहिले यह बताइये कि आप कौन हैं?”

“लड़की हूं जी, और कौन?”

“वह तो मैं भी देख रहा हूं कि आप लड़की हैं। लेकिन मेरा मतलब आपका परिचय आदि?” नवरोश के आग्रह पर उस लड़की ने कहा कि,

“मेरा नाम ओस है। सब लोग मुझे प्यार से ओसनी कहते हैं और मैं यहीं जयपुर में ही रहती हूं। कॉलेज की पढ़ाई इस ही वर्ष समाप्त की है. अभी नौकरी ढूंढ़ रही हूं, जब तक नहीं मिलती है तब तक छुट्टियों में खूब घूमती भी हूं।”

“और कल से आप जिन लोगों का इंतज़ार कर रही थीं, वे कौन हैं?”

“वे . . .!” कह कर ओसनी ज़ोर से फिर हंसने लगी तो नवरोश ने उससे जैसे आग्रह किया। वह बोला,

“देखिये काफी देर से और कल से ही आपने मुझे जी भर के बना लिया है, लेकिन अब तो सच्चाई उगल दीजिये।”

तब नवरोश के आग्रह पर वह लड़की गंभीर हुई और बोली,

“लगता है कि आपने हिस्ट्री बिल्कुल ही नहीं पढ़ी है। अब सुनिये। जिस किले की छत पर हम दोनों बैठे हैं उसको मतस्यवंशी राजा अलन सिंह चंदा ने बनवाया था। बाद में इस पर कछवा के राजपूतों ने अपना अधिकार कर लिया था। उसके बाद मुगल शहनशाह अकबर की सेना के सेनापति बने राजा मानसिंह भी यहीं पर रहे थे। लेकिन इस किले के नीचे जो झील है उसके अन्दर एक प्रेम कहानी दफ़न है। कहते है कि राजा अलन सिंह चंदा के राज्यकाल में उनके यहां की एक राजपूतनी को कोई गैर-क्षत्रिय वंश का लड़का प्रेम करता था। वह राजपूतनी भी उस लड़के को प्यार करती थी। परन्तु जातिय समीकरण और सामाजिक रीतियों के कारण उनका यह विवाह नहीं हो सकता था। सो उन दोनों प्रेमियों ने इसी झील में कूद कर आत्महत्या कर ली थी। उन दोनों के मरने के बाद, कहते हैं कि वे दोनों प्रेमी हंस बन गये हैं और आज भी कभी­कभी इस झील पर कभी सुबह या फिर सन्धया के डूबने पर आया करते हैं। मैं कल भी उनको देखने के लिये बैठी थी और आज भी बड़े सबेरे आ गई थी।” ओसनी ने अपनी बात समाप्त की तो नवरोश ने उससे पूछा,

“आप विश्वास करती हैं कि मरने के बाद भी कोई दूसरा जीवन है?”

“हां क्यों नहीं। मृत्यु के पश्चात शरीर नाश हो जाता है और आत्मा कभी भी नहीं मरती है। केवल शरीर बदलकर दूसरा जन्म लेती है।”

ओसनी की इस बात को सुनकर नवरोश बहुत देर तक गंभीर बना सोचता रहा। लेकिन बाद में कुछेक क्षणों के पश्चात वह बोला,

“लेकिन मसीहियत का कहना है कि इस जन्म में अच्छे कार्यों और यीशु मसीह पर अपने विश्वास के द्वारा मनुष्य अनन्त जीवन पा सकता है। मरने के पश्चात केवल दो ही प्रकार के अनन्त जीवन हैं। एक तो स्वर्गीय राज्य में सदा जीवित रहने का और दूसरा नारकीय आग में सदैव जलते रहने का। इंसान जन्म से ही पापी है और अनन्त जीवन की ज्वाला का भागीदार है पर यीशु में विश्वास और अपने पापों पर पश्चाताप के द्वारा वह यीशु मसीह के साथ अनन्त जीवन का भागीदार बन सकता है।”

“इसका मतलब है कि आप मसीही धर्म से हैं?” ओसनी ने कहा तो नवरोश ने उसे उत्तर दिया। वह बोला,

“मसीही धर्म कोई भी धर्म और समुदाय या जाति विशेष नहीं है। यह एक विश्वास है। जो मसीह यीशु पर विश्वास करता है, वही ‘मसीही’ कहला सकता है।”

दुबली­पतली, इकहरे और छरहरे शरीर की ओसनी से नवरोश की उस दिन की मुलाकात इसी तरह से कई प्रकार के विषयों से भरी बातों, प्रश्नों और एक­दूसरे से ली गई जानकारी के साथ समाप्त हुई तो फिर दोनों ने शाम का खाना भी एक साथ ही बैठ कर खाया। इस तरह से नवरोश ओसनी से लगभग रोज़ ही मिलता रहा। ओसनी भी जब तक नवरोश जयपुर में रहा, प्रति दिन ही उससे मिलती, खूब बातें करती और इसी बहाने उसने नवरोश को जयपुर की बहुत सारी ऐतिहासिक इमारतें और स्थान भी दिखा दिये। फिर नवरोश जयपुर में जितने दिन भी रहा वह भी ओसनी के कारण अपने पिता के मित्र के घर भी नहीं गया। दोनों की इस प्रकार की हर दिन की मुलाकातों का परिणाम यह हुआ कि दोनों ही समझने लगे कि वे एक दूसरे के इतना करीब आ गये हैं कि अब दूर जाना बहुत कठिन होगा। स्वयं ओसनी भी नवरोश के प्रति हर दिन ही अपने भावी जीवन के सपने देखने लगी। लेकिन वह नारी थी, अपनी बात कहने से पहिले वह नवरोश की तरफ से प्रतीक्षा करने लगी कि, नवरोश ही अपनी तरफ से उसका हाथ मांगे। इन्हीं सपनों, ख्यालों और मुलाकातों के मध्य फिर एक दिन नवरोश को वापस मीतापुर जाना पड़ा। भारी मन और अपने दिल पर पहाड़ सा बोझ धरे तब नवरोश वापस घर आ गया। आते समय ओसनी की आंखों में आंसू तो नहीं पर मन जरुर ही उदास था। अपने दिल में नवरोश की ज़ुदाई का अफ़सोस वह छिपा नहीं सकी थी। स्टेशन तक वह नवरोश को छोड़ने भी आई। फिर घर आकर भी नवरोश का संबन्ध ओसनी से टेलीफोन और ई­मेल के द्वारा बना ही रहा। ओसनी जब भी उसे फोन करती तो कम से कम एक घंटे से अधिक ही उससे बतियाती भी रहती। तब एक दिन ओसनी का जब फोन उसके मोबाइल पर आया तो वह उस समय स्नान कर रहा था। सो उसकी मां को फोन उठाना पड़ा तो वह भी ओसनी से बात करके अचानक ही चौंक गई। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि उनका एकलौता पुत्र उनके हाथों से निकलकर किसी दूसरी राह पर मुड़ चुका है। मगर फिर भी उन्होंने इसका विरोध करना उचित नहीं समझा। नवरोश के माता­पिता खुले दिल और स्पष्ट विचारों के थे। आधुनिक समय में वे सब अपना जीवनयापन कर रहे थे। दोनों ने नवरोश से बात की और उससे कहा कि,

‘बेटा, जिस लड़की को तुम पसन्द करते हो, यह मत भूलना कि वह भी किसी की बेटी और अपने परिवार की इज्ज़त है। इस तरह से उसके साथ­साथ घूमने­फिरने और फोन पर बात करने से बेहतर होगा कि उससे जल्द से जल्द अपना विवाह कर लो और मान­ सम्मान के साथ उसे घर ले आओ। जब तुम लोगों ने पहिले ही एक दूसरे को पसन्द कर लिया है तो फिर घर, जाति, समाज और धर्म हम देखकर क्या करेंगे। ज्यादा अच्छा होगा कि उसे दो­एक दिन के लिये अपने घर पर आमन्त्रित करो, ताकि हम भी उसे देख-भाल लें। इतना सब कुछ होने के पश्चात और लड़की की भी मर्जी जानकर फिर हम उसके मां­बाप से बात करेंगे।’

नवरोश अपने माता­पिता की इस बात पर बहुत खुश हो गया। उसने तुरन्त ही ओसनी को फोन पर इस बात की सूचना दे दी। कॉलेज बन्द ही थे। ग्रीष्मकालीन छुट्टियां थीं। ओसनी ने भी अपनी दो अन्य सहेलियों के साथ कार्यक्रम बना लिया और मीतापुर शहर जो पहिले ही से प्रेम कहानियों का शहर कहलाता है, को देखने के लिये नवरोश के घर चली आई। नवरोश ने ओसनी और उसकी सहेलियों का ठहरने का प्रबन्ध अपने पिता के उस पुराने घर के अतिथगृह में करवा दिया था जिसमें उनका कारोबार चला करता था। लेकिन खाना आदि सब नवरोश के घर पर ही बना रहा। ओसनी ने चार दिनों का कार्यक्रम बनाया और अपनी दो सहेलियों के साथ मीतापर आकर जब नवरोश से मिली तो दोनों की खुशियों का ठिकाना ही नहीं रहा। इसका कारण था कि शायद दोनों में से किसी को भी इस बात का एहसास भी नहीं था कि उनकी वह प्रेम­कहानी जो अचानक से आरंभ हुई थी वह इतना शीघ्र अपने वास्तविक मन्तव्य पर आ भी जायेगी। इस प्रकार दोनों ही अपने भावी जीवन के ख्यालों और महल जैसे घर के सपनों को बनाने में खोने लगे। नवरोश ने इन चार दिनों में ओसनी और उसकी सहेलियों को अपने मीतापुर शहर की समस्त सुन्दर घूमने वाले स्थानों को दिखा दिया। इन सुन्दर स्थानों में से ओसनी को मीतापुर की रॉवी झील का मनोरम और सुन्दर प्राकृतिक दृश्य सबसे अच्छा लगा। दो दिनों तक वह बराबर इस झील पर जाती रही। अक्सर ही वह झील के किनारे बैठकर अपने दोनों पैर उसके ठंडे जल में डालकर नवरोश से घंटो बातें करती रही। सबसे अधिक खुशी उसको इस बात की थी कि उसका नवरोश से बना वह संबन्ध जो अपने आप अचानक से जयपुर के आमेर के किले की माओता झील के पानी को देखते हुये शुरू हुआ था उसकी परिणिति की अंतिम रूपरेखा भी अब एक झील के जल पर ही बन रही थी। शायद उसके जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इन झील के पानी की गहराइंयों में छुपा हुआ होगा? ऐसा सोच­ सोचकर ओसनी के अपने मन में ढेरों­ढेर हसीन आस्थायें जन्म लेने लगीं। ओसनी के ये चार दिन नवरोश की बाहों के सहारे बहुत अच्छे व्यतीत हुये। नवरोश की मां और पिता ने भी अपने इकलौते बेटे की पसंद के आगे अपनी पसंद की हां कर दी। उन्होंने फिर बाद में ओसनी के घर आने और बाकायदा उसका रिश्ता अपने बेटे नवरोश के लिये मांगने का समय मांगा और एक दिन उसके माता­पिता से मिलने का कार्यक्रम बनाया। तब ओसनी ने भी नवरोश से विदा लेते समय उसको और उसके माता­पिता को अपने घर आने के लिये किसी अनुकूल समय पर पहिले ही से सूचित कर देने का वादा किया और कहा कि,

“मैं घर जाकर तुमको अपने पहुंचने के बारे में फोन कर दूंगी और फिर जैसी भी स्थिति होगी उसके विषय में बता दूंगीं। तुम भी अपनी कुशलता के बारे में मुझे सूचित करते रहना और अपना ध्यान रखना।”

ओसनी अपने घर वापस चली गई तो नवरोश का मन स्वत: ही उदास हो गया। बहुत समय तक उसका दिल खुद को अकेला और तन्हा महसूस करता रहा। वह अनमना सा रहा। लेकिन फिर उसने अपने आपको समझा भी लिया। यही सोचकर वह सन्तुष्ट हो गया कि वास्तविक और सदा के बंधन में जुड़ने के लिये यह स्थिति तो आनी ही थी। ओसनी को उसने सुबह ग्यारह बजे की गाड़ी से बैठाया था। जयपुर पहुंचने का समय मात्र चार घंटों का ही था, यदि गाड़ी विलंब से न पहुंचे। वह शाम तक ओसनी का फोन आने की प्रतीक्षा करता रहा। लेकिन जब उसका कोई फोन नहीं आया और सकुशल पहुंचने की कोई सूचना नहीं मिली तो वह परेशान होने लगा। नहीं मिली तो बाद में उसने अपनी तरफ से फोन किया, लेकिन उत्तर में ओसनी का फोन स्विच बंद होने की सूचना देता रहा। फिर जब वह बहुत परेशान हो गया तो उसने रेलवे सूचना विभाग से गाड़ी के पहुंचने के बारे में पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि ओसनी को जयपुर ले जाने वाली एक्सप्रेस गाड़ी अपने निर्धारित समय पर ही पहुंच गई थी। गाड़ी के समय पर पहुंचने और ओसनी की कोई सूचना न मिलने पर नवरोश और भी अधिक परेशान हो गया। सोचने लगा कि ना जाने क्या बात हो? ओसनी के साथ में उसकी दो सहेलियां भी थीं। संपर्क करने का माध्यम केवल ओसनी के मोबायल फोन का ही नंबर उसके पास था और वह फोन बंद पड़ा था। ओसनी के साथ उसकी जो दो सहेलियां साथ आईं थीं, उनसे भी संपर्क बनाने का कोई ज़रिया उसके पास नहीं था। ओसनी के जयपुर के रहने के वाले निवास स्थान को भी उसने नहीं देखा था। वह मन ही मन अपने आपको कोसने लगा कि जयपुर घूमने के दौरान क्यों नहीं उसने ओसनी के घर और उसके रहने के स्थान का पता लगाया। अब वह क्या करे और किस प्रकार पता लगाये कि ओसनी का क्या हुआ? वह अपने घर पहुंची भी है या नहीं। यदि पहुंची है तो उसने अपने पहुंचने की सूचना क्यों नहीं दी? ना जाने क्या बात हो? विभिन्न प्रकार की हानिकारक बातों के बारे में सोचकर उसका दिल घबराने लगा।

फिर शाम को जब वह मां के कहने पर भोजन के लिये बैठा तो उसका लटका हुआ मुखड़ा देखकर उसकी मां का माथा ठनक गया। उन्होंने उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर उसकी तबियत के बारे में पूछा तो नवरोश ने यूं ही कह दिया कि वह ठीक है। फिर जब भोजन में उसकी अरूचि को देखा तो मां ने फिर एक संशय से उसे घूरा. उसकी परिस्थिति को भांपने का प्रयास किया। जब नहीं रहा गया तो नवरोश से पूछ बैठी। वे बोली,

“ओसनी के पहुंचने की सूचना मिली। क्या वह कुशल से पहुंच गई?”

उत्तर में नवरोश ने हां में झूठे से सिर हिलाया तो मां का दिल जैसे कांप गया। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि लड़का कहीं न कहीं से असन्तुलित हो चुका है।

“तू चुप क्यों है?” वे आगे बोलीं।

“पता नहीं। ऐसे ही सिर में दर्द सा है।” कह कर नवरोश खाने की मेज पर से उठने लगा तो मां फिर से बोलीं,

“चार दिनों से खूब सारा शहर घूमता फिरा है। थकावट हो गई होगी। मैं दूध लेकर आती हूं। पैरासीटामोल खाकर सो जा और कल फिर कहीं नहीं जायेगा। सारे दिन आराम करना।”

नवरोश अपनी मां के निर्देशानुसार भी शीघ्र ही जल्दी बहुत चाह कर भी नहीं सो सका। लगभग रात्रि के ग्यारह बजे तक वह अपने मोबायल फोन से ओसनी से सम्पर्क करने की कोशिश करता रहा। जब ओसनी से उसका कोई भी सम्पर्क नहीं हो सका तो वह निराश होकर लेटा रहा। फिर कब उसे नींद आ गई, कुछ पता नहीं चला। और सबेरे जब उसकी आंख खुली तो सुबह के नौ बज रहे थे। बिस्तर पर से उठने से पहले उसने अपना मोबाइल फोन चैक किया तो वह फिर से निराश हो गया। उसके फोन में कोई भी सन्देश और फोन नंबर ऐसा नहीं था जो किसी ने भी उसे किया हो। तब उसने फिर एक बार ओसनी का नंबर मिलाया तो वह फिर से एक बार निराश हो गया। ओसनी का फोन अभी तक बंद ही पड़ा हुआ था। तब ओसनी की तरफ से कोई भी सूचना ना मिलने पर उसके सामने सैकड़ों तरह के प्रश्नचिन्ह अपना चक्कर काटने लगे। तरह­तरह के विचारों से उसका मस्तिष्क घूमने सा लगा। ऐसी विषम परिस्थिति में तब उसने सोचा कि एक बार उसे जयपुर जाकर पता अवश्य ही लगाना चाहिये। लेकिन यह सोचकर कि वह जयपुर में जायेगा कहां? ओसनी का घर तो उसे ज्ञात है नहीं। वह कहां भटकता फिरेगा? तब उम्मीद की हल्की किरण को अपने दिल में जलाये वह केवल ओसनी की तरफ से कोई भी खबर या फोन आने की बाट जोहने लगा। सो इस प्रकार नवरोश का एक दिन बीता, दूसरा, तीसरा और होते­होते पूरा सप्ताह ही व्यतीत हो गया। ना तो ओसनी का फोन ही आया और ना ही उसकी कोई खबर ही। नवरोश का दिल टूटने लगा। अपनी मुट्ठी में से बंद आस का पंछी उसे उड़ता नज़र आने लगा। अपनी स्थिति, अपने हालात पर उसे रोना तो नहीं आया बल्कि तरस आने लगा। जयपुर की एक हसीन बाला उसे अपनी चार दिनों की रंगीन मुहब्बतों का सूख़ा आसमान दिखाकर, सितारों में इस प्रकार से लुप्त हो चुकी थीं कि अब उसे अपनी आस और उम्मीदों का एक भी तारा कहीं भी नज़र नहीं आ रहा था। ऐसा चकमा उसे दे गई थी कि उसे ओसनी के इस प्रकार के रवैये का कोई भी औचित्य या कारण नहीं दिखाई दे पा रहा था।

तब अपने मन के लड़ते­झगड़ते इन्हीं झंझावातों के दौरान नवरोश बहाने से एक दिन जयपुर पहुंचा। सारे दिन वह आमेर के किले में उसी स्थान पर खड़ा रहा जहां पर उसने ओसनी को कभी पहली बार देखा था। जयपुर के बड़े और मशहूर बाज़ार में वह इसी आशा पर घूमता फिरा कि शायद कहीं अचानक से उसकी ओसनी से भेंट हो जाये। अपने मोबाइल फोन में कैद ओसनी की फोटो वहां के कई एक दुकानदारों को दिखाकर भी जानकारी लेनी चाही, पर हर तरफ से उसे निराशा ही हाथ लगी। ओसनी की फोटो के अलावा अन्य कोई भी सूत्र उसके पास नहीं था. वह क्या करता और क्या नहीं। जयपुर शहर की तमाम गलियों का चक्कर काटकर और सड़कों को नापकर वह हार मान कर अपने दिल से मृत कामनाओं की अर्थी का कफ़न लपेटकर, निराशाओं की धुंध में वह वापस अपने घर मीतापुर आ गया। ओसनी की तरफ से उम्मीद की रही-बची किरण भी जब एक दिन अपना दम तोड़ने लगी तो फिर नवरोश ने इस विषय को अपनी ज़िन्दगी का एक बेवकूफ मोड़ मानकर बंद कर देना ही उचित समझा। वह समझ गया था कि उसके जीवन का यह एक ऐसा हादसा था जो एक दिन खुद ओसनी ने ही आरंभ किया था और उसी ने बंद भी कर दिया था। बगैर इस बात की चिन्ता किये हुये कि इस प्रकार की हरकत से उसके महबूब का क्या नुक्सान हुआ है और क्या नहीं? शायद किसी ने सच ही कहा है कि दिलों के टूटने की कोई भी आवाज़ या शोर नहीं हुआ करता है। केवल धुंआ उठा करता है। अपने दिल के इस उठते हुये धुंये को भी नवरोश ने प्रति दिन की सुबह की फीकी किरणों की मुस्कान और मैली शाम की ख़ामोशी में छुपा लिया। किसी से उसने कुछ भी नहीं कहा। अपने मां­बाप को भी जब उन्होंने ओसनी के बारे में पूछा तो उनको एक दिन सारी बातों से अवगत् करा दिया। धीरे­धीरे जब समय और बीता तो उसकी लगातार ज़मा होती हुई एक के बाद एक पर्तों के मध्य ओसनी का दर्द, उसकी धड़कन, उसकी स्मृतियां और उसके द्वारा किये हुये वादे, गर्मी के कारण किसी पिघलते हुये हिम के पानी में बहते चले गये।

इस प्रकार धीरे­धीरे एक वर्ष होने को आया। इस मध्य उसकी मां और पिता ना जाने कितनी ही बार उसे उनकी पसंद से अपना विवाह करने के लिये अनुरोध कर चुके थे, नवरोश को शायद याद भी नहीं होगा। लेकिन वह जानता था - प्यार का दर्द, प्यार के फूलों के द्वारा लगी हुई गहरी चोट के रिसने के कारण वह अपने विवाह की मंजूरी बहुत चाहते हुये भी नहीं दे सका। इतने दिनों के अन्तराल में वह ओसनी को भूला तो नहीं था पर हां उसे बहुत याद भी नहीं करता था। ऐसे में जब भी उसकी स्मृतियां उसको हैरान या परेशान करने लगती थीं तो वह बेबस होकर रॉवी के तट पर जाकर उन्हीं जगहों पर जाकर कुछेक क्षण बिता देता था, जहां की हवाओं में झूमते हुये कभी ओसनी ने उसे अपना जीवन साथी बनाने की लय में उसके गले में अपनी बाहों के हार डाले थे। लेकिन कौन जानता था कि ओसनी के प्यार की यही बाहें आज नवरोश के गले का वह फंदा बन चुकी थीं कि जिनके कारण ना तो वह अपनी फांसी ही लगा सकता है और ना हीं उन्हें अपनी गर्दन से हटा सकता है। कितना बुरा उसके पहले­पहले प्यार का अंजाम हुआ है। इस प्रकार कि अपने पहिले ही पग में वह प्रेम नाम की समस्त कक्षायें हार चुका था। ओसनी उसे प्यार की डगर पर अकेला और तन्हा छोड़कर चुपचाप मार्ग से नीचे उतर चुकी थी और वह इस राह पर अपनी ही धुन में कहां से कहां चला जा रहा है, उसे कुछ होश ही नहीं था?

तब अपनी ज़िन्दगी के इन्हीं दुख और दर्द भरे दिनों के मध्य उसे अमरपुर में रहने वाले अपने एक मित्र से फोन आया। उसके मित्र ने उससे कहा कि,

‘यार! तू तो अपना विवाह करेगा नहीं. चल मैं ही अपना विवाह तुझसे पहिले कर रहा हूं। विवाह की तारीख निश्चित हो चुकी है। मेरी होने वाली पत्नी नगरकोट की ही रहने वाली है। इसलिये बारात भी नगरकोट ही जायेगी। सो तू एक या दो दिन पहिले ही से अमरपुर मेरे घर आ जाना। यहीं से सब लोग चलेंगे। पूरी बारात के लिये बस किराये पर ले रखी है। यदि हो सके तो अपने माताजी और पिताजी को भी लेकर आना। उन्हें कोई भी परेशानी नहीं होने दी जायेगी। अपने घर की बात है, इस कारण विवाह का कार्ड नहीं भेज रहा हूं। तू तो जानता है कि अपने संबन्धियों को कार्ड के स्थान पर सीधा निमंत्रण ही दिया जाता है। न आने का कोई भी बहाना या मजबूरी नहीं चलेगी। तुझे हर हाल में आना है।’

फिर जब नवरोश अपने मित्र के विवाह में गया तो दुल्हन के रूप में सजी हुई ओसनी को देखकर दंग ही नहीं हुआ बल्कि उसे ऐसा लगा कि जैसे अचानक ही आसमान से कोई उल्का घबराकर उसके सिर पर गिर पड़ी है। ऐसा दृश्य देखने के लिये तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वह सोचने लगा कि क्या यही अंतिम अंजाम वह अपनी तबाह हुई मुहब्बत का देखने के लिये आया था? ओसनी को यह सब करने की क्या आवश्यकता थी? उसे यदि किसी दूसरे से ही अपना विवाह करना था तो यूं चुपचाप अचानक से छुपने या गायब होने की बजह क्या थी? केवल मुख से कहे हुये दो शब्दों के द्वारा ही प्यार के नाज़ुक संबन्धों की डोर के टुकड़े किये जा सकते थे। ओसनी ने उसको किस जुल्म की सज़ा दी है? कौन से पिछले जन्म का बदला उसने लिया है? नवरोश का दिल हाहाकार करने लगा। क्या जानता था कि जिस ‘ओस की धड़कन’ को उसने अपने दिल में चुपचाप बसाकर सदा के लिये सुरक्षित रख लिया है, वही उसकी ज़िन्दगी की सांसों की दुश्मन भी बन जायेगी। नवरोश का मन वहां एक पल भी रूकने को नहीं हुआ। उसने अपने मित्र से झूठ बोला। विवाह के कार्यक्रम तो चल ही रहे थे। लेकिन फिर भी वह किसी की भी परवाह न करते हुये अपने मित्र के पास गया और कहा कि,

“अभी­अभी मां का फोन आया है कि पिताजी को अचानक से दिल का दौरा पड़ गया है और वे अस्पताल में हैं। मुझे शीघ्र ही जाना होगा।”

“!!” तब नवरोश को अपने सामने अचानक से देख कर ओसनी भी दंग रह गई। इस प्रकार कि वह नवरोश से आंख मिलाते ही फिर अपना सिर ऊपर न उठा सकी। नवरोश की मजबूरी जानकर उसका मित्र फिर उससे रूकने का कोई आग्रह नहीं कर सका। उसने केवल इतना ही भर कहा कि,

‘संभालकर जाना और अपना ध्यान रखना। पहुंचते ही सब कुशलता की सूचना अवश्य दे देना। . . .’

. . . .सोचते हुये नवरोश की आंखों से दो बूंद आंसू किसी सूख़ी पत्ती पर ठहरी हुई शबनम के समान टूट कर नीचे गिर पड़े। संध्या डूब कर रात्रि को अंधकार में बदलने का पैगाम दे चुकी थी। दूर कहीं मीतापुर शहर में विद्युत की बत्तियां मुस्कराने लगीं थीं। वह चुपचाप उठा और लौटने लगा। काफी देर में घर पहुंचा और बगैर किसी को कुछ भी कहे चुपचाप कपड़े बदले ही बिस्तर पर औंधा ही लेट गया। मुंह छुपाकर— वक्त ने उसके मुंह पर प्यार की हसीन वादियों का वह काला रंग पोत दिया था कि जिसकी बजह से वह अपना मुख दिखा भी कैसे सकता था।

नवरोश के कुछेक दिन इसी अफ़सोस में व्यतीत हो गये। अपने आपको उसने बहुत समझाना चाहा, लेकिन समझा नहीं सका। रोना भी चाहा, पर रो न सका। फिर जब कुछ बस नहीं चला तो मन ही मन इसी घटना को सोचकर हर क्षण गलता रहा। मन में बसे इन्हीं विचारों के मध्य तब उसको एक दिन एक पत्र मिला। नवरोश ने पत्र देखा तो पल भर को कुछ समझ नहीं पाया। उसने पत्र को खोला और पढ़ने लगा,

‘काश: तुम्हारा यह पता मुझको पहिले ही मिल जाता तो शायद तुमको यह दिन नहीं देखना पड़ता और मुझको भी तुम्हारे सामने अपनी नज़रें नीची नहीं करनी पड़ती। मैं जानती हूं कि मैंने तुमको बहुत सताया है। बहुत ही अधिक तुम्हारा दिल दुखाया है। तुम मुझे बहुत बुरा­भला कह रहे होगे। शायद मन ही मन बहुत गालियां भी दे चुके होगे। लेकिन मेरी विवशता को जानोगे तो हो सकता है कि तुम मुझे मॉफ कर सको। अब से एक साल पहिले जब मैं तुम्हारे घर से अपनी सख़ियों के साथ वापस अपने घर पर आई थी तो मन में कितने सारे अरमान थे कि मैं बता नहीं सकती। लेकिन जब घर पहुंची तो पता चला कि लड़के वाले जिनसे मेरे माता­पिता ने बहुत पहिले ही मेरे विवाह के लिये कभी बात की होगी, मेरे घर पर बैठे हुये थे। लड़के वालों ने मुझे पसंद कर लिया और फिर यह सब इतना शीघ्र हो गया कि मुझे अपने परिवार वालों से कुछ भी कहने का अवसर ही नहीं मिला। मेरे साथ हुई इस सारी घटना को मैंने तुम्हें बताना भी चाहा था पर मेरा मोबाइल भी मार्ग में ही कहीं खो गया था। इस प्रकार से तुम्हारा मात्र फोन नंबर ही तुमसे संपर्क करने का एक सहारा था. जब वह भी नहीं रहा तो मैं मजबूर हो गई। मंगनी होने के कारण मुझको फिर अपने यहां से कहीं भी अकेले जाने की मनाही भी हो चुकी थी। घर में मेरी शादी की तैयारियां हो रही थीं और मैं तुमसे संपर्क करके केवल तुमको सारी परिस्थितियों से अवगत् भर कराने का मार्ग ढूंढ़ती रही। इसी बीच पिताजी का तबादला हो गया तो हम लोग नगरकोट चले आये। फिर उसके पश्चात वह सब हो गया जो तुम देख ही चुके हो। यह मेरी ज़िन्दगी की करवट का वह बड़ा हादसा है जिसने एक पल में ही मेरे जीवन के सफ़र का सारा रूख़ ही बदल डाला। मैं तुम्हारी मुज़रिम हूं। तुमसे कुछ कहने का अधिकार भी खो चुकी हूं। बस तुमसे एक गुज़ारिश है कि जितना भी शीघ्र हो तुम अपना विवाह कर लेना और फिर मुझको याद करके अपनी होने वाली पत्नी के प्यार का कभी भी अपमान मत करना। मैं तुम्हारी एक बेबस मीत हूँ, दुश्मन नहीं। मेरी बेबसी पर यदि ध्यान से सोचोगे तो हो सकता है कि तुम मुझे मॉफ कर सको। ओसनी।’

नवरोश ने पत्र पढ़ा तो केवल दूर क्षितिज में केवल देखता ही रह गया। उस पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं हुई। वह ना तो रो सका और ना ही हंस सका। पत्र को अपनी मुट्ठी में ही उसने मसल डाला। फिर अपना मोबाइल फोन निकाला और उसमें से उसने ओसनी की तस्वीर को अंतिम बार खोला। बड़ी देर तक वह ओसनी की फोटो को देखता रहा। फिर उसने धीरे से ‘डिलीट’ का बटन दबा दिया। एक हल्की दबी सी आह के साथ ओसनी की मुस्कराती तस्वीर गुम होती हुई किसी अंधेरी सुरंग में विलीन हो गई। वह तस्वीर जिसे एक साल से ढूंढ़ते हुये उसने अपना सारा बल लगा दिया था और अब मिली भी थी तो मिलने के पश्चात सदा के लिये फिर खो भी दिया था। शायद इसलिये कि, ओस की फितरत ही खो जाने की होती है - रात भर सपने के समान दिखती है, पर सुबह होते ही गुम भी हो जाती है।

समाप्त.


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