खोए हुए दृश्य ANKIT YADAV द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खोए हुए दृश्य

देखो तो इन हरामजादों को, कैसे हाथ में हाथ मिलाए घूमे जा रहे हैं। ना मां-बाप का डर है ना समाज का। शाम हुई नहीं कि यह दृश्य देखते रहते है। इन भालमानस को कौन समझाए अब कि पढ़ाई कितनी जरूरी है। इनका क्या है शाम होते ही गाड़ी घोड़ा लेकर निकल पड़ते हैं और सुंदरियां आती है फिर सज धज के मानो किसी की शादी में आई हो। इतना ताम-झाम लीपा पोती मानो भारत नही अमेरिका के बाजार में खड़ा हूं। हमारी भी उम्र इन लड़कों जैसी है जो यहां लड़कियों के संग घूम रहे हैं। लेकिन कभी देखा हमें लड़कियों के साथ। हम अपनी भारतीय संस्कृति को लेकर चल रहे जो हैं। हमारा तो पूरा दिन व्यस्तता मे चला जाता है। सुबह जल्दी उठकर कंप्यूटर सीखने जाना, फिर पटरी पर घूमने निकल जाना, आकर थोड़ा मोबाइल देखना, खाना खाया और शाम को फिर वही पटरियों पर। साथ में एक दोस्त भी घूमता है बड़ा ही ठाली आदमी है लेकिन मैसेज का रिप्लाई ना करके दिखाता ऐसे हैं कि कहीं बाजार का सेठ हो। वैसे दुनिया की नजरों में तो बड़ा शरीफ बनता है लेकिन उसकी असलियत हमसे कहां छुपी है। शहबजादे का अभी ब्रेकअप हुआ है, दो-तीन महीने पहले रातभर पड़ोसन से नैन मटटके चलते थे। लेकिन झूठ की गाड़ी पर सवार साहब का रिश्ता कहां तक चलता। अब रोज उसी पड़ोसन से पीटता है। उसकी यह हालत देख कर मुझे लगता है कि भाई, मैं अकेले ही ठीक हूं। ना किसी का रौब देखना, अपनी मर्जी के अपने मालिक। खैर मन तो मेरा भी करता है कि कोई एक- आद लड़की दोस्त तो हमारी भी हो, आखिर यही उमर है, एक उम्र के बाद कहां प्यार- प्यार होता है, फिर तो बस जिंदगी गुजारनी है। हम और हमारा दोस्त लड़कियों को देखने बाजार जाते हैं, तो मुश्किल से आंसुओं को रोकते हैं। यह लड़की बाइक पर बैठकर फाटक से निकलती है और हम पैदल घिसड़ते रहते हैं। एक और दोस्त भी है, कहने के लिए दोस्त है जिसकी क्या विशेषता बताऊं कि बस संयोग है यह क्या है पता नहीं, उसके साथ आते ही छोरियां बहाने लगती हैं। भाई साहब जहां जाते हैं वहीं ये सब होने लगता है।
खैर मेरा तो मन ही यह मान बैठा है कि पहली बार शादी के बाद ही लड़की का हाथ हाथ-में आएगा। इंस्टाग्राम पर ले देकर तीन चार लड़कियों को फॉलो करते हैं उन पर भी कमीनें दोस्त की अपने ब्रेकअप के बाद नियत होने लगती है। ऊपर से गली में यह सुगबुगाहट है कि मेरी कोई गर्लफ्रेंड है। अब करे तो क्या करें। अब इन नाऔसमझो को कौन समझाए की सिंगल रहने का ठप्पा मेरे पर है जो किसी व्यवित, संस्था, सरकार से मिटता दिख नहीं रहा।
गलती मेरी व्यक्तित्व की भी है, शर्मिला सा ठहरा। लड़कियां देखके बात करने का मन तो करता है लेकिन एक अजीब सा ठहरा पन आ जाता है। यह ठहरा पन पिटने का डर है या क्या है पता नहीं। दूसरा लड़कियों भी आस पास कहां। अब सारे दिन बाजार तो नहीं जाया जाता। मोहल्ले में एक ही लड़की है वह भी मेरे कमीनें दोस्त की ex है। मैंने बड़े से बड़े बेशर्म देखे है लेकिन इस कमीनें जितना नहीं। ले 7:00 बजे नहीं कि यह रोड पर उसे देखने निकल पड़ता है। मुझे भी खैर दोस्ती निभाने जाना पड़ता है, ले इसी बहाने बाकी मुझे भी एक लड़की देखने का शौक तो मिलता है। एक ऐसे दौर में जहां बड़े महानगरों में खुल्लम खुल्ला आशिकयाॅ चलती रहती है वहां मध्यनगर होने के बाद अकेला पन सच में दिल खुरेदता रहता है। अपनी स्थिति के बाद की बातें सुन-सुन दिल बहलाने की आदत हो चुकी है। खैर अभिलाष अपना नायक है ही, लड़की छोड़ते ही सीधा कलेक्ट्री का सुख जो मिला। और लड़कियों ऐसा है भी क्या, हमारे जैसी ही खाल है, वैसा ही चेहरा। क्या फर्क है उनसे दोस्ती में और लड़को से दोस्ती मे। खैर ये बातें बाहर नहीं बोलता, क्या पता मन कुंठा का आरोप मुझ पर लगा दिया जाए।
खैर 7:00 बज गए हैं। कमीनें का मैसेज भी आ गया है।
वही उसी एक लड़की को ताड़ने जाना जो मुंह पलट कर देखती भी नहीं। कई बार इतनी बेज्जती का एहसास होता है पर क्या करें, वह कहते हैं ना भिखारी को रोटी मांगने में बेइज्जती महसूस नहीं होती। जिस प्रकार भिखारी को रोटी की भूख है वैसे ही एक दोस्त की भूख हमारी है। फर्क इतना है भिखारी कि भूख रोटी खाकर खत्म होती है और मेरी भूख रोटी खाकर शुरू होती है।