ताश का आशियाना - भाग 18 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 18

रागिनी खुदके अतीत से ही जाग उठी। बाहर श्याम हो चुकी थी। "मैं इतने देर तक सोती रही?" पहला सवाल रागिनी के मन में यही उठा।
कभी–कभी नींद थक जाने पर नही लगती जब लगती है तब हम इतना थक जाते है की उठने का मन नहीं होता। जैसे एक ही नींद में उसने पूरे हफ्ते की नींद बहा दी हो।
रागिनी का सिर भारी हो चुका था, फिर भी वो उठी और फ्रेश होकर पेट का आसरा ढूंढने रूम से बाहर चल पड़ी।
वैसे भी सुबह के कचोरी पर ही थी वो, दोपहर के खाने में जो बखेड़ा खड़ा हुआ उसके बात तो उसका मन ही कड़वा हो गया था।
जैसे ही रूम का दरवाजा रागिनी ने खोला वहा बैठी घर की महिला सदस्य का ध्यान उसपर चला गया।
रागिनी को किचन में जाते देख, सही मौका देख वैशाली ने अपनी बात आगे रखी।
"रागिनी कुछ बना कर दूं?" वैशाली बड़े आस से बोल गई।
रागिनी खीज उठी, "नहीं मैं बना लूंगी"।
इतना कहके वो किचन में चली गई। हर एक ड्रावर में मैगी के पैकेट खोजने लगी।
"रागिनी क्या ढूंढ रही हो?" वैशाली चिंता से बोल उठी।
"मैगी"
"वो.. मैने फेंक दी।" वैशाली झिझकते हुए बोल उठी।
"क्यों?" इसपर रागिनी गुस्सा हो गई।
"वो शरीर के लिए हानिकारक होती है। लेकिन चिंता मत करो मैं फ्रेश नाश्ता बना देती हूं, वैसे भी आज रात पालक पनीर बनने वाला है।"
रागिनी को चिल्लाना था आखिर क्यों इतनी दखलअंदाजी पर उसने अपने मुंह को निचोड़ डाला।

सिर्फ डिब्बे से दो-तीन बिस्किट और स्नेक्स उठा के, "खाना होते ही बुला लेना।" इतना कह अपने कमरे की तरफ़ बढ़, रूम का दरवाजा धड़ाम..से बंद कर दिया।

"कल सुबह 10:00 बजे काशी कैफे पर.."
रागिनी ने मैसेज पढ़ते ही "ठीक है।" टाइप किया।

उसी रात खाने के टेबल पर।
"कोई आगे का कुछ सोचा है?"
"आगे क्या दादाजी?" रागिनी ने पालक पनीर में रोटी का टुकड़ा डूबते हुए पूछा।
"शादी के बारे में।"
"मैं अभी शादी नहीं करना चाहती, मैंने आपको पहले ही बता दिया।" यह विधान देकर रागिनी ने अपना हाथ का निवाला मुंह में डाल दिया।
"30 साल की हो चुकी हो तुम और कितने साल ऐसे ही जीने का विचार है?" प्रताप खीज उठा।
"आप पर मै बोझ हूं ऐसा तो मुझे नहीं लगता।" रागिनी प्रताप को चिढ़ाते हुए बोल उठी।
"रागिनी!!" इस बार यह आवाज दादाजी की थी।
"बेटा हर एक को अपनी जिंदगी में आगे जाकर साथ देने के लिए, ख्याल रखने के लिए, जीवन साथी की जरूरत होती है आगे जाकर जिंदगी आज की जैसी आसान नहीं होती।"
"पर दादाजी आपने चुने हुए रिश्ते मुझे पसंद नहीं आए, उसमें मैं क्या कर सकती हूं!" रागिनी खुद की दुविधा बयां करने लगी।
"पहले ही बार में हमें कोई पसंद नहीं आता उसे हमें जैसा है वैसा ही धीरे-धीरे स्वीकार करना पड़ता है, फिर अपने आप पसंद आ जाता है।" प्रताप अपनी प्रस्तावना दे उठा।
"You mean to say compromise"
"रागिनी बेटा तुम अपने पसंद के लड़के से शादी करो हम कहा तुम्हें कुछ बोल रहे हैं, पर वह लड़का हमारी पसंद का हो तो दिल को तसल्ली रहेगी।" वैशाली बड़े ही शालीनता से बोल उठी।
"मेरी पसंद का तो मैंने चुना था ना मां, आपने उसके परिवार को यह बता दिया कि बेटी मांगलिक है, फिर भी वह नहीं माने तो 1 साल में बेटा मरने की धमकी; यह सुनकर कौन से मां–बाप अपने बेटे की शादी मुझसे करेंगे हां!" रागिनी अब आक्रोश एवं घृणा से झल्ला उठी।
माइकल उसके लिए परफेक्ट था। वो उसे काफी अच्छी तरह से समझता था, वह उसकी जरूरतों का ज्यादा अच्छे से ध्यान रख पाता था। माइकल से वह प्यार करती थी या नहीं यह पता नहीं पर वो ऐसा दोस्त था जिसे वह जिंदगी भर अपने पास रखना चाहती थी।
"चिल्लाओ मत रागिनी! कल शास्त्री जी आएंगे लड़के के फोटो लेकर उनमें से एक का चुनाव कर लेना।" पहली बार श्रीकांत ने इस लड़ाई को पूर्णविराम लगाने की कोशिश की।
"नहीं बिल्कुल नहीं आपने मुझे आखिरी लड़की के वक्त प्रॉमिस किया था अगर यह रिश्ता उस लड़के ने खुद ठुकरा दिया तो आप मेरी शादी की जिद छोड़ देंगे।" रागिनी अब सकपका उठी।
"उस लड़के ने रिश्ता ठुकराया नहीं, वह डरपोक भाग गया यह जानते हुए भी कि उसकी हमारी सामने कुछ औकात नहीं।" श्रीकांत उपहास करते हुए घृणा प्रकट करने लगा।
"अच्छा हुआ ना भाग गया; जान छूटी उसकी आप जैसे पागल ससुराल वालों से वरना पता नहीं उसको भी अपने जैसा ही बना देते।"
इतना कह रागिनी ने निवाला पटक दिया जितना कुछ खा पाई थी वही उसकी किस्मत में था आज।
"रागिनी रुक जाओ बेटा खाना खाकर जाओ खाने का ऐसे अपमान नहीं करना चाहिए।"
"तो आपको भी सोचना चाहिए ना मां की कौन सी बात कहा छेड़ी जानी चाहिए अगर सारा इंपॉर्टेंट डिस्कशन खाने के टेबल पर ही होगा तो उसमें मैं क्या कर सकती हूं।" इतना कह वो वहां से चली गई।

रात बीत गई, सुबह हो गई बनारस में।
गंगा मैया के पाव छूकर वो अपने सफर पर निकल पड़ा। रागिनी की नींद पर्दो के झरोके से खुल गई।
नया दिन था उसके लिए।
अभी फिलहाल 9 बजे रहे थे।
कल रात वो ज्यादा देर तक सो नहीं सकी, दोपहर में जो सो गई थी। इसलिए कुछ पेंडिंग काम पूरे कर रही थी जब तक वो फिर से एकबार थक नहीं जाती।
अपने रोज के दिनचर्या को पूरा करने पर वह कमरे से बाहर निकली।
बाहर निकलते ही घर में सन्नाटा था।
वैशाली और गौरी किचन में कुछ पका रहे थे।
दादाजी सोफे पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे, चाय टेबल पर रखी हुई थी।
श्रीकांत और प्रताप का कहीं अता–पता नहीं था।
रागिनी किचन में पानी पीने आयी।
रागिनी के पानी पीते ही,"अरे रागिनी तुम उठ गई।"
वैशाली ने चहचहाते हुए कहा।
"नहीं अभी भी नींद में हूं।" रागिनी ने घृणा से आंखे घुमा ली।
वैशाली जवाब सुनकर सिर्फ शर्मिंदगी से मुस्कुरा दी।
"डाइनिंग टेबल पर बैठ जाओ बेटा थोड़ा ब्रेकफास्ट कर लो।"
रागिनी वैशाली का प्रस्ताव ठुकराना तो चाहती थी पर उसे भूख भी बहुत लगी थी इसलिए उसने टेबल पर बैठ जाना ज्यादा ठीक समझा।
खाना परोसा गया, श्रीकांत और प्रताप भी अब तक तैयार होकर टेबल पर आ चुके थे।
दोनों ने रागिनी की तरफ देखा, कल रात छिड़ी बहस के बाद किसी को भी अपनी सुबह खराब करने का कोई शौक नहीं था।
ब्रेकफास्ट बड़ी ही शांति से हुआ।
रागिनी तैयार होने अपने कमरे में चली गई।
तभी उसका फोन बजा।
फोन उसकी दोस्त मीरा का था।
"हेलो कैसी हो?"
"अभी ठीक हूं।"
"कब आ रही हो तुम बनारस?"
"मुझे तुम अब बता रही हो!"
"ठीक है मैं तुम्हारे रहने का इंतजाम कर दूंगी।"
"ओके हा बाबा हा बात करेंगे।"
रागिनी ने अपने तरफ का संवाद खत्म कर फोन रख दिया।
रागिनी नहा कर तैयार हो गई।
और अपने सफर पर निकल पड़ी।
इस बार उसे किसी ने नहीं रोका, घर में रागिनी के बाहर जाने से श्रीकांत और प्रताप छोड़ किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। माओ को तो अपने बच्चों की सिर्फ भलाई नजर आती है।
रागिनी 20–30 मिनट में अस्सी घाट के काशी कैफे पहुंची। (No advertisment promotion)
11:00 बजे थे, तो ज्यादा भीड़ नहीं थी।
लेकिन दो-तीन बनारस घूमने आए टूरिस्ट वहां कॉफ़ी का मजा उठा रहे थे।
गल्ले पर मालक बैठा हुआ था।
वेटर कस्टमर को अटेन कर रहे थे।
अभी भी कुछ भीड़–भाड़ नहीं थी।
उसी में एक औरत ने रागिनी का ध्यान खींच लिया।
हरे रंग की सारी, हाथों में कंगन, थोड़े काले सफेद बाल, काले कम सफेद ज्यादा। शरीर की रचना से 50 वर्षीय औरत नजर आ रही थी। उनके पैर से सट कर नीचे सब्जियों से भर कर एक कपड़े का थैला रखा हुआ था।
रागिनी उस औरत के तरफ बढ़ी।
"आपने मुझे बुलाया?” यह प्रश्न और उत्तर दोनो ही थे।
औरत मुस्कुरा दी उनकी एक मुस्कुराहट के साथ आंखों की झुर्रियां भी मुस्कुरा उठी।
"बैठो ना!"औरत ने बड़े कोमलता से कहा।
रागिनी बैठ गई।
"अब बताइए, आपने मुझे यहां क्यों बुलाया है?" रागिनी का वाक्य एकलय था।
"पहले हाथ आगे करो।"
रागिनी बैठ गई, "क्यों?"
"करो ना!" उस औरत ने अनुरोध किया।
रागिनी ने हाथ आगे करते ही, उस औरत ने हाथ में कंगन पहनवा दिए।
"यह क्या कर रही है, आप?" रागिनी चिढ़ उठी।
लोग दोनो की तरफ देखने लगे ।
औरत ने भी लोगो की तरफ देखा पर, रागिनी ने सॉरी बुदबुदा कर बात संभाल ली।
"यह क्या है, आप मुझे यह क्यों दे रही है।"
"इसे शगुन कहते है, हमारी यहां होने वाली दुल्हन को दिया जाता है।"
रागिनी को इस बात से बैचनी महसूस हो रही थी लेकिन, उसने अपने दिमाग को ठंडा रख बात आगे बढ़ाना ठीक समझा।
"आप ने मुझे यहां क्यों बुलाया आप कुछ बताएगी भी?" रागिनी सीधा मुद्दे पर आई पर अंदर गुस्से के लावा धधक रहे थे।
"कुछ बात आगे बढ़ी।" औरत का उत्साह चरमसिमा पर था।
"अभी अभी तो मिले है हम, आपको इस रिश्ते से कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्टेशन नही है।"
"क्या पता अगर इस रिश्ते से कुछ हासिल नहीं हुआ तो? क्या पता मैं सिद्धार्थ को पसंद ही नही आई तो? और क्या पता मुझे सिद्धार्थ ज्यादा देर तक इंटरेस्टेड नही लगा तो?" रागिनी के अंदर दबा हुआ सारा गुस्सा अब धीरे धीरे बाहर आ रहा था।
"हा शायद हो सकता है, पर मुझे तो पूरा यकीन है, तुम मेरे सिद्धार्थ के लिए ही बनी हो।" गंगा उत्तेजना से बोल उठी।
"क्या बात है, आप तो बिल्कुल सीरियल की मां की तरह आदर्शवादी बाते कर रही है, टोटल मेलोड्रामैटिक।"
गंगा एकाएक लगाए गए इलजाम से सक्ते में आ गई। पर जल्द ही कुछ सोच आश्चर्य के भाव हसी में बदल गए।
"क्या करू बेटा, जब बच्चा छोटा होता है, तो आगे जाकर उसका क्या होगा? यह चिंता मां को सताती है। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो लगता है, बच्चा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए और जब बच्चा खुदके पैरो पर खड़ा हो जाता है तो उसे संभालने वाला कोई होना चाहिए यही चिंता सताती रहती है, हर मां को।
इस तरह से दुनिया की हर मां मेलोड्रामैटिक ही होती है।"
"आप समझ क्यों नहीं रही है आंटी! सिद्धार्थ का जैसा बिहेवियर है, और वो जिस बीमारी से गुजर रहा है, यह बात ध्यान में रखते हुए उसे एक शांत, पेशंशफुल लड़की चाहिए। सिद्धार्थ को इमोशंस दिखाने में जो हिचकिचाहट होती है, वो उसे सिर्फ बिना बोले ही समझ जाए ऐसी लड़की चाहिए उसे।"
"मैं उसके लिए सही नहीं हू। अगर इन सब के बाद भी कुछ हाथ में नही आया तो..." रागिनी अब सिर्फ एक सास में उगल पड़ी।
"तुम ऐसा सोच भी क्यों रही हो? तुम पूरे विश्वास के साथ दावा कर सकती हो? नही ना, वैसे मैं भी नही कर सकती और इस रिश्ते से कुछ बाहर आए या ना आए।
सिद्धार्थ की शादी तुमसे हो या किसी से भी लेकिन आखिरकार मैं सिर्फ उसे सुखी और खुशहाल इंसान देखना चाहती हू।"
"और एक बाद याद रखना, जब दोस्ती होती है तब बराबरी से होती है, और जब प्यार होता है तो ऐसे दोन पजल एक साथ आते है जो फिट होने के लिए बराबर ही नही होते जो समय रहते आदतनरूप फिट हो जाते है।"
इतना कह सिर्फ सिद्धार्थ की मां गंगा वहा से चल पड़ी।
रागिनी उन्हे जाते हुए तो देख रही थी लेकिन जिस संभ्रम में वो थी वो उन्हे विदा तक नही कर पाई।